27 अप्रैल 2019

भगत सिंह भी परेशान थे गोदी मिडिया से

सा लगता है कि २०१४ के बाद भारत में न्यूज़ चैनलों के पास सिवाय मोदी के भजन गाने के और कोई मुद्दा , खबर या स्टोरी नहीं है . लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है की यह मिडिया कलियुग २०१४ के बाद आया है और उससे पहले मिडिया का सतयुग था . रविश कुमार और सहयोगियों को यही लगता है  लेकिन रवीश भी असल में गोदी मिडिया ही हैं बस अंतर इतना है की गोदी मोदी विरोधी की है . उनके उठाये गए मुद्दे वाजिब हैं लेकिन उनका लहजा पत्रकार का नहीं "विपक्ष" का अधिक है . मिडिया आजकल ही बिकाऊ हो गयी है ऐसा नहीं है . यह तो अपने जन्म से ही बिकाऊ थी . लोकतंत्र से चौथे स्तम्भ के का दर्जा मिलने से इसे एक पवित्र दर्जा मिल भले ही गया लेकिन इसका चरित्र तो गोदी वाला ही था .दरअसल पत्रकारिता व्यवसाय ही ऐसा है की उससे निष्पक्षता की अपेक्षा करना ज्यादती है क्योंकि आखिर तो वह एक व्यवसाय ही है ना ? लेखन कला के आरम्भ से ही , लेखन का प्रोपेगैडा में बखूबी इस्तेमाल होने लगा था . लेखन कला का पहला विस्तृत अभिलेख " हम्मुराबी संहिता " भी दरअसल राजकीय प्रोपेगैंडा का हिस्सा था . इस अभिलेख में ईराक क्षेत्र के राजा ने आज से करीब ५००० साल पहले राज्य के सामान्य कानूनों को लिपिबद्ध करके सार्वजानिक रूप से राजा की प्रशंशा के साथ छपवा दिया था . 

अशोक के अभिलेख तो राजकीय प्रचार अभियान का ज़बरदस्त उदाहरण हैं जिनमें स्वयं अशोक खुद को देवताओं का प्रिय और सुन्दर दिखने वाला घोषित कर देता है (देवानं प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक ) और जनता को तरह तरह से आश्वस्त , शिक्षित और आदेश देता हुआ अशोक को अंततः लगभग अवतार सिद्ध कर देता है .अशोक द्वारा रौंदे गए कलिंग में अशोक की दम्भपूर्ण आवाज़ कलिग के अभिलेखों में  पुचकारने वाली आवाज़ बन जाती है . 

अशोक के बाद कलिंग नरेश खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख में तो खारवेल की प्रशंसा में प्रयुक्त शब्द देखने लायक हैं . इसमें लिख है की खारवेल ने मगध को रौंद दिया और अपने हाथी घोड़ों को गंगा में स्नान करवाया , मगध के राजा को घुटने टेकने पर मजबूर कर उसे राज्य के खेतों को गधों से जुतवाया. तमिल प्रदेश में जीत दर्ज की. खारवेल  प्रशस्ति भी तो गोदी मिडिया ही है. 

आगे फिर आपको समुद्रगुप्त मिलते हैं जिनके युद्ध मत्री ने ही प्रशस्ति लिखने का जिम्मा संभाला था और समुद्रगुप्त की प्रशंसा में एक विशाल अभिलेख प्रयाग में अशोक के ही स्तम्भ पर अंकित करवाया था . हरिशेण अपने स्वामी की प्रशंसा बेहद जोरदार तरीके से करता है - कुछ वैसे ही जैसे अंजना ओम कश्यप (आज तक) और सरदाना (आज तक ) करते हैं . ज़रा गौर फरमाइए - "वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, बाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी… अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी’ । (दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है) वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था. उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है . उसे  ‘परमभागवत’ अर्थात स्वयं ईश्वर - विष्णु कहते थे । ‘विश्व में कौन-सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है’. 


अब इसे उन सभी इंटरव्यू से मिला कर देखिये जो मोदी ने पिछले पांच वर्षों में दिए हैं - आपको कुछ नया नहीं लगेगा .


अब ज़रा यहाँ भी देखिये कि भगत सिंह इस बारे क्या कहते हैं . यह उद्धरण उनके 1928 के लेख से है - 


"यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।" अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?"

तो गोदी हमेशा से थी और रहेगी . रविश भी उतने ही गोदी प्रेमी हैं जितने रोहित सरदाना . न वे क्रन्तिकारी हैं और न ये .