विचार पक्षियों जैसे होते हैं। मस्तिष्क के विशाल और अनंत फलक पर वे बादलों की तरह अचानक आते हैं, आकृतियाँ बदलते हैं, पक्षियों की तरह मँडराते हैं और फिर दूर कहीं गुम हो जाते हैं। बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनियाँ मेरे आगे, होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे। इन्हीं तमाशों पर जो विचार आकार लेते हैं उन्हें पकड़ने का प्रयास है यह चिट्ठा। आपको अच्छा लगे तो एक लघु चिप्पी चस्पा करना ना भूलें।
21 दिस॰ 2011
19 दिस॰ 2011
अदम गोंडवी का जाना
साल 2011 न जाने क्यूँ जाते जाते कुछ ऐसे लोगों को ले जा रहा है कि लगता है बहुत अकेले हो जाएंगे आने वाले साल में। पहले बचपन के अंकल पै (टिंकल वाले - मेरी उम्र के नौजवान अभी भी शायद चकमक, डूब डूब और कालिया को नहीं भूले होंगे) फिर भोपेन हजारिका, जगजीत सिंह, देवानन्द और अब जमीनी शायर अदम। वक्त की पहचान जब साथ छोड़ने लगे तो समझना चाहिए कि अब वक्त बदलने का है। वक्त के बदलने का एहसास तो पहले भी था फिज़ाओं में जब अदीबों ने विचारधाराओं के अंत की घोषणा कर दी थी और जमीनी बात करने वाले को पूजीवादी गलियों (कम्युनिस्ट एक गाली है पूजीवादी दयारों में) से नवाजा जाने लगा था। ऐसे ही एक बेअदब जमीनी कवि थे अदम। दुष्यंत कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुये अदम्य जिजीविषा के धनी रामनाथ सिंह ने लोगों की असल बात कहने का जोखम उठाया था। उनके कुछ अशआर देखिये।
काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में .
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में.
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में.
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
ससद बदल गयी है यहाँ की नखास में.
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक विडम्बना है जो ऐसी रचनाएँ अभी तक समीचीन बनी हुयी हैं। व्यवस्था निरंतर जस की तस है और जनता त्रस्त है। क्या यह हमारे लिए या प्रेमचंद के लिए शर्म की बात नहीं है की होरी आज भी न केवल ज़िंदा है बल्कि उसके हालात पहले से भी गए बीते हैं। हम प्रगति और विकास की बात करते हैं लेकिन इस विकास का जमा हासिल आखिर क्या है? ज़रा गौर से देखिये कि अदम की दृष्टि वह देखती है जो आसानी से दिखता नहीं। कितना व्यंग्य और व्यथा है।
· इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
· जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में
· आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
· ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
और शहरों के इस उबाऊ अंधेर से घबरा कर ही शायद उनका यह शेर मुकम्मल हुआ होगा।
· ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
· न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी क़तारों में
· अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
और बेशक आपको बुरा लगे आखिर हम मध्यमवर्गीय लोगों के संस्कार तो हैं ही सामंतवादी - लेकिन फिर भी
· वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
· इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
