भारतीय फ़िल्मकार न जाने क्यूँ हर बार असफल होते हैं जब वे
कोई अच्छे मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैं। अक्सर व्यावसायिकता के चलते ऐसे हर
मुद्दे को उठाना तो दूर वे उचका भी नहीं पाते। क्वीन भी एक ऐसी ही फिल्म है। सुना
था कि यह हीरोइन आधारित फिल्म है जो कि मुंबई फिल्म जगत में एक रिस्की काम है।
फिल्म एक मध्यवर्गीय लड़की की शादी से शुरू होती है और लड़के द्वारा शादी से एक दिन
पहले मना कर देने जैसे खतरनाक मोड से होती हुयी हनीमून पर अकेले जाने जैसे
अभूतपूर्व निर्णय से गुजरती है और अंततः गुजरिया के सस्तेपन में खो कर साधारण रूप
से खतम हो जाति है। लड़की अपने हनीमून के टिकट को बेकार ना करते हुये पहुँच जाती है
पेरिस। यहाँ उसकी मुलाक़ात भारतीय मानस की एक ऐसी फेंटेसी से होती है जो बड़े अजीब
ढंग से दशकों से जस की तस बनी हुयी है – विदेशी औरत – मतलब शराब पीने और सिगरेट
पीने वाली व एक ऐसी औरत जो समान्यतः या तो तलाक़शुदा होती है या बिन ब्याही माँ और जो
हर समय संगीत की धुन पर मटकती रहती है या सेक्स करती रहती है – इस फिल्म में उसका
नाम विजयलक्ष्मी है। यह चरित्र मुख्यतः पेरिस जैसे हाइपरमेट्रोपॉलिटन शहर में रानी
की सहायता करता है और हर भारतीय फिल्म चरित्र की तरह फिल्मी है। रानी अनेक पबों,
स्ट्रिप क्लबों और ऐसी ही अन्य बदनाम जगहों में घूमती, दारू
पीती और एम्स्टर्डम में के एक हॉस्टल में एक रूसी (शायद रुसियों का नाम एलेक्ज़ेंडर
कि जगह एलेक्सान्द्र होता है), जापानी जिसे और फ्रांसीसी लड़कों के साथ रूम शेयर करती एक
इतावली को चूमती हुयी आखिर आत्मविश्वास पा लेती है और अपने उस मंगेतर से पीछा छुड़ा
लेती है जो अचानक रानी द्वारा निराशा में भेजी चेंजिंगरूम कि एक तस्वीर को देख कर फिर
उससे शादी करने की इच्छा जाहिर करता है। मुझ जैसे कहानी प्रिय व्यक्ति को यह समझने
में थोड़ी दिक्कत हुयी की रानी को इस यात्रा में आखिर कौन से मूल्यों ने उसे आत्मविश्वास
दिया और वह अपने मंगेतर की अंगूठी लौटाने का फैसला करती है। इस फिल्म की एक किरदार रोक्ज़ेट या रुखसार है जो
एक स्ट्रिप क्लब में इसलिए काम करती है कि करने को कोई काम नहीं है, रिसेशन है और जब तक जॉब नहीं है यही है। यह खतरनाक सांस्कृतिक प्रदूषण
है। स्ट्रिप क्लबों में काम करने का यह तर्क निश्चित रूप से खतरनाक है और जिस आयु
वर्ग के लिए है उसे स्ट्रिप क्लबों कि असलियत भी पता नहीं है। यह अमेरिकी संस्कृति
का वह अंग है जिससे खुद अमेरिकी भी परेशान हैं। हाल ही में एक अमेरिकी पिता अपनी बेटी
के द्वारा अपनी कॉलेज फीस के लिए पॉर्न फिल्म में काम करने के निर्णय से परेशान नज़र
आया। वह बेटी भी शायद हॉलीवुड की ऐसी ही फिल्मों के उथले तर्कों से प्रभावित रही होगी।
नारी सशक्तिकरण देह बेच कर नहीं बल्कि देह से मुक्त हो कर संभव है। देह से मुक्ति का
मतलब आत्मनिर्णय का अधिकार है। स्ट्रिप क्लब ऐसी जगह नहीं होते जहां आप सुरक्षित
घूम सकें। रानी स्ट्रिप क्लब में दोस्तों के साथ प्लेटोनिक भावना के साथ घूमती है
जो दरअसल बचकाना है। गूगल पर जाइए और शूटिंग एट स्ट्रिप क्लब्स टाइप करके जान
लीजिये कि ये जगहें अपराध, नशा और वेश्यावृत्ति के वे गहरे
दलदल हैं जहां अमेरिकी सभ्य समाज नहीं जाता। ये जगहें उतनी ही बदनाम हैं जितनी
भारत की सोनगाछी या जी बी रोड बस हालत पैसे के मुताबिक वहाँ चमक दमक ज्यादा है लेकिन
शोषण उतना ही है। बताता चलूँ कि रोकजेन नाम से द पुलिस नामक बैंड का एक गाना है भी
है जो एक ऐसे लड़के कि तरफ से है जो एक वेश्या को प्यार कर बैठता है और वह इसे
ग्लोरीफ़ाई नहीं करता है।
इस फिल्म का मुद्दा एक लड़की का आत्मविश्वास है जिसे पाने का
नुस्खा हमारे फ़िल्मकार आजकल बरास्ता पश्चिम, पब और सेक्स में खोज रहे हैं। ह्यू हैफनर (प्लेबॉय
पत्रिका के मालिक और अमेरिका में अश्लीलता की गंगा बहाने वाले) के दर्शन वाली आज
के “जो दिखता है वही बिकता है” की मार्केटिंग करने वाली, अस्वाभाविक पात्रों वाली हल्की फिल्म में अगर कुछ स्वाभाविक है तो कंगना
का अभिनय। दिल्ली कि एक मध्यमवर्गीय लड़की के किरदार में जो स्वाभाविकता है वह
फिल्म को मनोरंजक बनाए रखती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें