60 वर्ष गए पिक्चर अभी बाकी
है
आज भारतीय राजनीति जिस बहुराहे पर खड़ी है
वहाँ से आगे जाने का रास्ता सावधानी और उच्च सिद्धांतों के आलोक में तय किया जाना
चाहिए। हमारी राजनीतिक व्यवस्था बहुदलीय लोकतन्त्र पर आधारित है और इस व्यवस्था का
मुख्य पहलू है दलीय प्रतिस्पर्धा। दुर्भाग्य से आज़ादी के आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने
वाले नेताओं और संस्थाओं ने पार्टियों का रूप लेकर इस प्रतिस्पर्धा का गला घोंट
दिया और आज़ादी को महज़ सत्ता हस्तांतरण बना दिया गया। 1947 में चुनावी राजनीति में
कांग्रेस और इसके सभी नेताओं से परे कोई सोच नहीं थी और इसी पूर्ण सहमति ने पहले
आम चुनाव को जहां अभूतपूर्व रूप से सफल बनाया तो दूसरी ओर इसने बहुदलीय व्यवस्था को
अप्रासंगिक बना दिया। संसदीय व्यवस्थ में
विपक्ष का महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक मजबूत विपक्ष एक अच्छी सरकार का आश्वासन
भी होता है। लेकिन कांग्रेस के सर्वाधिकार ने भारतीय संसदीय व्यवस्था में कभी भी
एक मजबूत विपक्ष को उभरने नहीं दिया। आज़ादी को लेकर जो गरिमा, स्फूर्ति और आशा
पूरे देश में फैली थी उसे आगे की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने की प्रक्रिया को भी
इस प्रवृत्ति ने बाधित किया। एकाधिकार और निर्विरोध चुनाव ने कांग्रेस को एक ओर
वंशवादी बना दिया तो दूसरी ओर जनता को यथास्थितिवादी। विपक्ष का कमजोर विकास
राजनीति में निजी स्वार्थों को सर्वोपरि रखने वाले लोगों के लिए वरदान बन कर आया।
ऐसे में कुनिर्णयों,
दुर्भाग्य और परिवार्तनों के दौर में सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए एकाधिकारवादी
और अवसरवादी दोनों ने मिल कर देश की राजनीति को ठीक उन्हीं बिन्दुओं पर ला कर खड़ा
कर दिया है जिनसे आज़ादी पाने के लिए हमने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी। इसी अवसरवाद
ने ठीक अंग्रेजों की तरह भारतीय समाज के तानेबाने में मौजूद सभी दरारों को और बड़ा
किया एवं नयी दरारें भी ईज़ाद की गईं। जाति,
भाषा,
धर्म और क्षेत्रीयता के जिन मुद्दों के लिए आशा की गयी थी कि स्वशासन के दौर में
ये मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाएंगे उन्हीं मुद्दों के सहारे गैर कांग्रेसी दलों
ने अपने पैर जमाने की कोशिश की। इस तरह देश की राजनीति ने कल्याणकारी की बजाए
जातिवाद,
सांप्रदायिकता,
क्षेत्रीयता और कट्टरवाद का रास्ता चुन लिया। इस राजनीति ने आज़ादी के बाद के
सुनहरे सपनों को ज़मीन पर उतारने की कोशिश करने की बजाए यथास्थितिवाद को प्राथमिकता
दी। इस राजनीति ने कर्तव्यबोध और काम करने की संस्कृति की बजाए चापलूसी, भाई भतीजावाद और
रिश्वतख़ोरी को जन्म दिया। जनता के मोहभंग और क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक और
जातिवादी राजनीति के कारण जब कांग्रेस का एकाधिकार दरकने लगा तो अब यथास्थिति बनाए
रखने के लिए इन्दिरा गांधी द्वारा प्रतिबद्ध नौकरशाही, न्यपालिका और
दमन का सहारा लिया गया और फिर आपातकाल जैसे गैर लोकतान्त्रिक कदम भी उठये गए और
अंततः पीछे के दरवाजे की राजनीति भी आरंभ हुयी जब कि बूथ कैप्चरिंग, राजनीतिक
हत्याएँ,
पुलिस और खुफिया तंत्र का इस्तेमाल सत्ता पाने या गिराने में होने लगा। बूथ
कैप्चरिंग,
आलोकतांत्रिक तरीकों के क्षेत्र में भारत का आविष्कार था। इस तरीके ने राजनीति में
अपराधियों के लिए एक बेहतर रोजगार का अवसर पैदा किया और 70 के दशक में बिहार, बंगाल और उत्तर
