29 जून 2014

कब आएंगे बाल साहित्य के अच्छे दिन ?

आप यह जो किताब देख रहे हैं यह  अन्तरिक्ष यात्री अलेक्सेई लेओनोव द्वारा स्वयं लिखी गयी है जिसे प्रगति प्रकाशन मॉस्को ने सोवियत दिनों में 1978  छापा था और हिन्दी में इसका अनुवाद बुद्धिप्रसाद भट्ट ने किया था।  लेओनोव वे पहले अन्तरिक्षयात्री थे जो अन्तरिक्ष यान से वाह्य अन्तरिक्ष में निकले थे। मुझे यह किताब मेरे चाचा जी श्री प्रदीप दीक्षित ने जन्मदिन के उपहार स्वरूप सन 1982 में दी थी जब में 7 वर्ष का था। एक और किताब थी जवाहरलाल नेहरू कि पिता के पत्र पुत्री के नाम ।  इन दोनों पुस्तकों में एक समानता यह है कि दोनों दो महान लोगों के द्वारा बच्चों के लिए लिखीं गईं। बच्चों से सीधा संवाद। पश्चिम में बहुत से नायकों ने बच्चों के लिए पुस्तकें लिखीं हैं लेकिन  भारत में  ये ना के बराबर हैं। अच्छा बाल साहित्य तो छोड़िए आज हिन्दी में एक भी स्तरीय बाल साहित्य की पत्रिका नहीं है (पराग एक सरहनीय प्रयास था लेकिन वह 90 के दशक के पूर्वार्ध में ही बंद ही गया) हिन्दी लेखक भी बच्चों के लिए लिखने में हिचकते हैं जबकि पश्चिम में अनेक महान लेखकों ने बच्चों के लिए भी लेखन किया है जैसे टोल्स्तोय, चेखोव, हैमिंगवे, अप्टन सिंक्लेयर, जेम्स जॉयस तो मुझे याद आ रहे हैं लेकिन हिन्दी में पंडित नेहरू,  प्रेमचंद को छोड़ कर बहुत नाम नहीं हैं जिन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा है।  शायद उन्हें टाइप्ड हो जाते का खतरा रहा होगा लेकिन यह एक आवश्यक परंपरा होनी चाहिए। आगामी पीढ़ी को अच्छे साहित्य, शब्द सम्पदा और अनोखी कलपनशीलता का लाभ भी मिलना चाहिए। शाश्वत भावनाओं की रचनाएँ महान लेखक ही कर सकते हैं। अब प्रेमचंद की कहानी ईदगाह के आधारमूल्यों की तुलना भला कहाँ है।  भारत में न जाने कितने खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों ने सफलता और साहस की ऐसी मिसालें पेश की हैं जिन्हें हर कोई सुनना, पढ़ना चाहेगा और बच्चे तो विशेष तौर पर। लेकिन ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं जब किसी महापुरुष ने बच्चों के लिए खुद कोई पुस्तक लिखी हो। ज़रा सोचिए एक बच्चा खुद सचिन द्वारा लिखी गयी खुद के लिए रोचक शैली में लिखी पुस्तक से जितना अभिभूत और प्रेरित होगा उतना किसी दोयम दर्जे के लेखक द्वारा गूगल से उठा कर नीरस भाषा में लिखी गयी सचिन  कि जीवनी से नहीं। इसी तरह एक महान लेखक द्वारा लिखी एक कहानी ही बच्चों को शाश्वत मानवीय मूल्यों का एहसास करा सकती है। चेखोव की "लाखी" या  "वांका"  और प्रेमचंद की ईदगाह जैसी कहानियाँ गहन प्रभाव डालती हैं।

कभी कोफ्त होती है कि हिन्दी में अच्छा बाल साहित्य नहीं है। और देशों की ओर देखता हूँ तो लगता है ऐसा हमारे यहाँ क्यूँ नहीं हो सकता। जो कुछ थोड़े प्रयास थे भी वे अब बंद हैं। ना तो हिन्दी के बड़े लेखक बच्चों के साहित्य में रुचि लेते हैं और न ही बच्चों के साहित्य में बड़े लेखक हैं। ना संपादक और ना ही प्रकाशन इस क्षेत्र में रुचि लेते हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नेहरू बाल पुस्तकालय जैसे प्रतिष्ठानों ने काम तो बहुत किया है लेकिन यह भी सरकारी विभागों के दोषों से पूर्णतया मुक्त नहीं है। नए लेखक भी आए हैं पर सभी पाठकों का रोना रोते हैं । जबकि पाठक है .....वे पढ़ना भी चाहते हैं लेकिन समस्या है कि लेखन उनके मनोनुकूल नहीं है। बाल साहित्य का मतलब भारत में नैतिक शिक्षा हो चुका है। किताब उठाते ही अगर उपदेश शुरू हो जाएंगे तो भला कौन पढ़ना चाहेगा। यह सही है कि बाल साहित्य सोद्देश्य हो लेकिन यह एक कला है कि यह उद्देश्य आप साहित्य के मूल "मनोरंजन" को ध्यान में रख कर दी जाए। भारत में जब भी कुछ लिखा जाता है वह रामायण, महाभारत, पुराण से आगे नहीं निकाल पाता। आज तो बाल साहित्य कम, बाल साहित्य पर शोध पुस्तकें बहुत सी हैं ...हद है ।

