27 फ़र॰ 2012

नोर्वे को सबक

दो भारतीय बच्चों को तथाकथित सुरक्षा गृह में रखने का मामला बड़ा विचित्र है और साथ ही संस्कृतियों की विभिन्नता भी दर्शाता है। नॉर्वे के क़ानूनों के अनुसार ये भारतीय दंपति बच्चों के पालन में सक्षम नहीं थे अतः बच्चों को किन्हीं दूसरे घरों में भेज दिया गया। यह अक्षमता थी - बच्चों को हाथ से खाना खिलाना, साथ सुलाना आदि। ऐसा केवल यही मामला नहीं है बल्कि नॉर्वे हर वर्ष बड़ी मात्र में बच्चों को मटा पिता से अलग करता आया है इन्हीं क़ानूनों के आधार पर। कोई राजा महाराजा सनकी हो सकता है पर एक कल्याणकारी राज्य की पूरी मशीनरी यदि सनकी हो जाए तो चिंता होती है। कानून बेशक सनक में नहीं बनाए जाते और अगर नॉर्वे में ऐसी कानून हैं तो इनकी ठोस वजह भी होनी चाहिए। और यही तथ्य मुझे चिंता में डाल देता है। कानून ईश्वर नहीं बनाता बल्कि क़ानूनों के पीछे समाज होता है। अगर नॉर्वे बड़ी मात्र में बच्चों को फॉस्टर होम्स में भेजता है तो यह तथ्य यही बताता है की नॉर्वे के समाज में बड़ी गड़बड़ है। समाज विज्ञान की भाषा में कहें तो वहाँ समाज डिसफंकशनल हो चुका है। यदि समाज अपने बच्चों को सुरक्षा नहीं दे सकता और समाज में यदि बच्चों को अपने ही माँ बाप से असुरक्षा हो तो केवल कानून नहीं बल्कि बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। भारतीय बच्चे तो खैर हमें वापस मिल ही जाएंगे पर स्वयं नॉर्वे यदि अपने विकृत समाज को सही करने की दिशा में कदम नहीं उठाएगा तो यह मानवता के लिए खतरा बन जाएगा। इस घटना से सीख मिलती है खास तौर पर उन लोगों के लिए जो पश्चिम की हर चीज़ को बेहतर मानते हैं और भारत के लिए कहा करते हैं "यहाँ का तो सिस्टम ही है खराब" । शायद नॉर्वे का सिस्टम उन्हें भी रास नहीं आएगा। 

12 फ़र॰ 2012

व्हिट्नी ह्यूस्टन नहीं रहीं

एक महान कलाकार की असमय मौत ------एक बार फिर। व्हिट्नी ह्यूस्टन अश्वेत अमेरिकी गायिका थीं जिन्हें दुनियाँ ने उनके अतिशय सफल एल्बम "बॉडीगार्ड" (ढिंका चिका वाला नहीं - उसे में Bawdy guard कहना पसंद करूंगा) और उनके ज़बरदस्त गाने "आई विल ऑल्वेज़ लव यू"  से पहचाना था। हालांकि उनका गाना "वन मोमेंट इन टाइम " 80 के दशक में भारत में भी लोकप्रिय रहा है। वे  सी सी ह्यूस्टन की बेटी थीं। उनकी कहानी भी अन्य अमेरिकी सुपर स्टारों की तरह धूमकेतु सी रही। वे आयीं, वे चमकीं और खो गईं। अमेरिका में यह अब रिवाज सा बन गया है की सुपर स्टार आखिर कार मुकद्दमेबाजी, अवसाद, नशा, और अंततः मौत का शिकार बनते हैं फिर चाहे वह मारलीन मोनरो हों या माइकेल जैक्सन, ब्रिटनी स्पीयर्स हों या फिर व्हिट्नी ह्यूस्टन सभी की कहानी एक जैसी। सेलिब्रिटीज के लिए अमेरिका सुरक्षित जगह नहीं है

