एक साधरण पत्थरबाज दो राजनीतिक दलों की सत्ता की हवस के चलते अब एक अलगाववादी नेता बन चुका है और पाकिस्तानी हीरो भी। इधर घोर राष्ट्रवादी देशभक्त लोगों को भी अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका मिल गया है ।
विचार पक्षियों जैसे होते हैं। मस्तिष्क के विशाल और अनंत फलक पर वे बादलों की तरह अचानक आते हैं, आकृतियाँ बदलते हैं, पक्षियों की तरह मँडराते हैं और फिर दूर कहीं गुम हो जाते हैं। बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनियाँ मेरे आगे, होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे। इन्हीं तमाशों पर जो विचार आकार लेते हैं उन्हें पकड़ने का प्रयास है यह चिट्ठा। आपको अच्छा लगे तो एक लघु चिप्पी चस्पा करना ना भूलें।
17 अप्रैल 2015
29 मार्च 2015
या तो नूँई चलैगी
या तो नूँई चलैगी
भारत की राजनीति : या तो नूँई चलैगी |
मैं जहां से आता हूँ (इटावा) वहाँ बसों के पीछे एक जाति विशेष का
नाम देख कर लोग समझ जाते हैं कि हॉर्न देना, कुछ कहना बेकार है। ये तो ऐसे ही चलेगी और पिछले
20 वर्षों से जिस क्षेत्र में रह रहा हूँ वहाँ बसों के पीछे लिखा होता है “या तो
नूँई चलैगी” और आप समझ जाते हैं कि यह एक जाति विशेष से संबन्धित बस है और इससे
कुछ भी कहना आफत मोल लेना है। इधर आम आदमी की अपनी पार्टी ने भी अपने मुखिया के
क्षेत्र की विशेषता ओढ़ पहन कर खुले आम घोषित कर दिया है कि “या तो नूँई चलैगी” हालांकि यह अड़ियलपन सिर्फ उनके क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे अब
हम सबने पूरी तरह अपना लिया है । “या तो नूँई चलैगी” अब नए भारत की बुलंद आवाज़ बन
चुका है। न जाने कितने आंदोलनों ने हमें और हमारी राजनीति को बदलने की कोशिश की
लेकिन हमारी राजनीति की बस को तो उन्हीं 15वी शती की गलियों में हिचकोले खाना है
जिनमें आदमी धर्म, कर्मकांड, जातिवाद और
रूढ़ियों के मकड़जालों से जूझता है । “आप” के उद्भव से बहुत से लोगों को आशा हुयी थी
की उस सड़ी हुयी राजनीति से छुटकारा मिलेगा जिसमें लोकतन्त्र के नाम पर धनिकतंत्र की
स्थापना हो चुकी है लेकिन आप में लात जूता यही सिद्ध करता है कि
“या तो नूंई चलैगी”
24 फ़र॰ 2015
विकास विकास .....क्या है विकास , कहाँ रहता है विकास ?