अभी हाल ही में एक अनुभव हुआ ।  बेटी के स्कूल में पीटीएम में तथा कथित पुस्तक मेला भी लगता है और पुस्तक प्रेमी होने  के नाते शिक्षिका के साथ कम पुस्तक मेले में ज्यादा समय व्यतीत करता हूँ। वहीं एक बार जब मैं कुछ पुस्तकें देख रहा था तो एक मम्मी और बेटी की नौंक झौंक कानों में पड़ी। बिटिया को चाहिए थी कोई पुस्तक , शायद वह डिस्कवरी चैनल पर देख कर उत्साहित थी और ग्रहों के बारे में एक मोटी सी किताब  पकड़े थी उधर मम्मी (वे दाम को लेकर ज्यादा परेशान नहीं हो सकतीं थीं क्यूंकी जिस गाड़ी से वे आयीं थीं हमारे लिए वह सपना ही है। लेकिन फिर भी वे असहज थीं। झुंझलाहट बढ़ी और उन्होने  किताब लेने से साफ  मना कर दिया। आखिर बेटी भी उन्हें की थी सो वह इंगलिश ग्रामर कि एक किताब ले आई और ज़ोर से बोली " ये वाली तो तुम ले ही लोगी न ? लेकिन आज में कोई किताब लिए बिना नहीं जाऊँगी" मम्मी ने अपनी लाज रखते हुये वही किताब ले ली सो भी यह कहते हुये " पहले अपनी पढ़ाई तो कर लो फिर फालतू कि किताबें पढ़ना"। मेरे अंदर से आवाज़ आई कि उन्हें कहूँ, समझाऊँ कि अभी अभी आपने जिज्ञासा। कलपनशीलता और मौलिकता कि हत्या कर दी, अभी अभी आपने मैकाले के सपने को और सच्चा कर दिया, अभी अभी आपने एक भारतीय प्रतिभा की लौ को बुझा दिया। एक और वाकया है एक दुकान पर मुझे  गुलज़ार की "गोपी गायन बाघा बायन"  किताब दिखी मैं उसे उठाने बढ़ा कि एक और महिला ने उसे देख लिया । समवयस्क थीं सो उनकी आँखों में भी बचपन की वही यादें तिरती देखीं जो मेरी आँखों में थीं। वे भी दूरदर्शन के उस सीरियल को याद करके भावुक थीं। सहसा अपनी बिटिया से कह उठीं ...देखो "गोपी गायन...." और फिर कुछ हुआ ..... बचपन को ठेल कर अनुशासन का पर्दा खिंच गया । कठोर भाव बना कर वे स्टेशनरी के रैक पर मुड़ गईं। काश वे समझ पातीं कि बच्चों को कोर्स के अलावा इन किताबों की कितनी जरूरत है। स्कूल में लाइब्रेरी देखी तो विशाल मात्रा में फेमस 5, नैन्सी ड्रू जैसी सामान्य सीरीज़ तो थीं लेकिन अच्छा साहित्य एक अलमारी में सिमटा था और हिन्दी में तो कुछ था ही नहीं। पता नहीं बाल साहित्य के अच्छे दिन कब आएंगे (बाल नरेंद्र जैसी चापलूसी की बजाय अगर नरेंद्र मोदी खुद बच्चों के लिए अपने अनुभव लिखते तो शायद कुछ बात बनती)

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अनतोन चेखोव की मार्मिक कहानी लाखी