प्रस्तुत है उनके कुछ गाने

8 फ़र॰ 2012

उदार हृदय और खुला दिमाग

File:Oprah Winfrey (2004).jpgओप्रा विनफ्रे हाल ही में भारत प्रवास पर थीं। वे दिल्ली आगरा, जयपुर, मथुरा और मुंबई भी गईं और हर जगह लोगों ने उन्हें खुले दिल और उदार हृदय से स्वीकारा। जयपुर में जो सम्मान उन्हें मिला उससे अभिभूत होकर उन्होंने अपनी दादी की इच्छा का ज़िक्र किया की उनकी दादी चाहतीं थीं की वे एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में बड़ी हों। बेशक उन्हें अपने टीवी प्रोग्रामों से ना केवल अमेरिका बल्कि पूरे विश्व में भरपूर प्यार और प्रशंसा मिली है। वे खास हैं। वे नारी शक्ति की प्रतिनिधि हैं और उनके कार्यक्रमों  का सकारात्मक स्वरूप प्रेरणादायी है। वे यहाँ भारतीय विधवाओं के दशा पर अपने कार्यक्रम के लिए फिल्म बनाने आयीं थी और मथुरा में वे उन्हीं विधवाओं से मिलने गईं थीं। यह अच्छी बात है की लोग इन विधवाओं की दुर्दशा पर सोचें लेकिन दुख तब होता है जब यह सोच तभी निकलती है जब किसी को अपनी फिल्म बनानी है या किताब लिखनी है। इससे आगे की लड़ाई कौन लड़ेगा? और तभी यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्में तो बनती ही रहेंगी फिलहाल तो इन विधवाओं की आवास और भोजन, कपड़े की लड़ाई तो पारंपरिक मंदिर, ट्रस्ट आदि ही कर रहे हैं और बेशक शोषण भी (सभी नहीं)। फिल्म बना कर किताब लिख कर आप स्थिति तो उजागर कर देते हैं लेकिन इससे आगे कि लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं आता। क्यूँ नहीं आज फिर कोई ज्योतिबा फुले पैदा होता? क्या होता अगर गांधी जी देश की दुर्दशा पर केवल किताबें लिखते रह जाते और ज्योतिबा फुले भाषण ही देते रहते? भारत का विरोधाभास सभी विदेशियों को चकित करता है। लेकिन यही सच्चाई है। यह विरोधाभास उपजता ही तब है जब हम विकास का मतलब ऊंची इमारतों, चौड़ी सड़कों और चमकती गाड़ियों से लगते हैं। पर जब इन्हीं इमारतों को बनाने वाले मजदूर, किसी महाशहर के बाहर अमानवीय परिस्थितियों में अवैध बस्तियों में अपने दिन काटने लगते हैं तो हमें विरोधाभास दिखाई देता है और तब कोई उन्हें झुग्गियों का कुत्ता(स्लम डॉग ) कह कर उपहास उड़ाते हुये तमाम पुरस्कार बटोर लेता है क्यूंकी  उन देशों के दर्शकों के लिए यह स्लम डॉग अजूबा है। ओप्रा को भी जयपुर में बैलगाड़ी पर सरिये ढोते, गधे पर बैठा आदमी और मोटरसाइकिल पर बैठा मोबाइल पर बतियाते आदमी में भारतीय विरोधाभास के दर्शन हुये। पता नहीं यह तीन  घटनाएँ  भगवान बुद्ध की भांति उनके जीवन पर क्या प्रभाव डालेंगी। यह विरोधाभास उन्हें ,उ,बाई में भी दिखा जब वे बच्चन के यहाँ गईं और आश्चर्य किया कि अभिषेक अभी भी अपने पिता के यहाँ क्यूँ रहते हैं। बेशक भारत यात्रा एक सामान्य पर्यटक के लिए एक ना भूलने वाला अनुभव होता है लेकिन ओप्राः से यह आशा नहीं थी कि वे सांस्कृतिक भिन्नता को अपने चश्मे से देखेंगीं। हमारे लिए बच्चों को अपने घरों में रखना एक सामान्य बात है अमेरिका में नहीं। अभी हाल ही में नॉर्वे का मामला चर्चित था जिसमें डॉ छोटे बच्चों के  लालन पालन में अक्षम ठहरा कर उनके माता पिता से छीन कर दत्तक परिवार में रख दिया गया। बेशक ऐसे कानून वहाँ आवश्यक हैं। क्यूंकी न समाज और न ही परिवार पालन पोषण के कठिन कार्य में सहयोगी नहीं होता लेकिन यहाँ भारत में न केवल नवमातृत्व के लिए सुरक्षित वातावरण और दादी, नानी, माँ, सासू माँ का अनुभव और सहता सदैव उपलब्ध रहती है। निश्चित ही हम बड़े शहरों में एकल परिवारों, और पूर्णतः कटे पड़ोस और बढ़ते अपराधों से जूझ रहे है। ओप्रा को अमेरिकी समाज के विरोधाभासों पर सोचना चाहिए और भूमंडलीकरण  के इस दौर में जहां लोगों का आना जाना बढ़ रहा है सांस्कृतिक विभिन्नताओं को विरोधाभास समझने से बचना चाहिए। यह विरोधाभास ही हैं जो आज अमेरिकी कंपनियों को भारत की ऊर मोड रहे हैं। निश्चित ही किसी अमेरिकी कंपनी को अपनी बहू मंजिली इमारत बनाने के लिए सस्ते मजदूर, कम लागत का ऐसा ट्रांसपोर्ट और कम पैसों में कैसा भी काम करने वाले योग्य कर्मचारी अमेरिका में तो मिलेंगे नहीं। हालांकि हमें भारत के इन विरोधाभासों से कोई लगाव नहीं है लेकिन ओप्रा जैसी हस्ती से फिर वही सस्ती टिप्पणियाँ सुनना  भी कोई कम विरोधाभासी नहीं हैं - आप खुले दिमाग और उदार हृदय से आयें हैं तो फिर विरोधाभास क्यूँ कहते हैं? ओप्रा आपसे विचारों कि अधिक गहराई कि अपेक्षा थी। रही बात स्टैंडिंग ओवशन  कि तो यह हम भारतीयों कि आदत है - बिछ जाने कि  बस वह आदमी अमेरिकन होना चाहिए। ओप्रा को इसमें भी विरोधाभास दिखना चाहिए था। 