प्रदेश में अनेक ऐसे अपराधी बकायदा विभिन्न चुनावी हथकंडों की संगठित सेवा देने
लगे। राजनीति और अपराध नजदीक आ गए। प्रतिबद्ध नौकरशाही, न्यायपालिका और
पुलिस की अवधारणा ने ट्रांसफर-पोस्टिंग,
थानों की नीलामी,
पदों की नीलामी और काले धन का प्रचलन बढ़ा दिया। सार्वजनिक जीवन से कर्तव्य, आदर्श और शुचिता
के सभी आग्रह समाप्त हो गए और भारतीय जनता अपने संतोषी सदा सुखी को आदर्श मान कर
अपने खोल में दुबक गयी। अनेक विफल और अधूरी क्रांतियों के बाद अंततः अब कोई
राष्ट्रकवि भी नहीं है। देश के इतिहास में अनेक भीषण मानवीय त्रासदियाँ हुईं पर
भारतीय कला चुप रही। समाज की अभिव्यक्ति लुप्त हो गयी। 84 के दंगे हुये, आपातकाल के सितम, नर-संहार, युद्ध, क्रांतियाँ, गरीबी, आतंकवाद और फिर
दंगे लेकिन कलाकार,
साहित्यकार,
संगीतकार चुप रहे। जैसे जैसे देश में निराशा घर कर रही थी कला का फ़लक भी स्याह
होता जा रहा था। फिल्मों,
संगीत,
चित्रकला में उत्तरोत्तर अश्लीलता भी बढ़ रही थी। साहित्य भी चुप ही रहा बल्कि
साहित्य भी राजनीतिक-सामाजिक क्षरण के प्रभाव से नहीं बच पाया और इस दौर में
प्रकाशस्तंभ की बजाए महज आईना बन कर रह गया। साहित्य भी राजनीति की भांति जातिवादी, खेमेबाजी, धार्मिक और
अवसरवादी हो गया। अब हमारे पास कहानीकार नहीं बल्कि दलित या स्त्री या मुस्लिम
कहानीकार होते हैं। अब साहित्य रसास्वादन के लिए नहीं बल्कि खेमेबाजी के लिए लिखा
जाता है। साहित्य अब राजनीति की B
टीम बन गया है। यह वह साहित्य नहीं जो जनसंवेदनाओं
को जगाए बल्कि यह उसे भ्रमित करने वाला और बांटने वाला साहित्य है। उयाह कुरीतियों
पर कुठराघात नहीं करता बल्कि नयी कुरीतियाँ पैदा और पुष्ट करता है। यह जनता से दूर
है और राजनीति के करीब। यह वह आईना है जो उल्टी तस्वीर दिखाता है। यह मूल्यों को
पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में रुचि नहीं दिखाता। यह नई पीढ़ी के लिए कुछ नहीं
देता।
आज़ादी के भंग सपने और जीवन की जद्दोजहद में
हमने एक आलसी,
यथास्थितिवादी,
और असंवेदनशील समाज विकसित कर लिया है। पुरुषार्थ और कर्मवाद के जन्मदाता देश में
इन्हीं मूल्यों को खो दिया गया। यह हताशाजनक ही है कि 65 आज़ाद वर्षों बाद भी आज
विश्व में सर्वाधिक गरीब,
अशिक्षित,
कुशासित और प्रदूषित देशों में हम गिने जाते हैं। देश में शिक्षा का जो ढांचा
अंग्रेज़ विकसित कर गए थे हम उसी के खंडहरों पर खड़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में
नवीनता के नाम पर सिर्फ पब्लिक स्कूल और उनकी विशालकाय इमारतें, भारी बस्ते, भीषण फीस, ठूँसे हुये दिमाग और ठस शिक्षक ही हैं हमारे
पास। कोई नया विचार,
आंदोलन नहीं है। सब कुछ सरकार पर निर्भर है।
भारतीय समाज के मानस में अंग्रेजों ने हीन
भावनाओं ने जो बीज बोये थे और हमें भरोसा दिलाया था कि हम एक समाज के तौर पर विफल
हैं,
वे अब फल दे रहे थे। हम एक विफल समाज के रूप में विकसित होते जा रहे हैं। हमारे
यहाँ व्यक्तिगत उपलब्धियां बहुत हैं पर सामूहिक सफलताएँ कम। व्यक्तिगत रूप से हम
विदेशों में जा कर बड़ी सफलताएँ हासिल करते हैं पर सामाजिक तौर पर हमारी उपलब्धियां
शून्य हैं। देश में धन का उदारीकरण तो हो गया पर मन का उदारीकरण होना बाकी है।
पुराने मूल्यों को तो हमने त्याग दिया है पर नए श्रेष्ठ मूल्यों का निर्माण अभी
बाकी है। देश पुनः एक बहुराहे पर खड़ा है।
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