एक देश में जहां 70 प्रतिशत जनता ज़िंदगी से जूझ रही है और 47 % बच्चे कुपोषण का शिकार हैं वहाँ पिछले वर्ष लगभग 9 से 10 महीनों तक कॉर्पोरेट पूंजी की सहायता से दसियों हज़ार करोड़ फूँक कर एक विकासवादी सरकार जनता ने चुनी। कम से कम कहा तो यही जाता है । इस जनता के सपनों में कैसा विकास होगा यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। जनता को एक ऐसा विकास चाहिए जिसे वे खुद भी महसूस कर सकें ना कि ऐसा विकास जिसे देख कर केवल वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो सकें । जनता के विकास की परिभाषा बहुत सरल है । जनता को चाहिए अच्छा खाना, कपड़ा, स्वस्थ्य, शिक्षा और रहने की जगह। सरकारें, लोकतन्त्र में इसी वजह से होतीं हैं । कल्याणकारी सरकार का पहला उत्तरदायित्व जनता के प्रति है । जनता की पहली अपेक्षा वही मूलभूत मुद्दे हैं । भारत की सरकारों ने पिछले 65 वर्षों में समय समय पर यह आभास दिया है कि जब जरूरत होती है वह जनता का साथ देने के बजाय जनता के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है। हर असंतोष को विरोध समझ कर उसे दबा दिया जाता है । भूमि अधिग्रहण कानून का मामला भी कुछ ऐसा ही है । भारत में 100 वर्ष से अधिक पुराना औपनिवेशिक कानून अस्तित्व में था जिसके आधार पर अनेक सार्वजनिक और निजी परियोजनओं के लिए जमीन लेने के नियम बनाए गए थे । अङ्ग्रेज़ी सरकार के बनाए ये कानून छोटे से छोटे विरोध को खत्म करने के उद्देश्य से ही बनाए गए थे । पिछले 65 वर्षों में इन्हें बदला नहीं गया और अब जब कि समय है सरकारें कॉर्पोरेट हितों की पोषक बनी हुयी हैं।
ज़मीन हथियाने का धंधा : SEZ
हाल ही में वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने जब सेज़ यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर सीएजी की रिपोर्ट संसद में पेश की तो ये राज़ खुला कि सेज़ के कायदों का धड़ल्ले से उल्लंघन जारी है। सीएजी की इस रिपोर्ट के मुताबिक, एसईज़ेड के लिए देश में जो क़रीब 45,000 हेक्टेयर ज़मीन निकाली गई, उसमें सिर्फ 28,000 हेक्टेयर ज़मीन पर काम शुरू हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक, कई समूहों ने एसईज़ेड के नाम पर सरकार से ज़मीन लेकर उसे ऊंचे दामों पर बेच दिया और 6 राज्यों में करीब 40000 हेक्टेयर ज़मीन सेज़ के नाम पर निकाली गई, लेकिन इसमें से करीब 5,400 हेक्टेयर ज़मीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर लिया गया। इस तरह एसईज़ेड पॉलिसी जमीन हथियाने की पॉलिसी थी। इसका इस्तेमाल ज़मीन लूटने के लिए किया गया। इसके अलावा इन कंपनियों को 83000 करोड़ से अधिक की कर छूट भी मिली । यहाँ एक तथ्य गौर तलब है की जब दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने महज़ 200 करोड़ रुपये की सब्सिडी देते हुये पानी और बिजली जैसी आधारभूत जरूरतों को गरीबों को राहत देने के लिए , दरें घटाईं थी तब राजनीतिक अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों ने इसे " लोकतन्त्र" के लिए खतरनाक बताया था । लेकिन किसी विश्लेषक को यह अपराधपूर्ण कृत्य बुरा नहीं लगता कि किसान से सार्वजनिक कार्य के नाम पर पहले ज़मीन ली जाए । 20 वर्ष पहले के दाम तय करके मुआवजा दिया जाए । फिर वर्षों तक प्रस्तावित कार्य ना हो पाने पर ज़मीन को निजी कंपनियों को बेच दिया जाए।