26 जून 2014

अग्निवर्षा के बीच पानी मौजूद है : बुद्ध ग्रह

अग्निवर्षा के बीच पानी मौजूद है : बुद्ध ग्रह


हाल ही में अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजे गए ग्रहीय यान मसेंजर (संदेशवाहक) ने बहुत से आंकड़े और तस्वीरें भेजीं हैं। वैज्ञानिक इन तसवीरों का विश्लेषण करके बुद्ध से संबन्धित अपनी संकल्पनाओं को और सटीक बनाने में जुटे हुये हैं। इसी क्रम में एक चौंकाने वाले अनुमान को बल मिला है कि बुद्ध ग्रह पर भी पानी की मौजूदगी संभव है।
बुध है कुछ खास: 
सूर्य से सबसे नजदीक होने के कारण बुध सभी ग्रहों से खास है। यह सबसे छोटा ग्रह भी है हमारे सौर परिवार का। प्राचीन सभ्यताओं में भी इसे पहचान लिया गया था। ग्रीक साहित्य में इसे अपोलो (भोर) और हरमिस (शाम) के नाम से जाना जाता है। यह ग्रह अपनी धुरी पर 175.97 पृथ्वी दिनों में अपनी धुरी पर घूम जाता है जबकि अपनी कक्षा में सूर्य का मात्र 58 पृथ्वी दिनों में यह चक्कर पूरा कर लेता है। यानि बुध पर दिन, साल से छोटा होता है। मतलब यह कि आप बुध पर अपना जन्मदिन लगभग रोज़ मना सकते हैं। बुध का वातावरण बेहद जटिल और विषम है। यहाँ अधिकतम तापमान 450°C और न्यूनतम तापमान – 170°C से भी नीचे चला जाता है। वातावरण ना नन के कारण बुध पर लगातार उल्कापात होता रहता है जिसके कारण पूरा ग्रह उल्का क्रेटरों से भरा है। 1500 किलोमीटर व्यास का  कैलोरिस बेसिन नामक क्रेटर ना केवल बुद्ध का सबसे बड़ा बल्कि सौर मण्डल का सबसे बड़ा क्रेटर है। 
अरेशीबो वेधशाला का है कमाल  कई वर्षों से प्योर्तो रिको स्थित अरेशीबो वेधशाला बुध ग्रह का प्रेक्षण कर रही है। 1000 फीट व्रस की यह वेधशाला विश्व की सबसे बड़ी एकल रेडियोवेधशाला है जिसे 1960 में स्थापित किया गया था। इसी वेधशाला की मदद से गॉर्डन पेटेंगिल्स और उनके साथियों ने यह पता लगाया था कि बुध ग्रह मात्र 59 दिनों में अपनी धुरी का एक चक्कर पूरा कर लेता है जबकि पहले यह माना गया था कि बुद्ध का परिभ्रमण काल 88 दिन है। अरेशीबो वेधशाला से ही वैज्ञानिकों ने न्यूट्रोन तारे के अस्तित्व की पुष्टि की, पहले द्वितारे (बाइनरी) खोजे और पहली बार सौर परिवार से बाहर के ग्रह खोजे। जेम्स बॉन्ड की फिल्म गोल्डन आई के अलावा यह वेधशाला द स्पीशीज़ और X- फाइल्स जैसी प्रसिद्ध फिल्मों में भी दिखी है। कुछ समय से इसे सेटी (SETI: search for Extraterrestrial Intelligence) के प्रोजेक्ट हेतु भी उपयोग किया जा रहा है।
अरेशीबो संकल्पना : अरेशीबो द्वारा एकत्रित आंकड़ों के आधार पर निर्मित रेडियो चित्रण से पता चला कि बुध के सभी हिस्से समान रूप से रेडियो किरणों को परावर्तित नहीं करते। कुछ हिस्से जो अधिक मात्र में परावर्तन करते हैं वे मुख्य रूप से ध्रुवों के आस पास स्थित हैं। इस विषय में एक
संकल्पना यह थी कि संभवतः इन हिस्सों में जमी हुयी बर्फ है जो अधिक परावर्तन का कारण है। मेसेंजर यान द्वारा भेजी गयी तसवीरों को जब अरेशीबो वेधशाला के रेडियो चित्रों के साथ मिलाया गया तो पता चला कि अधिक परावर्तन वाले ये हिस्से (पीले स्थान) दरअसल क्रेटर हैं और अधिक परावर्तन वाले हिस्सों की संख्या ऊतरी ध्रुव की ओर बढ़ती जाती है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि ये सभी हिस्से बुध के ध्रुवों के उन हिस्सों में स्थित हैं जहां सूर्य की रोशनी नहीं पहुँच पाती (लाल रंग ) अर्थात बड़े और गहरे क्रेटरों कि तलहटी या दीवारें। दरअसल बुध सूर्य से सबसे करीब स्थित ग्रह है। इसी वजह से प्रकाशमान हिस्सों में यहाँ तापमान लगभग 400° C से अधिक हो जाता है लेकिन क्रेटरों की तलहटी में जहां सूर्य कि किरणें नहीं पहुँच पातीं तापमान – 170°C से भी नीचे चला जाता है। इतने कम तापमान पर उल्काओं के साथ आया पानी यहाँ जमा रह सकता है।
तस्वीरें व संदर्भ : नासा (शैक्षणिक एवं सामान्य ज्ञान हेतु उपयोग) 

25 जून 2014

दो मुहाँ


ऑरलैंडो, फ्लोरिडा  के साठ वर्षीय पॉल हेनेसी को वन्य जीवन और आश्चर्यजनक चीजों की छवि उतारने में मज़ा आता है। विश्व प्रसिद्ध नेशनल  ज्योग्राफिक पत्रिका में उनका लिया गया  यह छविचित्र अनोखा है। यह एक दोमुहें होण्डुरन मिल्क स्नेक का छविचित्र है जिसे स्थानीय विश्वविध्यालय के जीव विज्ञानी की सहायता से लिया गया है । यह एक अल्बिनो है जिसका मतलब है इसमें कुछ रंग प्रदर्शित  वाले जीन नहीं हैं। ऐसे साँप जहरीले नहीं होते। यह बहुतायत में कनाडा, अमेरिका, इक्वेडोर, वेनेज़्वेला आदि देशों में मिलता है। अपने बचाव के लिए इसके शरीर के रंग और डिजायन एक अन्य जहरीले कोरल साँप से मिलते जुलते हैं। इन्हें मिल्क स्नेक नाम इनके बारे में प्रचलित एक मिथक से पड़ा की ये गायों के थनों से दूध चूस लेते हैं हालांकि यह केवल एक मिथक ही है। ये साँप रात में निकलते हैं और चूहे, कीड़े और छिपकलियाँ खाते हैं। प्रकृति के इस खूबसूरत प्राणि को आप भी देखिये। 

9 अप्रैल 2014

आज़म खाँ ने एक हाल ही में कहाँ कि कार्गिल युद्ध मुसलमान सैनिकों की वजह से जीता। बवाल मचने पर बयान से मुकर गए। अंदरखाने की खबर यह है कि वे कहना चाहते थे कि कारगिल में भारत ने तो पूरा ज़ोर लगाया लेकिन जीते हम इसलिए क्यूंकी मुसलमान सैनिक जो पाकिस्तान की सेना में थे भाग गए। जीते ना हम मुसलमान सैनिकों की वजह से।

(वैसे भी भारतीय सेना में इंसान होते हैं)

