7 दिस॰ 2018

अंबेडकर भारत नहीं पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य थे

जब कांग्रेस से संविधान सभा के लिए अंबेडकर न चुने जा सके तब अविभाजित बंगाल में दलित-मुस्लिम एकता के आर्किटेक्ट जोगेंद्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से संविधान सभा में पहुंचाया.

यह जानना आपको दिलचस्प लगेगा कि जिस आंबेडकर को आज हम जानते हैं वह मुस्लिम लीग की देन हैं ।

लीग ने ही अंबेडकर के समाप्त होते राजनीतिक कैरियर को पुनर्स्थापित किया

मंडल कांग्रेस को सांम्प्रदायिक मानते थे और जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष विचारों को पसंद करते थे इसलिए मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

वो मानते थे कि सांप्रदायिक कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी. वो जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के बड़े प्रशंसक थे और अनुसूचित जातियों के सरपरस्त के रूप में उन्हें गांधी और नेहरू की तुलना में कहीं ऊपर आंकते थे।

इसलिए मंडल भारत से पलायन कर न केवल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने बल्कि वो इसके जनकों में से एक थे.वो पाकिस्तान की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे वाले हिंदू थे और मुस्लिम बहुल वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के अकेले पैरोकार.

हालांकि, जिन्ना की मौत के बाद उनके सपने कुचले गए. तत्कालीन पाकिस्तान ने उन्हें गलत साबित कर दिया।

अंबेडकर ने राजनीतिक फायदे के लिए और कांग्रेस की राजनीति को नाकाम करने के लिए मंडल की सहायता से अवसर का फायदा उठाया और बंगाल के चार जिलों से वोट ले कर वे संविधान सभा के लिए चुन लिए गये।

लेकिन एक खास परिस्थिति के चलते फिर उनके प्रयास को धक्का पहुंचा। विभाजन की योजना के तहत इस पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाए और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए. जिन चार ज़िलों- जस्सोर, खुलना, बोरीसाल और फरीदपुर- से गांधी और कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए वहां हिंदुओं की आबादी 71% थी. मतलब, इन सभी चार ज़िलों को भारत में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने शायद आंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया.

इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.

पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे.

जब यह स्पष्ट हो गया कि आंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.

बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम. आर. जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया था जिनकी जगह को जी. वी. मावलंकर ने भरा. मंसूबा था कि उन्हें (मावलंकर को) तब संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे।

(यह लेख  बी बीबीसी हिंदी से लिया गया है )

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