ग्रामीण जनसंख्या का मलिन बस्ती में बदलना :
इन जगहों पर जो गाँव थे उनके लोग जहां पहले भूमि के मालिक थे अब भूमिहींन मजदूर हैं । जो मुआवजा मिला था वह बेहतर योजना के आभाव में खर्च हो चुका है और गाँव अब दमकती सोसाइटी के बीच एक झुग्गी में तब्दील हो चुका है जो उसी सोसायटी के लिए घरेलू नौकर, प्लमबर, बिजली और ड्राइवर का स्रोत बन गया है । ऐसे सामाजिक उथल पुथल से अपराध भी बढ़ते हैं, इसके सामाजिक अध्ययन मौजूद हैं । किसी सरकार ने यह शोध करने की ईमानदार कोशिश नहीं की है की आखिर भारत की जमीन की जरूरतों को कैसे पूरा किया जाए जिससे ऐसे दुष्प्रभाव ना हों। भारत की रक्षा, शिक्षा और ऊर्जा नीति की तरह कोई भूमि नीति नहीं है । इस मुद्दे पर पिछले वर्षों में जब विवाद अधिक बढ़ा था और दिल्ली व आस पास के क्षेत्रों में हिंसक झड़पें भी हुईं थी उस समय राहुल गांधी ने अचानक बड़ा नाटकीय आंदोलन रचा कर आनन फानन में एक बिल पास कर दिया था । अब केंद्र सरकार में सत्ता संभालने वाली बीजेपी ने एक अध्यादेश के द्वारा इस बिल में बड़े बदलाव कर दिये हैं और ये बदलाव महज़ मुआवजा वाले बिन्दु को यथावत रखते हुये कई कदम आगे बढ़ते हुये इसे पूरी तरह से थोड़े से उधयोगपतियों के पूर्णतः हित में बना दिया है ।
यमुना एक्स्प्रेस वे या पुणे एक्स्प्रेस वे जैसी परियोजनाएँ एक बढ़िया उदाहरण हैं । सरकार ने हाइवे बनाने के लिए ज़मीन ली । ठीक है । वह आवश्यक थी । जनहित की परियोजना थी । लेकिन साथ ही सरकार ने हाइवे में जितनी ज़मीन की जरूरत थी उससे कहीं अधिक मात्र में ज़मीन ली और बाद में उसे बिल्डरों को ऊंचे दामों पर बेच दिया । बिल्डरों ने उस ज़मीन पर मकान, दुकान,मॉल रोज़ोर्ट बना लिए और किसान अपनी आँखों के सामने अपनी ही ज़मीन को खुद को मिले मुआवज़े से 100 गुना अधिक मूल्य पर बिकते देख रहे हैं ।जेटली जी ने अपने ब्लॉग पर तर्क दिया है कि सड़क बने से कीमतें बढ़ेंगी और ग्रामीणों को फाइदा होगा । लेकिन कीमतें जहां कि बढ़नी थीं वह ज़मीन तो पहले ही बिल्डरों के पास पहुँच चुकी है और वे उसका फाइदा ले रहे हैं । कितने गांवों को फायदा हुआ है ? सरकार ने ऐसा कोई अध्ययन नहीं कराया। यह तमाशा हरियाणा, यूपी, उड़ीसा, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश में चल रहा है ।
मुआवज़े का खेल :
सरकारी मुआवजा भी खूब होता है । अव्वल तो इसे मिलने में ही इतने पैंच होते हैं कि मिलने में सालों लगते हैं। इसके अलावा इसका निर्धारण भी विवादित है और नए अध्यादेश में तो मुआवजा कोई किसान वास्तव में ले या ना ले अगर सरकार ने बैंक में खाता खोल कर एक मुआवजा निधि बना कर उसमें मुआवजा राशि जमा करा दी तो इसे मुआवजा दिया मान लिया जाएगा । और अगर मुआवजा दे दिया गया है तो किसान अदालत नहीं जा सकते । मतलब मार कर रोने भी ना दिया जाए ।
नया , पुराना और वास्तविकता: छह बिन्दु