पूंजीवाद का ढोल बज रहा है। आइरन हील शाश्वत चक्र की भांति मंथर गति से घूम रहा है और 2011 तेजी से 1984 की अवस्था में पहुँच रहा है (यहाँ में ऑस्कर वाइल्ड के प्रसिद्ध उपन्यास 1984 की बात कर रहा हूँ)। जमीनी बात करने वाले हाशिये पर हैं। भारत सुपर शक्ति बन गया है। अच्छी बात है। प्रोपेगैण्डा सही जा रहा है। भारत धनवान है। काले धन की सूची बताती है। भारत में संभावनाएं हैं यह करोड़ों की संपत्ति वाले चपरासियों और क्लर्कों से साबित हो रहा है। आंदोलन हो रहे हैं और सरकार कटघरे में है। मनरेगा और खासुबि भी चल रहे हैं लेकिन फिर भी सोचता हूँ की अब जमीनी लोगों की बात कौन कहेगा। इस डर्टी पिकचर के युग में, मुन्नी, शीला, राजा, कलमाड़ी के दौर में भला अब कौन मेरा ध्यान जब तब सच्चाईयों की जमीन तक मोड़ेगा? शायद तुमने सोचा होगा -
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए
(दुष्यंत कुमार)
5 दिस॰ 2011
ज़िंदगी से इश्क़ का फसाना - देव आनंद
88 वर्ष का यह पुराना शख्स निरंतर नवीनता कि खोज में लगा रहा। चाहे वह फिल्में हों, फिल्में बनाने का तरीका हो, हीरोइने हों या असल जिंदगी में उनकी प्रेमिकाएँ हों। सुरैया, कामिनी कौशल और ज़ीनत अमान के साथ उनके रोमांस के किस्से भी चले और यह सभी असफल प्रेम कहानियों कि परिणति को प्राप्त हुये। इन पर सोचते हुये उन्हें कहते सुना कि हार असल में ग्रोथ है। असफलता नए दरवाजे खोलती है और हर बार जब में हारा तो मुझे नया मुकाम मिला। ऐसे ही फलसफे का बयान है उनकी आत्मकथा "रोमांसिंग विथ लाइफ" जिसमें अनेक किस्से रोचक भी हैं। आज उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है वह शायद ही भर पाये। मन तो नहीं हुआ उनकी मौत पर दुखी होने का पर फिर भी
तो आइए अब से कुछ दिनों तक हम उनकी तरह ही इस ज़िंदगी का जश्न मनाएँ और इसके उन लम्हों को भरपूर जिएँ जो कि बस आज ही हैं - क्या पता कल हों न हों।
अंत में एक खूबसूरत गीत उन्हीं की फिल्म से।
1 दिस॰ 2011
30 नव॰ 2011
जय सोनिया मैया की !
वे भ्रष्टाचार पर अध्ययन करती रहीं हैं । हाल ही में उनकी रिसर्च से पता चला है की दरअसल भ्रष्टाचार प्लेग नामक बीमारी की तरह होता है। इसकी घोषणा उन्होंने युवा कांग्रेस सम्मेलन में की। उन्होंने इसे उखाड़ फैंकने की वैसी ही प्रतिबद्धता जाहिर की जैसी उनकी सासू माँ ने गरीबी को ले कर की थी। और देखिये आज देश के 58% सांसद करोड़पति हैं और सांसद चूंकि जनता के प्रतिनिधि होते है तो वे करोडपतियों के ही प्रतिनिधि तो हुये ना? सोनियाँ जी की रिसर्च के अनुसार जैसे प्लेग के कीटाणु चूहे के शरीर में रहते हुये भी चूहे को नुकसान नहीं पहुंचाते लेकिन उसके संपर्क में आने वाले मनुष्य को भयंकर कष्ट देते हैं ऐसे ही मंत्रियों, अधिकारियों और कर्मचारियों में बसने वाले भ्रष्टाचार के कीटाणु उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाते लेकिन उनके संपर्क में आने वाली जनता को बहुत दुख देते हैं। इसका इलाज वे खोज रहीं हैं। वैसे यह भी सही है की दोषी तो प्लेग का कीटाणु होता है न की चूहा। उसी तरह दोष तो भ्रष्टाचार का है न की मंत्री या अफसर का। सजा भ्रष्टाचार को दो भ्रष्टाचारी को नहीं। इसीलिए वे और राहुल बाबा हमेशा भ्रष्टाचार को कटघरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते और प्लेग कोई कानून बना कर तो