23 मार्च 2014

क्वीन - उथले तर्क और स्वाभाविक अभिनय वाली मनोरंजक फिल्म

भारतीय फ़िल्मकार न जाने क्यूँ हर बार असफल होते हैं जब वे कोई अच्छे मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैं। अक्सर व्यावसायिकता के चलते ऐसे हर मुद्दे को उठाना तो दूर वे उचका भी नहीं पाते। क्वीन भी एक ऐसी ही फिल्म है। सुना था कि यह हीरोइन आधारित फिल्म है जो कि मुंबई फिल्म जगत में एक रिस्की काम है। फिल्म एक मध्यवर्गीय लड़की की शादी से शुरू होती है और लड़के द्वारा शादी से एक दिन पहले मना कर देने जैसे खतरनाक मोड से होती हुयी हनीमून पर अकेले जाने जैसे अभूतपूर्व निर्णय से गुजरती है और अंततः गुजरिया के सस्तेपन में खो कर साधारण रूप से खतम हो जाति है। लड़की अपने हनीमून के टिकट को बेकार ना करते हुये पहुँच जाती है पेरिस। यहाँ उसकी मुलाक़ात भारतीय मानस की एक ऐसी फेंटेसी से होती है जो बड़े अजीब ढंग से दशकों से जस की तस बनी हुयी है – विदेशी औरत – मतलब शराब पीने और सिगरेट पीने वाली व एक ऐसी औरत जो समान्यतः या तो तलाक़शुदा होती है या बिन ब्याही माँ और जो हर समय संगीत की धुन पर मटकती रहती है या सेक्स करती रहती है – इस फिल्म में उसका नाम विजयलक्ष्मी है। यह चरित्र मुख्यतः पेरिस जैसे हाइपरमेट्रोपॉलिटन शहर में रानी की सहायता करता है और हर भारतीय फिल्म चरित्र की तरह फिल्मी है। रानी अनेक पबों, स्ट्रिप क्लबों और ऐसी ही अन्य बदनाम जगहों में घूमती, दारू पीती और एम्स्टर्डम में के एक हॉस्टल में एक रूसी (शायद रुसियों का नाम एलेक्ज़ेंडर कि जगह एलेक्सान्द्र होता है), जापानी जिसे  और फ्रांसीसी लड़कों के साथ रूम शेयर करती एक इतावली को चूमती हुयी आखिर आत्मविश्वास पा लेती है और अपने उस मंगेतर से पीछा छुड़ा लेती है जो अचानक रानी द्वारा निराशा में भेजी चेंजिंगरूम कि एक तस्वीर को देख कर फिर उससे शादी करने की इच्छा जाहिर करता है। मुझ जैसे कहानी प्रिय व्यक्ति को यह समझने में थोड़ी दिक्कत हुयी की रानी को इस यात्रा में आखिर कौन से मूल्यों ने उसे आत्मविश्वास दिया और वह अपने मंगेतर की अंगूठी लौटाने का फैसला करती है।  इस फिल्म की एक किरदार रोक्ज़ेट या रुखसार है जो एक स्ट्रिप क्लब में इसलिए काम करती है कि करने को कोई काम नहीं है, रिसेशन है और जब तक जॉब नहीं है यही है। यह खतरनाक सांस्कृतिक प्रदूषण है। स्ट्रिप क्लबों में काम करने का यह तर्क निश्चित रूप से खतरनाक है और जिस आयु वर्ग के लिए है उसे स्ट्रिप क्लबों कि असलियत भी पता नहीं है। यह अमेरिकी संस्कृति का वह अंग है जिससे खुद अमेरिकी भी परेशान हैं। हाल ही में एक अमेरिकी पिता अपनी बेटी के द्वारा अपनी कॉलेज फीस के लिए पॉर्न फिल्म में काम करने के निर्णय से परेशान नज़र आया। वह बेटी भी शायद हॉलीवुड की ऐसी ही फिल्मों के उथले तर्कों से प्रभावित रही होगी। नारी सशक्तिकरण देह बेच कर नहीं बल्कि देह से मुक्त हो कर संभव है। देह से मुक्ति का मतलब आत्मनिर्णय का अधिकार है। स्ट्रिप क्लब ऐसी जगह नहीं होते जहां आप सुरक्षित घूम सकें। रानी स्ट्रिप क्लब में दोस्तों के साथ प्लेटोनिक भावना के साथ घूमती है जो दरअसल बचकाना है। गूगल पर जाइए और शूटिंग एट स्ट्रिप क्लब्स टाइप करके जान लीजिये कि ये जगहें अपराध, नशा और वेश्यावृत्ति के वे गहरे दलदल हैं जहां अमेरिकी सभ्य समाज नहीं जाता। ये जगहें उतनी ही बदनाम हैं जितनी भारत की सोनगाछी या जी बी रोड बस हालत पैसे के मुताबिक वहाँ चमक दमक ज्यादा है लेकिन शोषण उतना ही है। बताता चलूँ कि रोकजेन नाम से द पुलिस नामक बैंड का एक गाना है भी है जो एक ऐसे लड़के कि तरफ से है जो एक वेश्या को प्यार कर बैठता है और वह इसे ग्लोरीफ़ाई नहीं करता है।
इस फिल्म का मुद्दा एक लड़की का आत्मविश्वास है जिसे पाने का नुस्खा हमारे फ़िल्मकार आजकल बरास्ता पश्चिम, पब और सेक्स में खोज रहे हैं। ह्यू हैफनर (प्लेबॉय पत्रिका के मालिक और अमेरिका में अश्लीलता की गंगा बहाने वाले) के दर्शन वाली आज के जो दिखता है वही बिकता है” की मार्केटिंग करने वाली, अस्वाभाविक पात्रों वाली हल्की फिल्म में अगर कुछ स्वाभाविक है तो कंगना का अभिनय। दिल्ली कि एक मध्यमवर्गीय लड़की के किरदार में जो स्वाभाविकता है वह फिल्म को मनोरंजक बनाए रखती है।  