1 फ़र॰ 2012

आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें

अल्लामा इकबाल कि यह नज़्म रबबनी बंधुओं ने फिर गायी है। इकबाल का एक देश प्रेमी से एक विभाजनकारी में बदलाव एक ऐसा प्रश्न है जिसे आज हर एक इतिहासकार को खोजना चाहिए। क्यूंकी इसके उत्तर में ही हमें वे विष बीज मिल पाएंगे जो आज दोनों मुल्कों में फल फूल रहे हैं। बेशक आज का पाकिस्तान न तो जिन्नाह और ना ही इकबाल का पाकिस्तान है। और ना ही आज का भारत अब गांधी और भगत सिंह का भारत है।
इस गाने से परिचय के लिए मैं रेडियो वाणी का आभारी हूँ।

रवीश के मिसरे पर अपनी गज़ल

मीनार पर चढ़ कर बांग देते है, एंकर हैं हर मुद्दे को धांग देते हैं

सदन के गलियारों से लालाओं के दालानों तक, हम एंकर हर काम को अंजाम देते हैं।

कभी फेंक देते हैं तो कभी टांग देते हैं, एंकर हर शख़्स को ऐसा ही मक़ाम देते हैं।

तबीयत अपनी घबराती है सुनसान रातों में, जब एंकर चीख चीख कर बांग देते हैं।

पत्रकारिता अब भी एक मिशन है यारो,  पर ये मोटे कॉर्पोरेट मुर्गे मोटा ईनाम देते हैं।

कहे रवीश मर गया है रिपोर्टर, अब तो एंकर ही हर काम को लाम  देते हैं।

टीआरपी, विज्ञापन और आकाओं को बचाना है इसलिए एंकर आम आदमी के मुदद्दों को  थाम लेते हैं

एक नाटक का सुखांत

कितना अभूतपूर्व था भारतीय लेखकों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए खड़े हो जाना। कितना सुंदर था यह प्रयास सरकार का की हम धर्मनिरपेक्ष देश में सबकी सुनेंगे उनकी भी जो धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। नहीं सुनेंगे तो बस उन धर्म निरपेक्ष आवाज़ों को जो आतीं हैं यूपी के बुनकरों के घरों से या बुंदेलखंड के किसानों की झोपड़ियों से। वे imageनहीं सुनेंगे विदर्भ के उन मरते किसानों की आहें। वे नहीं सुनेंगे गर्भ मेनमरती बच्चियों की चीखें। नहीं वे नहीं सुनेंगे आवाज़ें जो मँगतीं हैं हक। जो मँगतीं हैं शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ्य। वे सुन नहीं सकेंगे 170 मिलियन स्लमडॉग्स (हमें गर्व है कि हमें गाली दे कर बनाई गयी फिल्म से ही ऑस्कर देवता ने कृपा की)  की व्यथा जो मजबूर हैं अमानवीय परिस्थितियों में रहने को। दरअसल वे जिनका होने का दावा करते हैं सबसे दूर वे उनसे ही हैं।