ठीक होगा नहीं। रोग की सही जानकारी होना जरूरी है और इसी लिए सर्वज्ञानी सोनिया मैया का कहना है की भ्रष्टाचार के लिए सूचना का अधिकार ठीक है। इसी से तो पता लगता है की हाँ कोई नेता या अफसर भ्रष्टाचार के कीटाणु से पीड़ित है। यह डाइग्नोसिस है और कहते हैं न की रोग अगर पकड़ में आ जाए तो ठीक हो जाता है तो सूचना का अधिकार यही करता है। अब भला लोकपाल की यहाँ क्या जरूरत? यह भी कोई अच्छी बात है की पीड़ित को और पीड़ित किया जाए। टीम अन्ना तो असल में परपीड़ा में आनंद लेती है। जब यह पता चल गया है की किसी मंत्री में भ्रष्टाचार नामक रोग के कीटाणु हैं तो हमें उसके कीटाणु नष्ट करने का इलाज खोजना होगा और हम पिछले 60 वर्षों से यही शोध तो कर रहे हैं और इसीलिए तो इतने सालों से लोकपाल बिल लटका रखा है। यूपीए की मैया सोनिया जी ने तो अपनी सुविधाजनक कानून निर्मात्री मिनी विधायिका अर्थात राष्ट्रीय विकास परिषद में अन्ना जी से पहले लोकपाल बिल पर चर्चा की थी और जो सरकारी जोकपाल बिल था वह दरअसल इसी अध्ययन पर आधारित था वह तो बुरा हो अन्ना जी का की मुद्दा वे ले उड़े। सोनियाँ जी का तो हमें और अन्ना जी को शुक्रगुजार होना चाहिए की उन्हों ने जनलोकपाल आंदोलन में जो भूमिका विदेश जा कर निभाई है वह अतुलनीय है। आंदोलन को यहाँ तक पहुंचाने का श्रेय भी उन्हीं को है। भला अन्ना जी तिहाड़ में बैठ कर क्या कर लेते। यह तो सोनिया अरे रे रे रे राहुल बाबा का भला हो जो उन्होने अन्ना को तिहाड़ से छुड़वा दिया। बड़े लोग ऐसे ही होते हैं। जब चाहें किसी को बंद करा दें जब चाहें छोड़ दें। असल में असली प्लेग तो अन्ना जी हैं और हमें उनसे निपटने के तरीके खोजने चाहिए। भ्रष्टाचार तो एक शरमीले किस्म का प्लेग है। अंदर ही अंदर सक्रिय रहता है लेकिन अन्ना प्लेग तो बड़ी तेज़ी से फैलता है। इस प्रकार भ्रष्टाचार के मूल स्वरूप पर प्रकाश डाल कर उन्होंने देश पर एहसान किया है।
और अब सोनियाँ जी ने देश के 85% प्रतिशत किसानों पर जो एहसान किया है वह तो आहहा नारायण के पालनकर्ता के स्वरूप के समान ही है। सोचिए वाल मार्ट आयेगा। आसमान से उतरे दूत की तरह। वह किसानों के लिए सड़कें, कोल्ड स्टोरेज, परिवहन के साधन उपलब्ध कराएगा। फिर उनसे अधिक दामों पर सब्जियाँ, फल, दूध वगैरह खरीदेगा। अपने स्टोर में वह बेरोजगारों को अच्छी तनख्वाह पर नौकरी देगा और देश की जनता को पहले से कम दाम पर यह सब चीज़ें बेचेगा। ऐसा एहसान तो ईसा मसीह ने भी नहीं किया होगा। जो काम पिछले 60 वर्षों में हर तरह की सरकारें नहीं कर पाई वह एफ़डीआई के गलीचे पर सवार वालमार्ट कर देगा। तो क्यूँ ना हम इस बार चुनाव में वालमार्ट को ही चुन लें? नहीं। वालमार्ट तो सिर्फ एक जरिया है असल किरपा तो मैया की है ना! अरे एहसान फरामोश भूल गए उन सभी एहसानों को जो ऊपर गिनाए हैं। तुम्हें इसी लिए सोनियाँ मैया को ही चुनना होगा। नेहरू, इन्दिरा और राजीव जैसे बलिदानी और त्यागी परिवार के अलावा भला दुनियाँ में भारत की जनता के लिए विकल्प ही कहाँ हैं।
21 नव॰ 2011
माउण्टबेटन और मायावती
15 नव॰ 2011
किंगफिशर का अच्छा समय है यह
19 अग॰ 2011
अन्ना का आंदोलन