पहला बिन्दु : 2013 का क़ानून : निजी प्रोजेक्ट के लिए 80%, PPP के लिए 70% लोगों की सहमति ज़रूरी
2014 का अध्यादेश : रक्षा उत्पादन, ग्रामीण इन्फ़्रा, औद्योगिक कॉरीडोर के लिए सहमति ज़रूरी नहीं
वास्तविकता : उड़ीसा, यू पी में ऐसे अधिकांश मामले हैं जिनमें नियमों को तक पर रख कर अधिग्रहण किए गए । अधिकांश मामलों में एमर्जेंसी क्लौज लागू ही नहीं होता यह कैग की रिपोर्ट कहती है । ऐसे में 80 % सहमति बहुत से विवादों को खत्म कर सकती थी ।
दूसरा बिन्दु :
दूसरा बिन्दु :
दूसरा बिन्दु : 2013 का क़ानून : हर अधिग्रहण से पहले सामाजिक प्रभाव का आकलन ज़रूरी
2014 अध्यादेश : हर अधिग्रहण से पहले सामाजिक अध्ययन आवश्यक नहीं ।
2014 अध्यादेश : हर अधिग्रहण से पहले सामाजिक अध्ययन आवश्यक नहीं ।
वास्तविकता : सामाजिक प्रभाव का अध्ययन अति आवश्यक है । इससे प्रोजेक्ट में देरी नहीं बल्कि स्थिरता में ही बढ़ोत्तरी होती । अध्ययन के बाद यदि सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अधिहरहन किया जाएगा और उचित ढंग से मुआवजा और पुनर्वास किया जाएगा तो मुकद्दमों की संख्या में कमी होगी।
तीसरा बिन्दु : 2013 का क़ानून : बहु-फसली और उपजाऊ ज़मीन का विशेष परिस्थिति में ही अधिग्रहण
2014 का अध्यादेश : राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण इंफ्रा के लिए उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण हो सकता है ।
2014 का अध्यादेश : राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा, ग्रामीण इंफ्रा के लिए उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण हो सकता है ।
बहु -फ़सली ज़मीन का अधिग्रहण नहीं होना चाहिए । यह ज़मीन पीढ़ियों तक को रोजगार और सुरक्षा देती है । इसे छीनना एक प्रकार से व्यक्ति के जीवन के अधिकार को छीनना है।
चौथा बन्दु : 2013 का क़ानून : ग्राणीण भूमि का मुआवज़ा बाज़ार से 4 गुना, शहरी ज़मीन का 2 गुना
2014 का अध्यादेश : कोई बदलाव नहीं ।
2014 का अध्यादेश : कोई बदलाव नहीं ।
वास्तविकता : मुआवजा 4 गुना 10 गुना से अधिक महत्वपूर्ण है मुआवजा निर्धारित कैसे किया जाए । आज की ज़मीन का भाव 20 वर्ष पूर्व के भाव पर कैसे लगाया जा सकता है ? रक्षा को छोड़ कर अन्य किसी क्षेत्र में सीधे किसानों से वर्तमान मूल्यों पर सौदा हो । वैसे किसानों कि मांग यह भी है कि ऐसी किसी भी प्रोजेक्ट के लिए किसानों से लीज़ पर ज़मीन ली जाए ।
पाँचवाँ बिन्दु :2013 का क़ानून : 5 साल में प्रोजेक्ट शुरू नहीं हुए तो ज़मीन किसानों को वापस
2014 का अध्यादेश : कोई समय सीमा नहीं ।
2014 का अध्यादेश : कोई समय सीमा नहीं ।
वास्तविकता : हाल ही मेँ हरियाणा के एक गाँव में नए आवासीय सेक्टर बसने के नाम पर किसानों से जमीने ली गईं । 6 वर्ष तक प्रस्तावित काम ना हो पाने पर अक्षमता जता कर इन ज़मीनों को निजी बिल्डरों को दे दिया गया । अब इन ज़मीनों कि बेहद ऊंचे दामों पर बिक्री हो रही है बल्कि कई ज़मीन पाने वाली कंपनियों ने इन ज़मीनों को ऊंचे दामों पर दूसरी कंपनियों को लीज़ पर दे दिया है । जब कंपनियाँ ज़मीन लीज़ पर दे सकतीं हैं तो किसानों से लीज़ पर लेने में क्या कठिनाई है ?
