19 मार्च 2012

डर्टी पिक्चर : एक दुखद कहानी का उत्सव

कहानी है विजय लक्ष्मी की। जिसकी शादी अल्पायु में ही हो गयी। पति और परिवार के निरंतर जुल्मों और महत्वाकांक्षा ने विजयलक्ष्मी को एक साहसी कदम उठाने को मजबूर कर दिया। वह घर से भाग गयी और पहुँच गयी मद्रास। फिर शुरू हुआ उसके दैहिक, आर्थिक और मानसिकशोषण  का वह सिलसिला जो उसकी मौत या ह्त्या के बाद भी आजतक जारी है। विजयलक्ष्मी से सिल्कस्मिता बनी एक सामान्य औरत के निरंतर शारीरिक, मानसिक और व्यावसायिक शोषण की दुखद लेकिन सत्यकथाको  इस प्रकार प्रस्तुत करना जैसे यह एक महान औरतवादी स्त्री की महान कहानी हो, एक विकृत प्रयास है। सत्य तो यह है की जिस सिल्क को इस फिल्म इंडस्ट्री ने हमेशा व्यावसायिक, हवस और नीची नज़रों से देखा वही फिल्म इंडस्ट्री आज उसकी महानता के दावे की चाशनी में लपेट कर  असल में सिल्क का नाम भुनाने की ही डर्टी कोशिश कर रही है। सिल्क का शोषण अभी तक रुका नहीं है। यह उसकी मौत के बाद भी इस रूप में जारी है। सिल्क जैसी अनेक हैं जो अलग अलग क्षेत्रों में इसी तरह के शोषण का शिकार होती हैं। चाहे वह सोनागाछी के वेश्यालय हों या बड़े फैशन घराने। सभी में महिलाओं की एक ही कीमत होती है - उनकी सेक्स अपील। उसका व्यक्तित्व, सोच, नाम सब इसी तराजू में तौले जाते हैं। घरों से भागी औरतों की यही कहानी है। उनका अंत आज भी वेश्यालयों में ही होता है, फिर चाहे वह जी बी रोड का रेड लाइट क्षेत्र हो या फिल्म नगरी। धंधे का अंदाज़ अलग होता है लेकिन ग्राहक की दृष्टि वही होती है। वे पैसा बनाने की मशीन होती हैं। जो लोग सिल्क की कहानी में औरत की आज़ादी की महानता खोज रहे हैं और सिल्क के विषादमय जीवन को विजय और संघर्ष की महान गाथा बना देने पर तुले हैं उन्हें शायद  अंदाज़ा नहीं है कि भारत ही नहीं विश्व की कई देशों की स्त्रियॉं के लिए ऐसे संघर्ष महानता का नहीं मजबूरी का नाम हैं। सेक्सुअलिटी  का सहारा ले कर चढ़ने वाली स्त्री अंततः शोषण का ही शिकार होती है। मीडिया, मार्केटिंग और बाज़ार ऐसी सभी कहानियों को ऐसे ही प्रस्तुत करता है। इन औरतों को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे बेबाक, बिंदास और आज़ाद हैं, वे अपनी शर्तों पर जीना चाहतीं हैं और देह उनके लिए  आगे बढ्ने का वायस है। लेकिन इस सुनहरे वर्क के भीतर आपको मिलती है एक विषादमय दुनियाँ, अकेलापन और वेदना। अगर आइटम बनना ही अपनी शर्तों पर जीना है तो सबसे अधिक आजाद एक वेश्या ही है। ऐसी औरतें चाहे वह  मर्लिन मोनरो हो या सिल्क स्मिता दोनों को ही सामाजिक और व्यावसायिक शोषण के साये में ही ज़िंदगी जीनी पड़ती है और उसे तथाकथित सफलता भी तभी मिलती है जब वह किसी पुरुष का सहारा खोजती है। एक आध्यन के मुताबिक आज अमेरिका में लगभग 11 % परिवार गरीबी की रेखा से नीचे हैं। इनमें भी 28 % परिवारों की मुखिया स्त्री है जो या तो तलाकशुदा हैं या फिर अविवाहित माताएँ । यह दोनों ही वर्ग पुरुषों पर निर्भर थे और शुरुआती वर्षों में इसी निर्भरता ने उन्हें शिक्षा या हुनर सीखने से वंचित किया और आज जब वे परित्यक्त है तो गरीबी में जी रहे हैं। इस स्थिती में भी उनका सामाजिक, दैहिक, आर्थिक शोषण जारी रहता है। फैशन मॉडल्स का अधनगा कैटवाक हो , चीयर लीडर्स हों, फिल्मों में आइटम गर्ल्स हों सभी आखिर तो पुरुष की सेक्स भूख को ही शांत करने का काम करतीं हैं। आखिर कितनी महिलाएं किंगफिशर का कलेंडर खरीदतीं होंगी?  सिल्क स्मिता की कहानी एक दुखद सच्चाई है और शोषण की उस व्यवस्था प्रश्नचिन्ह लगाने की बजाय उसे महिमामंडित करने की व्यावसायिक कोशिश है यह फिल्म।काश यह फिल्म उसकी उफनती जवानी के जलवों की बजाय सिल्क स्मिता की होती ।  बेशक विद्या बालन की अदाएं लुभावनी हैं और शायद इतनी की राष्ट्रीय पुरस्कार ज्यूरी भी अपने को रोक ना पायी। फूल्स पैराडाइज़ में आपका स्वागत है। 