आज अभूतपूर्व दिन है। अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में हजारों लोग वंदेमातरम के नारे लगते हुये तिहाड़ जेल से मायापुरी चौराहे तक गए। इनके हाथों में बैनर तो थे लेकिन उस से ज्यादा तादाद में तिरंगे थे। लबों पर गलियाँ नहीं देशभक्ति के तराने थे, मुट्ठियाँ तनीं थीं लेकिन संकल्प से। आज से पहले वन्देमातरम विवादों का केंद्र था, आज से पहले देशभक्ति के तराने रस्मी हो चले थे और आज से पहले लोग धर्म, भाषा, प्रांत, जाति, वंश, वर्ग को भुला कर एक ही जगह इकट्ठे होते थे - क्रिकेट का स्टेडियम। आज से पहले लोग गांधी जी को मजबूरी का नाम बताते थे, स्कूलों में शिक्षक निबंध लिखवाते थे क्या गांधी जी 21वी सदी में प्रासंगिक हैं। आज से पहले हम निराश और हताश थे जब हमने देखा संसद में हमारे प्रतिनिधि हमारी भलाई के विषय में प्रश्न पूछने के बजाय कॉर्पोरेट हितों के लिए प्रश्न पूछते हैं और इसके एवज़ में पैसे लेते हैं, जब हमने जाना और देखा कि कैसे जरूरी मुद्दों पर संसद के अंदर मतदान को करोड़ों रुपये के काले धन से सांसदों को खरीदा गया, जब हमने देखा कि कैसे सभी राजनीतिक पार्टियां सिर्फ और सिर्फ पैसा बनाने के लिए ही बनीं हैं, जब हमने देखा कि देश को शर्मसार करते हुये कैसे कलमाड़ी और उसके गिरोह ने खुले आम लूट की, जब हमने देखा कैसे एक नाम का राजा देश के पैसे को दांव पर लगा कर सचमुच का राजा बन गया। और हमारा दिल हर बार टूटा था जब सरकार और हमारे तथाकथित प्रधानमंत्री जी हर मौके पर उन्हीं लोगों के साथ खड़े नज़र आए जो हमारे विरोध में थे। लेकिन आज कुछ बादल गया था। आज आशा की लहरें ज़ोर पकड़ रहीं थीं। आज हमने देख कि लोग खुद ब खुद अन्ना के समर्थन में जुड़ रहे थे और देशभक्ति के तराने गा रहे थे, तिरंगे फहरा रहे थे। ये लोग किसी प्री-पेड रैली का हिस्सा नहीं थे। इन्हें गाड़ियों में ढो कर नहीं लाया गया था। यह वोट बैंक नहीं थे। ये लोग आज़ाद देश के इतिहास में दूसरी बार इतनी बड़ी संख्या में एकत्रित हुये और दुनियाँ ने भी देखा और सराहा कि चार दिनों से हजारों लोग पूर्ण शांति से आंदोलन में शामिल है। अन्ना के मतवालों ने अचानक गांधी को प्रासंगिक बना दिया और तथाकथित गांधी परिवार को अप्रासंगिक। वर्षों से बिसर चुके रघुपति राघव राजा राम कि गूंज फिर सुनाई दी। देश के लिए जज़्बा फिर दिखाई दिया। अन्ना का आंदोलन सरकार को याद दिला गया कि इतिहास खुद को इसलिए दुहराता है क्यूंकी लोग इससे शिक्षा नहीं लेते। कपिल सिब्बल, कमलनाथ और चिदम्बरम ने हरवर्ड, स्टीफेंसन और ऑक्सफोर्ड में तो पढे हैं लेकिन जनता को पड़ना यहाँ नहीं सिखाया जाता। इसे सीखने के लिए तो गांधी जी ग्रामीण भारत की ओर गए थे तो अन्न स्वयं वहीं से आते हैं। कपिल सिब्बल चुनाव तो जीत सकते हैं पर जनता का दिल तो अन्ना ने ही जीता है। सरकार ने ठीक वही रणनीतिअपनाई जो अक्सर दमनकारी सारकरें अपनातीं है तो अन्ना ने भी गांधी जी के सबसे खतरनाक औज़ार को अपनाया - सविनय अवज्ञा। यह एक ऐसा हथियार है जो दमनकारी को हाशिये पर पहुंचा देता है। सरकार ने यदि अन्ना को पहले ही रामलीला मैदान दे दिया होता तो शायद बात इतनी ना बढ़ती लेकिन सरकार के दमनकारी कदम ने निश्चित ही अन्ना के आंदोलन का दायरा बढ़ा दिया और यह देश व्यापी हो गया।