सलमान रुशदी की लेखकीय क्षमता पर तो खैर विशेषज्ञों को ही अधिकार है बोलने का लेकिन मिडनाइट्स चिल्ड्रेन और सेटेनिक वर्सेज़ पड़ने के बाद लगा कि खुमैनी के फतवे ने उन्हें अपने आकार से ज्यादा जगह दे दी है जिसे भरने का प्रयास वे अपनी बदन दिखाऊ पेज 3 पत्नियों के जरिये करने की कोशिश करते हैं। बेशक पत्नियाँ बुढ़ातीं हैं और इस काम के लिए नयी आपूर्ति तलाक के जरिये हो जाती है। हॉलीवुड के बहुतेरे कब्रोन्मुखी सेलिब्रिटीज को देखा है मेंने। हर 3 साल में पत्नियाँ बदल बदल कर ही खबरों में रहते हैं। शादी करते हैं तो खबर, तलाक लेते हैं तो खबर। तलाक का सेटेलमेंट ही करोड़ों में होता है। तो ऐसे महान लेखक का यहाँ आना हमारे साहित्य जगत के लिए बड़ी बात थी।

उनके आने से पता नहीं कितने नव लेखकों को प्रेरणा मिलती और साहित्य का कैसा भला होता लेकिन उनके आने और ना आने के दुविधापूर्ण नाटक से निश्चय ही अनेक लोगों को "उल्लू सीध करना" नामक मुहावरे की बहुत ही साहित्यिक और यथार्थपूर्ण व्याख्या देखने को मिली। जयपुर साहित्यिक सम्मेलन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि रही। एक अङ्ग्रेज़ी रंजित सम्मेलन द्वारा हिन्दी मुहावरे की ऐसी साहित्यिक व्याख्या!  आखिर भारत धर्मनिरपेक्ष के साथ ही भाषा निरपेक्ष भी है। इस नाटक के पटाक्षेप के साथ ही कई संतुष्ट पक्ष दिखे। कांग्रेस(सो) [घबराइए नहीं सोनियाँ गांधी की कांग्रेस को उनकी पारिवारिक परंपरा के हिसाब से नाम दिया है] , बरखा दत्त, साहित्य सम्मेलन, कट्टरपंथी मुस्लिम, कट्टरपंथी हिन्दू, न्यूज़ चैनल्स आदि।

सरकार ने यह दिखाया कि वह संविधान, कानून और व्यक्तियों की सुरक्षा को लेकर कितनी संवेदनशील है। उसकी खुफिया संस्थाएं देश पर हुये भयानक आतंकी हमलों को न तो रोक पातीं हैं और न ही उनका सुराग लगा पातीं हैं लेकिन सलमान रुशदी कि सुरक्षा पर बड़ी तत्परता से ये सरकार को पहले से आगाह कर देतीं है और जो सरकार खुफिया सूचनाओं को दबा कर बैठने की आदि हो चुकी है वह सलमान रुशदी कि रक्षा के लिए चिंतित दिखाई देती है।

कांग्रेस पार्टी के लिए सुनहेरा अवसर था। यूपी के चुनाव,  राहुल की युवा(?) राजनीति और मुस्लिम वोटों को ध्रुविकृत करने का एक और अवसर। मुसलमानों को संसाधनों पर पहला हक होने का दावा करने वाली यह पार्टी पिछले 100 सालों से मुसलमानों का एक मात्र प्रतिनिधि होने का दावा करती रही है और तुष्टीकरण कि राजनीति कि जन्मदात्री रही है।

किताब भारत में प्रतिबंधित है और तब से एक नयी पीढ़ी जवान हो चुकी है और दूसरी हो रही है। इस पीढ़ी ने शायद इस किताब का नाम भी नहीं सुना होगा। यह दारुल उलूम कि ही कृपा है कि सेटेनिक वर्सेस को अब यह पीढ़ी भी जानती है। साहित्य की ऐसी ही सेवा की एक शैक्षणिक संस्था से उम्मीद थी।