छठवाँ बिन्दु : 2013 का क़ानून : किसी नियम की अनदेखी करने वाले अधिकारियों पर क़ानूनी कार्रवाई होगी
2014 का अध्यादेश : बिना अनुमति के कार्यवाही संभव नहीं ।
2014 का अध्यादेश : बिना अनुमति के कार्यवाही संभव नहीं ।
वास्तविकता : यह बिरले ही होता है ।
8 फ़र॰ 2015
बीजेपी की (प्रसव) वेदना : दिल्ली
भारत की राजनीति जिस तरह का स्वरूप ले चुकी है वह भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में तो असमर्थ है ही बल्कि देश कू विशाल जनसंख्या को बेहतर अवसर, सुखद जीवन और सुरक्षा प्रदान करने में भी असफल रही है। इन चुनौतियों के लिए 20वीं शती के समाजवाद, पूंजीवाद या साम्यवाद आज उपायुक्त नहीं हैं । आज ज़माना एक की रोटी छीन कर दूसरे को खिलाने का नहीं है बल्कि ऐसी व्यवस्था करने का है जिसमें ना केवल रोटियाँ सभी के लिए पर्याप्त हों बल्कि कोई भूखा भी ना रहे । यह रोटियाँ बनाने का समय है ....सैंकने का नहीं । आप ईवेंट मैनेजमेंट से जनता को भरमा तो सकते हैं लेकिन भ्रम देर तक नहीं चलता । लोकतन्त्र की लोकप्रिय परिभाषा देने वाले अब्राहम लिंकन के एक और कथन को याद रखा जाना चाहिए ---- You can fool all the people some of the time, and some of the people all the time, but you cannot fool all the people all the time. (सभी लोगों को कुछ समय के लिए तो उल्लू बनाया जा सकता है और कुछ लोगों को हर समय उल्लू बनाया जा सकता है लेकिन सभी लोगों को सदा के लिए उल्लू नहीं बनाया जा सकता ) ।
बीजेपी की लोकसभा यात्रा जिन विकासवादी वादों और नारों के साथ शुरू हुयी थी उसने जनता में विकास की आशाएँ जागा दीं । जिस गुजरात मॉडल की घनी चर्चा थी वह अब गायब है । नौ महीनों जनता बिजली, पानी, स्वस्थ्य और शिक्षा की बात का इंतज़ार कर रही है लेकिन सुनाई पड़ रहा है "घर वापसी", "लव जिहाद", 4,6,8,10 बच्चे पैदा करने की सीख और रामजादे जैसी ओछी बातें। इन नौ महीनों का जमा हासिल कुछ विदेश यात्राओं और खुद को विश्व नेता स्थापित करने की असफल कोशिश के अलावा कुछ नहीं है । सरकार चुप है, मंत्री चुपचाप हैं, केवल प्रधानमंत्री जी मुखर हैं। बस यही वजह है की दिल्ली में नौ महीने के इंतज़ार के बाद पूरे देश , महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू में लगातार जीत के बाद अब दिल्ली में "अपवाद" स्वरूप "आप" की सरकार बनी है ।
बेशक बराक ने सही कहा है "भारत में आपस में लड़ कर विकास नहीं पैदा नहीं हो सकता" यह तो आपस के प्यार से ही पैदा होगा।
बीजेपी की लोकसभा यात्रा जिन विकासवादी वादों और नारों के साथ शुरू हुयी थी उसने जनता में विकास की आशाएँ जागा दीं । जिस गुजरात मॉडल की घनी चर्चा थी वह अब गायब है । नौ महीनों जनता बिजली, पानी, स्वस्थ्य और शिक्षा की बात का इंतज़ार कर रही है लेकिन सुनाई पड़ रहा है "घर वापसी", "लव जिहाद", 4,6,8,10 बच्चे पैदा करने की सीख और रामजादे जैसी ओछी बातें। इन नौ महीनों का जमा हासिल कुछ विदेश यात्राओं और खुद को विश्व नेता स्थापित करने की असफल कोशिश के अलावा कुछ नहीं है । सरकार चुप है, मंत्री चुपचाप हैं, केवल प्रधानमंत्री जी मुखर हैं। बस यही वजह है की दिल्ली में नौ महीने के इंतज़ार के बाद पूरे देश , महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मू में लगातार जीत के बाद अब दिल्ली में "अपवाद" स्वरूप "आप" की सरकार बनी है ।