11 फ़र॰ 2014

60 वर्ष गए पिक्चर अभी बाकी है

60 वर्ष गए पिक्चर अभी बाकी है
आज भारतीय राजनीति जिस बहुराहे पर खड़ी है वहाँ से आगे जाने का रास्ता सावधानी और उच्च सिद्धांतों के आलोक में तय किया जाना चाहिए। हमारी राजनीतिक व्यवस्था बहुदलीय लोकतन्त्र पर आधारित है और इस व्यवस्था का मुख्य पहलू है दलीय प्रतिस्पर्धा। दुर्भाग्य से आज़ादी के आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले नेताओं और संस्थाओं ने पार्टियों का रूप लेकर इस प्रतिस्पर्धा का गला घोंट दिया और आज़ादी को महज़ सत्ता हस्तांतरण बना दिया गया। 1947 में चुनावी राजनीति में कांग्रेस और इसके सभी नेताओं से परे कोई सोच नहीं थी और इसी पूर्ण सहमति ने पहले आम चुनाव को जहां अभूतपूर्व रूप से सफल बनाया तो दूसरी ओर इसने बहुदलीय व्यवस्था को अप्रासंगिक बना दिया।  संसदीय व्यवस्थ में विपक्ष का महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक मजबूत विपक्ष एक अच्छी सरकार का आश्वासन भी होता है। लेकिन कांग्रेस के सर्वाधिकार ने भारतीय संसदीय व्यवस्था में कभी भी एक मजबूत विपक्ष को उभरने नहीं दिया। आज़ादी को लेकर जो गरिमा, स्फूर्ति और आशा पूरे देश में फैली थी उसे आगे की पीढ़ियों में हस्तांतरित करने की प्रक्रिया को भी इस प्रवृत्ति ने बाधित किया। एकाधिकार और निर्विरोध चुनाव ने कांग्रेस को एक ओर वंशवादी बना दिया तो दूसरी ओर जनता को यथास्थितिवादी। विपक्ष का कमजोर विकास राजनीति में निजी स्वार्थों को सर्वोपरि रखने वाले लोगों के लिए वरदान बन कर आया। ऐसे में कुनिर्णयों, दुर्भाग्य और परिवार्तनों के दौर में सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए एकाधिकारवादी और अवसरवादी दोनों ने मिल कर देश की राजनीति को ठीक उन्हीं बिन्दुओं पर ला कर खड़ा कर दिया है जिनसे आज़ादी पाने के लिए हमने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी। इसी अवसरवाद ने ठीक अंग्रेजों की तरह भारतीय समाज के तानेबाने में मौजूद सभी दरारों को और बड़ा किया एवं नयी दरारें भी ईज़ाद की गईं। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीयता के जिन मुद्दों के लिए आशा की गयी थी कि स्वशासन के दौर में ये मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाएंगे उन्हीं मुद्दों के सहारे गैर कांग्रेसी दलों ने अपने पैर जमाने की कोशिश की। इस तरह देश की राजनीति ने कल्याणकारी की बजाए जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता और कट्टरवाद का रास्ता चुन लिया। इस राजनीति ने आज़ादी के बाद के सुनहरे सपनों को ज़मीन पर उतारने की कोशिश करने की बजाए यथास्थितिवाद को प्राथमिकता दी। इस राजनीति ने कर्तव्यबोध और काम करने की संस्कृति की बजाए चापलूसी, भाई भतीजावाद और रिश्वतख़ोरी को जन्म दिया। जनता के मोहभंग और क्षेत्रीय, भाषायी, धार्मिक और जातिवादी राजनीति के कारण जब कांग्रेस का एकाधिकार दरकने लगा तो अब यथास्थिति बनाए रखने के लिए इन्दिरा गांधी द्वारा प्रतिबद्ध नौकरशाही, न्यपालिका और दमन का सहारा लिया गया और फिर आपातकाल जैसे गैर लोकतान्त्रिक