यद्यपि अभी भी इस आंदोलन के स्वरूप और पहुँच व सरोकारों पर बहस हो सकती है कि यह आंदोलन क्या केवल शहरी माध्यम वर्ग का आंदोलन है,या फिर इसे जनांदोलन कहने कि बजाय मात्र भद्र समाज (सिविल सोसायटी) का आंदोलन कहा जाए। आपत्तियाँ कुछ और भी हैं जैसे कि यह आंदोलन मात्र उच्च जाति आंदोलन है और दलित वर्ग इसमें अपना हिस्सा नहीं देखता और बड़ा प्रश्न मुस्लिम वर्ग की अनुपस्थिती का भी है लेकिन फिर भी हम यह कह सकते हैं कि अपनी समस्त सीमाओं में यह आंदोलन निश्चित ही ऐसी घटना है जिससे भारत और भारतीयता मजबूत होगी और सांप्रदायिक ताक़तें कमजोर होंगी और जातिवाद पर आघात होगा। मिससे एक फायदा मुझे और भी दिख रहा है और वह यह कि यह भारतीय राजनीति के स्वरूप और दिशा पर गहरा असर डालेगा। जनता को जागरूकता की जिस घुट्टी और ट्रेनिंग की जरूरत थी वह इस आंदोलन ने उसे दी है। बेशक यह आंदोलन हो सकता है कुछ दिनों में ठंडा पड़ जाए लेकिंग जो आग दिलों भड़क चुकी है वह इतनी जल्दी बुझने वाली नहीं और यदि सरकार ने जल्दी ही ठोस कदम नहीं उठाए तो जनता जो अभी तक जुलूस कि शक्ल में थी अब दावानल बन कर लील जाएगी।
एक अन्य अहम प्रश्न इस आंदोलन के मुद्दे को ले कर भी है अर्थात जन लोकपाल। बेशक जन लोकपाल आज हमारी प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक हैऔर एक प्रभावी लोकपाल व्यवस्था में पारदर्शिता के अभाव को दूर कर सकेगा परंतु आवश्यकता इस बात कि भी है कि हम ऐसी व्यवस्था बना सकें कि लोकपाल एक सुपर पवार ना बन जाए।आप प्रधान मंत्री को लोकपाल के डायरे में लाएँ या न लाएँ पर संविधान में एक उपबंध तो यह भी होना चाहिए कि यदि प्रधानमंत्री या उनका कार्यालय अपने उत्तर दायित्व सही तरह से ना निभा पाये तो जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके। बेशक न्यायपालिका को आप बाहर रखिए पर यह एक विडम्बना ही है कि अन्ना के आंदोलन के बीच आज़ादी के बाद दूसरी बार एक न्यायाधीश को महाभियोग के द्वारा हटाया गया। इसलिए इस बात की भी आवश्यकता है कि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक प्रभावी न्यायिक आयोग का बिल भी साथ ही साथ लाया जाए। लोकपाल को सांसदों और नौकरशाहों के विरुद्ध अधिक प्रभावशाली होना ही पड़ेगा। यह ऐसे प्रश्न हैं जिंका हल ऐसे आंदोलनों से संभव नहीं है। सरकार के पास मौका था जब वह अन्ना के सहयोगियों से बात कर रहे थे। उस मौके को अब गंवा दिया गया है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब अन्ना आर पार कि लड़ाई लड़ रहे हैं। अन्ना को समझना होगा कि जनांदोलनों की एक सीमा होती है। कोई भी आंदोलन अनंत काल तक उतना ही स्फूर्त नहीं रह सकता जितना कि वह आरंभ में था। अतः अन्ना को इन्हीं 15 दिनों के अंदर ऐसा रास्ता निकालना होगा जो सरकार को भी मौका दे और जनता को भी। स्वयं गांधी जी ने भी यही रणनीति अपनाई थी संघर्ष-विराम-संघर्ष अन्यथा सरकार इस आंदोलन को भी टीवी आंदोलन प्रचारित कर पाने में सफल हो जाएगी और क्रांति फिर अधूरी रह जाएगी।
इस आंदोलन के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि यह कंस्ट्रक्टिव कनसेनसस की उपज है अर्थात मीडिया द्वारा उत्पन्न किया गया आंदोलन। हो सकता है कि इसमें सत्यता हो। हम सभी फेसबुक, ट्विटर और खबरिया चैनलों से ही ऊर्जा ले रहे हैं लेकिन यह भी सही है कि हर आंदोलन को विकसित होने में किसी न किसी मेडिया की जरूरत होती ही है। गांधी जी ने प्रिंट का प्रयोग किया था तो आज टीवी का हो रहा है। दूसरी बात यह है कि हर आंदोलन फसबुक पर ऐसे नहीं फैलता जैसे यह फ़ेल रहा है। इतना प्रचार फकेबुक पर पाने को आपको लाखों पैसे देने होंगे लेकिन यह लोक शक्ति ही है जो ऑनलाइन आंदोलन को ज़िंदा रहे है।