6 मार्च 2012

मेरा काम तो चलेगा - राहुल गांधी

राहुल गांधी आखिर अपनी माँद से नहर निकले की कहीं कोई उन्हें सिंह की बजाय सियार न मान ले यूपी की हार के बाद। वे अपने उत्तर सोच कर आए थे। मुलायम सिंह यादव जी और अखिलेश को लोकतन्त्र की मजबूरी मान कर बधाई दी (उनके शब्द थे मुलायम जी और अखिलेश को बधाई क्यूंकी डेमोक्रेसी है तो उन्हें बधाई)। मैंने उप की जनता से वादा किया था की मैं उनको गावों में खेतों में गरीबों के साथ सड़कों पर दिखाई दूँगा और मेरा काम तो चलेगा।
सही कहा राहुल भैया हमें भी यही लगता है की आपका काम तो चलेगा ही। यू पी , बिहार और अब फिर यू पी में असफल प्रदर्शन के बाद भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तो आपकी पक्की है। 

5 मार्च 2012

 कपिल देव पूछ रहे हैं सचिन क्यूँ खेल रहे वन डे। अरे भाई भूल गए आप। अरे भाई कई मसले हैं। एक तो खैर आप सही समझे । रिकॉर्ड बनाना है। भूल गए आप अपना ज़माना जब चयनकर्ताओं पर आरोप लगते थे की आपके रिकोर्डों की खातिर ही आप को टीम में बनाए रखा है वरना आपको तो बहुत पहले सन्यास ले लेना चाहिए था। और यह भी की आप के कारण श्रीनाथ को स्पेस नहीं मिलता। हम उस जमाने में क्रिकेट और आपके फैन होते थे । तब मीडिया इतना खूंख़ार नहीं था। सचिन के लिए तो अभी सन्यास लेने का दिन नहीं आया है। भारत की परंपरा के लिए ही वे खेल रहे हैं। भला ऐसा कौन सा महान खिलाड़ी हुआ है भारत में आज तक जिसे बेआबरू कर के कूचे से न निकाला गया हो। रवि शास्त्री, गावस्कर, वेंगी, कपिल, श्रीनाथ, गांगुली, द्रविड़ आदि। सभी को झाड़ू से ही बुहारा गया है। कोई औस्ट्रेलिया तो है नहीं जहां ब्रेडमेन के खिताब को बचाने के लिए खिलाड़ी अपना एक रन कम ले। या फिर किसी खिलाड़ी के सम्मान में पूरा स्टेडियम खड़ा हो जाए और टीम उसे गोद में उठा ले। नहीं हम तो ठहरे कबड्डी वाले। टांग खींचे बिना चैन नहीं। एक मैच हारे तो जूते दूसरा जीते तो फूल। तो भैया कपिल दा आप तो रहने ही दो । अच्छा नहीं लगता। रही बात सचिन की तो जब उनकी तंग बुरी तरह खींच दी जाएंगी वे तब ही सन्यास लेंगे। (खबर दैनिक हिंदुस्तान से साभार)

होली पर पाया नया रंग

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इस होली पर नया रंग खोजा मैंने - चुनाव का रंग