कदम भी उठये गए और अंततः पीछे के दरवाजे की राजनीति भी आरंभ हुयी जब कि बूथ कैप्चरिंग, राजनीतिक हत्याएँ, पुलिस और खुफिया तंत्र का इस्तेमाल सत्ता पाने या गिराने में होने लगा। बूथ कैप्चरिंग, आलोकतांत्रिक तरीकों के क्षेत्र में भारत का आविष्कार था। इस तरीके ने राजनीति में अपराधियों के लिए एक बेहतर रोजगार का अवसर पैदा किया और 70 के दशक में बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में अनेक ऐसे अपराधी बकायदा विभिन्न चुनावी हथकंडों की संगठित सेवा देने लगे। राजनीति और अपराध नजदीक आ गए। प्रतिबद्ध नौकरशाही, न्यायपालिका और पुलिस की अवधारणा ने ट्रांसफर-पोस्टिंग, थानों की नीलामी, पदों की नीलामी और काले धन का प्रचलन बढ़ा दिया। सार्वजनिक जीवन से कर्तव्य, आदर्श और शुचिता के सभी आग्रह समाप्त हो गए और भारतीय जनता अपने संतोषी सदा सुखी को आदर्श मान कर अपने खोल में दुबक गयी। अनेक विफल और अधूरी क्रांतियों के बाद अंततः अब कोई राष्ट्रकवि भी नहीं है। देश के इतिहास में अनेक भीषण मानवीय त्रासदियाँ हुईं पर भारतीय कला चुप रही। समाज की अभिव्यक्ति लुप्त हो गयी। 84 के दंगे हुये, आपातकाल के सितम, नर-संहार, युद्ध, क्रांतियाँ, गरीबी, आतंकवाद और फिर दंगे लेकिन कलाकार, साहित्यकार, संगीतकार चुप रहे। जैसे जैसे देश में निराशा घर कर रही थी कला का फ़लक भी स्याह होता जा रहा था। फिल्मों, संगीत, चित्रकला में उत्तरोत्तर अश्लीलता भी बढ़ रही थी। साहित्य भी चुप ही रहा बल्कि साहित्य भी राजनीतिक-सामाजिक क्षरण के प्रभाव से नहीं बच पाया और इस दौर में प्रकाशस्तंभ की बजाए महज आईना बन कर रह गया। साहित्य भी राजनीति की भांति जातिवादी, खेमेबाजी, धार्मिक और अवसरवादी हो गया। अब हमारे पास कहानीकार नहीं बल्कि दलित या स्त्री या मुस्लिम कहानीकार होते हैं। अब साहित्य रसास्वादन के लिए नहीं बल्कि खेमेबाजी के लिए लिखा जाता है। साहित्य अब राजनीति की B टीम बन गया है। यह वह साहित्य नहीं जो जनसंवेदनाओं को जगाए बल्कि यह उसे भ्रमित करने वाला और बांटने वाला साहित्य है। उयाह कुरीतियों पर कुठराघात नहीं करता बल्कि नयी कुरीतियाँ पैदा और पुष्ट करता है। यह जनता से दूर है और राजनीति के करीब। यह वह आईना है जो उल्टी तस्वीर दिखाता है। यह मूल्यों को पीढ़ियों में हस्तांतरित करने में रुचि नहीं दिखाता। यह नई पीढ़ी के लिए कुछ नहीं देता।
आज़ादी के भंग सपने और जीवन की जद्दोजहद में हमने एक आलसी, यथास्थितिवादी, और असंवेदनशील समाज विकसित कर लिया है। पुरुषार्थ और कर्मवाद के जन्मदाता देश में इन्हीं मूल्यों को खो दिया गया। यह हताशाजनक ही है कि 65 आज़ाद वर्षों बाद भी आज विश्व में सर्वाधिक गरीब, अशिक्षित, कुशासित और प्रदूषित देशों में हम गिने जाते हैं। देश में शिक्षा का जो ढांचा अंग्रेज़ विकसित कर गए थे हम उसी के खंडहरों पर खड़े हैं। शिक्षा के क्षेत्र में नवीनता के नाम पर सिर्फ पब्लिक स्कूल और उनकी विशालकाय इमारतें, भारी बस्ते, भीषण फीस,  ठूँसे हुये दिमाग और ठस शिक्षक ही हैं हमारे पास। कोई नया विचार, आंदोलन नहीं है। सब कुछ सरकार पर निर्भर है।