सबसे अधिक फायदा जयपुर सम्मेलन को हुआ। निरंतर यह खबरों में छाया रहा। राष्ट्रिय मीडिया में, प्राइम टाइम में इतना बड़ा प्रचार अगर देते तो कितना खर्चा आता, जिज्ञासु जन यह बात मायावती जी से पूछ सकते है। उन्होने लगभग 6 महीनों से रोज़ सभी समाचार चैनलों को एक साथ 10 से 20 मिनट लंबे प्रचार दिये हैं। इसके अलावा निरंतर प्रिंट मीडिया, इन्टरनेट, मोबाइल पर फेस्टिवल मनाया गया। साहित्य का तो पता नहीं पर हाँ बजारवाद, मार्केटिंग, डिजायनिंग, मीडिया मैनेजमेंट जैसी चीजों का फायदा जरूर हो गया। और दिग्गी पैलेस को भला कौन नहीं जानता? संजोय रॉय कि भीगी आँखें तो सालों तक याद राहेंगीं। भला अभिव्यक्ति कि आज़ादी के लिए  खून तो छोड़िए लोग आजकल स्याही भी नहीं बहाते ऐसे में ये आँसू जरूर याद रहेंगे। 

एक और हैं बरखा दत्त। पहले रिपोर्टर थीं फिर कारगिल की बहादुरी भरी रिपोर्टिंग करके चर्चा में रहीं, तेज तर्रार और झन्नाटेदार अङ्ग्रेज़ी वाली यह रिपोर्टर मीडिया के पयदानों पर चढ़ती गई और फिर जो हाल ज्यादा चढ़ने पर सभी का होता है [ गुरुत्वाकर्षण] वे गिरीं भी। उनका उत्थान और पतन नवमीडिया या बाजारू मीडिया की एक केस स्टडी है। बरखा दत्त कि विश्वसनीयता को जो झटका लगा था उससे उबरने का यह एक सुनहरा मौका था। बंद कमरे में सलमान रुशदी से वीडियो लिंक पर  साक्षात्कार का उत्साह उनके निरंतर ट्वीट्स से झलक रहा था। उनकी वाही वाही हुयी।

सलमान रुशदी यहाँ लगा कि कठपुतली हैं। वे कभी भी ठीक से नहीं बता पाये कि वे भारत आ रहे हैं या नहीं। पहले उन्होने कहा मैं आऊँगा, फिर सरकार कि सुरक्षा संबंधी सूचना दी और कहा कि नहीं आऊँगा। फिर सरकार को, जयपुर पुलिस को झूठा बताया। फिर वीडियो लिंक कि बात कि और फिर हिंसा की बात कह कर उससे भी किनारा कर लिया और फिर बरखा दत्त के साथ बंद कमरे में दहाड़े कि "मैं भारत आ रहा हूँ - निपटो इससे"। एनडीटीवी ने इस प्रोग्राम को ब्रोडकास्ट किया।

इसके साथ ही एनडीटीवी की टीआरपी बढ़ी, प्रतियोगी इस फुटेज को चलाने को बाध्य हुये और बरखा फिर कार्गिल जैसी बहादुर हुईं। उन्होंने अभिव्यक्ति नामक चिड़िया को आज़ाद ही कर दिया। सलमान रश्दी की किताबों की बिक्री बढ़ी, दारुल उलूम खबरों में आया, कांग्रेस ने भरोसा दिलाया कि मुसलमानों के खैरख्वाह वही है। कट्टरपंथी खुश हुये कि हमने सलमान रुशदी को जयपुर फेस्टिवल में किसी तरह नहीं बोलने दिया। और हमने राहत कि सांस ली कि चलो कुछ और देखने को मिलेगा।

इस सब के बीच बेचारी ओप्रा विनफ्रे को फायदा नहीं मिल पाया हालांकि उनके बॉडीगार्डों ने मथुरा में हाथापाई करके कुछ फुटेज हथियाने कि कोशिश तो की थी। चलिये ओप्रा अगली बार सही।

यद्यपि मेरा मानना है कि सलमान रुशदी को आने देना चाहिए। बोलने देना चाहिए। लोगों को उनकी भी किताबें पदनी चाहिए, मुसलमानों को भी। एक किताब आपकी आस्था को क्या हिला सकती है? हाँ अगर आप ऐसा करना बंद कर देंगे तो आस्था ही बंद हो जाएगी जैसे प्राचीन धर्म अब नहीं हैं क्यूंकी वे समय के अनुसार नहीं बदले।

अनुपम दीक्षित