बेशक बराक ने सही कहा है "भारत में आपस में लड़ कर विकास नहीं पैदा नहीं हो सकता" यह तो आपस के प्यार से ही पैदा होगा।
21 जन॰ 2015
दिल्ली कहते हैं दिल वालों की है । लेकिन हमारे नेता दिल वाले नहीं हैं । पिछले 2 सालों से दिल्ली को लेकर जैसी लै लै -दै दै मची हुयी है उससे दिल्ली फिर ढिल्ली हो गयी है । दिल्ली पिछले 2 साल से हरेक राजनीतिक दल के लिए दूर बनी हुयी है और इनमें इसे पाने के लिए खिंचतान जारी है। केजरीवाल कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए निज़ामुद्दीन औलिया बने हुये हैं और कहते रहे हैं "हनुज दिल्ली दूर अस्त " दिल्ली अभी दूर है । देखना है क्रेन बेदी , मफ़लर की गुंजलक से दिल्ली को आजाद करा पातीं हैं या मफ़लर की पकड़ में दिल्ली सहज होगी। जो भी हो राजनीति तो बदलेगी ।
5 जन॰ 2015
"पद्मश्री" नहीं "पंकश्री"
इससे बड़ा पुरस्कार क्या होगा ! |
प्रिय सायना तुम्हें पिछले वर्ष की शानदार सफलताओं के लिए बधाई और शुक्रिया।
शुक्रिया इसलिए की तुम भारत में खेल की मोनोपोली को तोड़ने में
सफल हुयी हो। तुम्हारी सफलता का शानदार जश्न इसलिए भी जरूरी है कि तुमने भारतीय समाज
में यह उपलब्धियां हासिल कीं हैं जिसमें लड़कियों को अपने समुचित स्थान के लिए लड़ना
पड़ता है। तुम हम सबके लिए प्रेरणा हो। लेकिन आज जब तुम्हें संकोच, नाराजगी
और अपमान की किंचित मिश्रित भावनाओं के साथ पद्म पुरस्कारों के लिए गुहार लगते सुना
तो कुछ अच्छा नहीं लगा। इसलिए नहीं कि तुम इनके योग्य नहीं हो । बेशक तुम्हारी उपलब्धियों
की तुलना पद्म से बेहतर और किस्से कर सकते हैं । आखिर इस कीचड़ जैसे समाज में तुम कमल
ही तो हो लेकिन मैं तुम्हें सूर्य के समान भारतीय टेनिस की पताका विश्व में फहराते
देखना चाहता हूँ और इसके लिए यह जरूरी है कि तुम भारतीय पुरस्कारों की राजनीति के कीचड़
से ऊपर उठ कर प्रशस्त आसमान में एक हंसिनी की तरह अपने डैनों की ताकत आज़माओ । पद्म
की तरह बस कीचड़ में खिलो भर मत, जकड़ी ना रहो उन गैर जिम्मेदार
परजीवियों कि गंदगी में जिन्होंने इन पुरस्कारों पद्म नहीं पंक बना दिया है ।ये पुरस्कार
तुम्हारी उपलब्धियों से कहीं छोटे हैं इसलिए मत गिड़गिड़ाओ इन क्षुद्र पुरस्कारों के
लिए । तुम पुरस्कारों से नहीं ये पुरस्कार तुमसे हैं । इस खेल राजनीति के पंक ने ना
जाने कितने पद्म लील लिए हैं ....तुम दूर रहो ...बस खेलो .....खिलौना ना बनो।
तुम्हारा प्रशंसक
अनुपम दीक्षित
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