भारतीय समाज के मानस में अंग्रेजों ने हीन भावनाओं ने जो बीज बोये थे और हमें भरोसा दिलाया था कि हम एक समाज के तौर पर विफल हैं, वे अब फल दे रहे थे। हम एक विफल समाज के रूप में विकसित होते जा रहे हैं। हमारे यहाँ व्यक्तिगत उपलब्धियां बहुत हैं पर सामूहिक सफलताएँ कम। व्यक्तिगत रूप से हम विदेशों में जा कर बड़ी सफलताएँ हासिल करते हैं पर सामाजिक तौर पर हमारी उपलब्धियां शून्य हैं। देश में धन का उदारीकरण तो हो गया पर मन का उदारीकरण होना बाकी है। पुराने मूल्यों को तो हमने त्याग दिया है पर नए श्रेष्ठ मूल्यों का निर्माण अभी बाकी है। देश पुनः एक बहुराहे पर खड़ा है। 

28 जन॰ 2014

राष्ट्रपति के नाम पत्र

महामहिम राष्ट्रपति को पत्र
राष्ट्रपति उद्वेलित हैं । उन्होने अपने भाषण में अपनी व्यथा सामने रखी। लगभग पूरा भाषण वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य के इर्दगिर्द केन्द्रित रहा।
राष्ट्रपति जी आपके भाषण ने मुझे अचंभे में डाल दिया है। प्रश्न उमड़ रहे हैं पर उत्तर नहीं मिल रहे तो सोचा आपसे ही पूछ लूँ।
राष्ट्रपति जी अपने कहा है कि -
 महामहिम जी जनता कभी विश्वासघात नहीं करती बल्कि वह तो विश्वासघात का शिकार होती है। इलेक्शन वाच नामक संस्था ने एक लिस्ट दी है। इसमें वर्तमान कुल 536 लोकसभा सांसदों में से 160 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं और इनमें 76 के खिलाफ गंभीर किस्म के मामले है। इनमें से 28 सांसद यूपीए के हैं (14 कांग्रेस, 8 सपा और 6 बसपा) और 20 बीजेपी के हैं। क्या संविधान की मूल आत्मा और उसके महान रचयिताओं का यह आशय रहा होगा कि हत्या, अपहरण और बलात्कार के दोषी लोकतन्त्र के मंदिर में बैठ कर उस पवित्र भरोसे को तोड़ें जिसका आपने ज़िक्र किया? क्या आप अपने भाषण में इन्हीं खामियों की ओर इशारा कर रहे थे – सत्ता के लालच के लिए क्या राजनीतिक पार्टियां आत्मतुष्टि और अयोग्यता को प्रश्रय दे कर सर्वोच्च लोकतान्त्रिक संस्था संसद को कमजोर नहीं कर रहीं और लोकतन्त्र में हमारे पवित्र भरोसे का मज़ाक नहीं उड़ा रहीं, जो इस खुले खेल के बावजूद भी 65 वर्षों से कायम है और ईश्वर ही जानता है कि कब तक कायम रहेगा?
आपने कहा है कि चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारनाओं को आज़माने की अनुमति नहीं देते तब शायद आप इंगित कर रहे होंगे कि किस तरह आज बिना स्पष्ट अवधारणाओं के मात्र चुनाव जीतने कि क्षमता को देख कर ही पार्टियां टिकट बँटतीं हैं और सत्ता के लिए बिना स्पष्ट अवधारणाओं के गठबंधन करतीं हैं। क्या आप आज की इस विडम्बना पर तंज़ कसना चाहते थे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तो कब की विलुप्त हो चुकी है और वर्तमान कांग्रेस असल में कांग्रेस (आई) का ही विस्तार है। इसके पदाधिकारी अक्सर अपनी पार्टी की नीतियों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं और विचारधाराओं वाले मंचों पर पारिवारिक कहानियाँ सुनाते हैं। क्या आप कांग्रेस के उस विद्रूप की ओर तो इशारा नहीं कर रहे थे जो इसकी कथनी और करनी में झलकता है। कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ और कांग्रेस खुद पूँजीपतियों के हाथ। वहीं दूसरी ओर समाजवादी पार्टी बस नाम के लिए समाजवादी है और उसमें वह तमाम तत्व शामिल हैं जिनका समाजवाद से नहीं अराजकतावाद से सीधा नाता जरूर है। उधर भाजपा कि विचारधारा भी दिग्भ्रमित करने वाली है। वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। मोदी जी विकास पुरुष बना दिये गए हैं लेकिन गुजरात अभी भी सामाजिक विकास के महत्वपूर्ण मानदंडों पर पिछड़ता जा रहा है, लेकिन मैं भ्रमित हूँ कि आपने “व्यक्ति” क्यूँ कहा ? क्या आप किसी खास व्यक्ति को इंगित कर रहे थे ? बेशक ऐसी स्थिति किसी भी लोकतन्त्र के लिए खतरनाक है जहां सभी जिम्मेदार पार्टियां का कोई विज़न न रह जाए और वे आकंठ भ्रष्टाचार में डूब कर पूँजीपतियों के हाथ का खिलौना बन जाएँ। निश्चित ही आप दुखी हैं कि पार्टियों और सरकारों के लिए जनकल्याण की बजाए स्व कल्याण ही मुख्य मुद्दा रह गया है। आपने सही कहा है कि सरकार कोई खैराती संस्था नहीं है जो अपने सदस्यों की  तिजोरियाँ भरने के काम आए। आखिर कैसे कोई सरकार कैसे देश के संसाधनों को खैरात में बाँट सकती है। कोयला, प्रकृतिक गैस और स्पेक्ट्रम जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों की खैराती बंदरबाँट को कोई कैसे सही मान सकता है।
मैं तब भी भ्रमित हुया जब आपने कहा कि लोकलुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती। आप किस अराजकता की बात कर रहे थे ? राज्य की सम्पूर्ण शक्ति के बावजूद दंगे और हत्याएँ होना 1984, 1991, 2002, 2013 निरंतर अलग अलग सरकारें और पूर्ण सत्ता फिर भी ऐसी अराजकता? घोटालों के गवाहों की जेलों में हत्या, ईमानदार अफसरों और पत्रकारों कि सड़क पर हत्या। नेताओं पर हत्या, रेप और अपहरण के केस दर्ज होना और न्यायालय के आदेश को पुनः इन अपराधी नेताओं के पक्ष में पलट देना भी तो अराजकता ही है – लोकप्रिय अराजकता। राष्ट्रपति जी महाराष्ट्र में गणतन्त्र दिवस के अगले दिन एक नेता द्वारा खुले आम अपने लोगों को चुंगीनाका पर हमला करते और हिंसा करने का आदेश देना, उत्तर भारतियों के खिलाफ मुहिम चलना और निरंतर अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलना यही दिखाता है कि लोकप्रिय अराजकता अब शासन का विकल्प बन चुकी है। ओवैसी के जहरीले भाषणों के बावजूद वे जब सदन में दिखते हैं तो विश्वास पक्का होजाता है कि लोकलुभावन राजनीति अब सुशासन का विकल्प बन चुकी है।