18 वर्षों में पहली बार वोट डाला। बचपन में गाँव में बड़ा ज़बरदस्त उत्साह देखा था। परचियाँ, बिल्ले, भोंपू, टेम्पो, पोस्टर, बल्लियाँ गाने बाजे, किसी उत्सव का सा माहौल। सबसे बड़ा त्योहार। बाद में वारदातें, बूथ कैप्चरिंग, हत्या, धमकी और डर। बड़े हुये तो चुनावों से दूर रहने की आम सहमति के साथ। 18 वर्ष के होने से पहले ही वोटिंग की आयु 18 कर दी गयी थी लेकिन फिर भी नहीं निकले। 80 के दशक में टीवी पर पूरे दिन फिल्में आतीं थी। स्कूल में भी नागरिकशास्त्र बस यूं ही था। और फिर स्नातक में भौतिकी, रसायन और जीव विज्ञान तो जैसे समाज से कोसों दूर ही थे। बाद में जब विश्वविध्यालय में राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशस्त्र से परिचय हुया तो लगा की यह विषय आस पास के बारे में अधिक बताते हैं। संविधान पढ़ा, आर्थिक नीतियाँ पढ़ीं और समाज के गठन के बारे में पढ़ा तो लगा की यह जीवंत विज्ञान हैं। मन में नागरिक प्रक्रिया में शामिल होने का जज़्बा तो था पर आदत आलस की पड़ चुकी थी। हम नेहरू युग के बाद जन्मे थे सो करिश्मा के प्रभाव में नहीं थे। इन्दिरा युग का अवसान भी हो चुका था और राजनीति अपनी सबसे दायनीय अवस्था में पहुँच चुकी थी। यह युग मण्डल, कमंडल का था और प्रगतिशील युवा होने के नाते हम इन मुद्दों हमारी राय का प्रतिनिधित्व कोई राजनैतिक पार्टी नहीं करती थी। तो हमें अपना वोट डालना व्यर्थ लगा। आखिर किसे चुनें। ना हम जातिवाद के समर्थक थे, ना आरक्षण के, ना ही सांप्रदायिकता के। 90 के दशक के आरंभ से राजनीति में जो नंगा नाच चला तो हमने इस लोकतन्त्र से ही किनारा करना ठीक समझा। देशकी आर्थिक हालात बिगड़ रही थी और नेता अपनी नीच राजनीति में मशगूल थे। देश का सोना एक ऐसे प्रधानमंत्री और उसकी सरकार ने गिरवी रखा जिसे जनता का आदेश प्राप्त नहीं था। ठीक इसी समय देश की नीतियों में आमूल चूल परिवर्तन हुय और नेता, बाबू, लाला गठजोड़ ने नयी ऊँचाइयाँ और नए रास्ते पाये। देश में नए करोड़पति हुये और "ऋणम कृत्वा घृतम पिबेत" का अद्भुत दर्शन आरंभ हुया। जाति, धर्म और अपराध ही राजनीति के स्तम्भ बन गए। शेषन ने जब जनता को चुनाव आयोग से परिचित करवाया और चुनाव धीरे धीरे कम हिंसात्मक होने लगे तो हमने यह भी देखा की किस तरह चुनाव आयुक्त के पर कतरे गए और कैसे यह सुनिश्चित किया गया की आयुक्त मनपसंद ही हो। इसी समय युवाओं की आकांक्षाओं ने भी नए आयाम खोजे और चल पड़े उदारीकरण के रास्ते दूर देशों को "यहाँ का सिस्टम ही है खराब" कह कर। जी नहीं गए वे भी वोट और राजनीति से तो दूर ही हो गए। लोकतन्त्र में भला  भरोसा किसे रहा? कहाँ है लोकतन्त्र, कहाँ हैं मौलिक अधिकार? बस एक ही बात अच्छी है लोकतन्त्र के बारे में की कम से कम आप इसकी बुराई तो कर ही सकते हैं लेकिन आगरा आप व्यक्तिगत से समष्टिगत होते हैं इस बुराई में तो आप अपने अतीत को जरूर टटोल लें और कीचड़ से होली खेलने को तैयार रहें। वरना आप को रामदेवा और  अन्ना जैसा हश्र भी झेलना होगा।  देश में पैसा बढ़ा और साथ ही घोटालों का ग्राफ भी। राष्ट्रमण्डल खेलों में जैसा खुला खेल हुआ और फिर जिस तरह 2G घोटाले ने बाबू - नेता - पत्रकार- लाला के गठजोड़ का पर्दाफाश किया तो विश्वास हो गया की यही हैं लोकतन्त्र के चार स्तंभ। किसी दिन न्यायपालिका की भी कलई खुलेगी संकेत तो मिल ही रहे हैं। इसी समय आया अन्ना का आंदोलन और लगा की देश जाग गया है। पर यह भी इस देश की भीषण जनता को बस झकझोर ही पाया। राजनीति का बाहरी भरकम रथ इसे भी रोंद गया। चुनाव शुरू होते ही भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रहा। मुद्दा है तो 40 साल के युवा राहुल की बातें, उनकी रातें। वे युवा हैं लेकिन राजनीति वे बुढ़ाती हुयी करते हैं। वही फार्मूला - जाति, धर्म और आरक्षण। तो सोचा किसे वोट दिया जाए। ना कोई पार्टी न ही प्रत्याशी इस लायक लगा जिसे वोट दिया जाए। फिर तय किया की नियम 49 - ओ का प्रयोग करूंगा। बूथ पर गाया, वॉटर पर्ची दी, स्याही लगवाई और पीठासीन अधिकारी से आग्रह किया वह तय प्रकीरिया के अंतर्गत दर्ज करे की में मत नहीं दे रहा हूँ। अफसोस की 49-ओ का फार्म वहाँ उपलब्ध नहीं था। अतः मैंने निश्चय किया की जब देश में अंधा युग हो और कानून भी अंधा हो तो वोट भी अंधा ही होगा अतः आँखें बंद किन और बिटिया से कहा की वह अक्कड़ - बक्कड़ बम्बे बो कहे और जैसे ही उसने कहा चोर निकल के भागा मेंने बटन दबा दिया। पता नहीं कौन सा बटन था और किसको मिला पर जब चौपट राजा हो तो ऐसे ही चौपट तरीके से वोट देना सबसे अच्छा है। खैर इस बार यह नया रंग अच्छा लग रहा है। होली मुबारक !