पता नहीं लोग क्यूँ कह रहे थे की आपका भाषण अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की निंदा है। पर मुझे लगा कि आप भी केजरीवाल की ही भांति हमारी सरकारों, नेताओं और पार्टियों की ही आलोचना कर रहे थे। क्यूंकी जनता के हित के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन और शासन पर हिंसक हमले में वही अंतर है जो लोकतन्त्र और लोकलुभावन अराजकता में हैं। आप केजरीवाल द्वारा बिजली और पानी पर सबसिडी को बेशक खैरात नहीं कह रहे थे क्यूंकी आप महामहिम जानते हैं कि जनकल्याण खैरात नहीं अधिकार है।

गणतन्त्र का नागरिक 

अनुपम दीक्षित 

17 दिस॰ 2013

अन्ना के अनशन का टाइम, लोकपाल बिल का पास होना एक संयोग नहीं हैं। कांग्रेस ने कहा लोकपाल बिल हम पास करेंगे, श्रेय हम अन्ना को देंगे और "आप " को किनारे करेंगे।

11 नव॰ 2013

होनी अनहोनी

गाना था बचपन में सुना था - होनी को अनहोनी कर दें अनहोनी को होनी, अमर अकबर एंथोनि। अपने बौडीवुड (BOWDYWOOD) वाले भी अक्सर बड़ी यूजफूल वस्तुएँ लोकसेवा में अर्पित करते रहते हैं। यह उसी की मिसाल है।
अब देखिये ना। गौहाटी से कैसी गोटियाँ खेली गईं है। याचिका सी बी आई को लेकर दायर हुयी और सरकार के नुमाइंदे कोर्ट में ऐसी कोई दलील नहीं रख पाये जो माननीय जज साहब को संतुष्ट कर पाती कि सी बी आई का गठन पूरी तरह वैध था। तो जो अनहोनी  तय थी वह हो गयी। सी बी आई असंवैधानिक घोषित कर दी गयी और आश्चर्य यह कि जो विपक्ष संसद ठप्प कर कर के जनता को अभी तक चला रहा था उसकी ज़ुबान भी खामोश। रस्म अदायगी के लिए सभी चैनलों ने तीसरी लाइन के नेताओं और दोयम दर्जे के विशेषज्ञों से चर्चा पूरी कर ली और टी आर पी की कृपा से जितने प्रचार मिले जेब में डाले। उधर जनता तो खैर लगी पड़ी है अपने खर्चे पूरे करने में। उसे क्या फरक पड़ रहा है कि सी बी आई सही तरह से गठित हुयी थी या नहीं। उसने तो जब से होश संभाला है यही देखा है कि सी बी आई भले ही कैसे भी गठित हुयी हो उसका गठन ऐसा है कि वह किसी भी तरह के अवैध कार्यों की जांच वैध तरीके से कर ही नहीं पाती। हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर उसकी जांच बीरबल की खिचड़ी की तरह अनंत काल के लिए चलती है। सी बी आई कोई उसके लिए तो बनी नहीं जो चेन झपटने, चोरी, डकैती या घूस से उसे निजात दिलाये। 

तो भैया यह एक नया खेल है जिसमें खेल को बदलना होता है (अङ्ग्रेज़ी में गेम चेंजर कहलाता है ) और आज कल यह भारत की युवा राजनीति की देन माना जा रहा है। इसमें अक्सर ही देखने में आता है की किसी मुद्दे की बहस की हवा संवैधानिक या असंवैधानिक सिद्ध करके निकाल दी जाती है। देश के चिरयुवा नेता ने अभी कुछ दिन पहले जनलोकपाल की हवा ऐसे ही संवैधानिक हल दे कर निकाल दी थी। और अब सी बी आई की असंवैधानिकता ने सभी घोटालों की हवा निकाल दी है।  

खैर अभी तक देश में घोटाले होते थे तो लिमिट में पर जब यूपीए को अनलिमिटेड सत्ता जनता ने दी तब देश को कांग्रेस के नेता एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाने लगे और घोटालों की एक अनलिमिटेड सूची सामने आने लगी। कलमाड़ी, राजा राजनीति के धोनी बन कर रोज़ अनहोनी करने लगे और घोटाले की रकम के शून्य बढ़ते बढ़ते अनलिमिटेड हो कर राडिया टेप से होकर कोयला तक पहुँचने लगे तो सी बी आई की मुश्किलें भी बढ़ गईं। कोर्ट की निगरानी से बात हाथ से निकाल गयी। कोयला घोटाले की परतें खोली जाने लगीं तो लगा की देश का पूरा तंत्र असल में सड़ कर कोयले की तरह ही काला हो चुका है।

आए दिन यह कालिख कभी प्रधानमंत्री, कभी गृहमंत्री, विपक्ष, सपक्ष और अपक्ष यानि देश के धन कुबेरों तक उड़ने लगी। अब अनहोनी होने लगी थी। अब कालिख को झाड़ कर साफ करने का वक्त आ चुका था और यही इसी समय यह अनहोनी हुयी की सी बी आई असंवैधानिक घोषित हुयी और माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी गरिमामय हो कर इस पर स्टे लगा दिया। अब सभी प्रकार की जाँचें भी स्टे में ही रहेंगीं। सरकार को राहत मिली।

अब इस होनी और अनहोनी के समय को लेकर आप यह न कहिए की षड्यंत्र है क्यूंकी कवि कह गया है की जब अमर अकबर और एंथोनि (कृपया इसमें भी किसी तरह की साम्यता न खोजें) एक ही जगह जमा हो जाते हैं तो ऐसी होनी अनहोनी होती ही रहतीं हैं। बाकी आप तो खेल का आनंद लीजिये।