मेरा मानना हैं कि इस आंदोलन की संभावनाओं को उभारिए न कि उसे खारिज कीजिये क्यूंकी अगर ऐसा होगा तो यह देश के लिए ही बुरा होगा।
16 अग॰ 2011
अन्ना का आंदोलन, सरकारी दमन और संविधान
मैं 1975 में पैदा हुआ था और मैंने आज़ादी की लड़ाई को नहीं देखा पर इतिहास में पढ़ा था की कैसे गांधी जी के अहिंसक आंदोलनों ने अंग्रेजों को हर बार और गहरी मुसीबत में दाल दिया था। उस दौरान हमें ऐसे जुमले सुनाई देते थे “यह अधनंगा बुड्ढा” या फिर “सिरफिरा फकीर” या फिर “पागल आदमी”। ब्रिटिश सरकार के कारनामे भी भयानक थे। नेताओं को गिरफ्तार किया गया, आवाज़ दबाई गई। यह सब मैंने केवल पढ़ा ही था। आश्वस्त था की आज़ादी के बाद अब कभी ऐसे ज़ुल्म देखने को नहीं मिलेंगे और किसी की भी शांतिपूर्वक कही गयी बात को दबाया नहीं जाएगा। हमारा संविधान हमें कुछ मौलिक अधिकार देता है और इसके भाग 3 के पैरा नंबर 13(2) में यह साफ साफ कहा गया है कि -

और ठीक इसके बाद खंड 19 मुझे अधिकार देता है स्वतन्त्रता का जिसमें बहुत से अधिकार शामिल हैं ।
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5 अग॰ 2011
बोल.................. ..........कि लब आज़ाद हैं तेरे
3 जुल॰ 2011
9 जून 2011
सत्ता और शक्ति
इसमें वही बू है जो उपनिवेशवादी ब्रिटिश सत्ता की कार्यवाही में होता था। जलियाँवाला कांड की अनुगूँज यहाँ सुनाई देती है और शायद इस बार कांग्रेस सत्ता में आती है तो वोह दिन दूर नहीं लगता जब देश के पास एक और जलियाँवाला कांड होगा। इस बार तो शायद कोई गांधी भी नहीं होगा हमारे पास। एक ऐसे देश ने जिसने अपनी आज़ादी और संविधान को अहिंसा, अनशन और सत्याग्रह के रास्ते पाया था और संविधान ने भी इस रास्ते को सही मानते हुये इस प्रकार के प्रदर्शन की अनुमति दी है, सरकार की कार्यवाही ने संविधान के मूल ढाँचे पर ही कुठराघात किया है। उस पर प्रधानमंत्री का यह कहना की इस कार्यवाही का कोई विकल्प नहीं था। यदि किसी सरकार के पास अपने ही नागरिकों से आँसू गैस, लाठीबाजी दमन के जरिये निपटने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता तो हमें समझ लेना चाहिए की सरकार की मंशा खतरनाक है और वह एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लायक नहीं है क्यूंकी लोकतन्त्र में हमेशा शांतिपूर्ण विकल्प मौजूद रहते हैं और सरकार का काम उन्हीं विकल्पों को खोजना है न की रामलीला मैदान को थिएन अन मन चौक बनाने की योजनाएँ तैयार करना। जो हुआ वह संवैधानिक और नैतिक दृष्टि से नाजायज था। संविधान हमें भारत का नागरिक होने के नाते यह मौलिक अधिकार देता है की हम अपने असंतोष को शांतिपूर्ण तरीके से सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित कर सकते हैं। लेकिन सरकार ने लोगों के इसी मौलिक अधिकार पर आघात तो किया ही है साथ ही भारतीय लोकतंत्र की अंतर्राष्ट्रीय साख पर भी कलंक लगाया हैं।
बाबा का आंदोलन चाहे जो हो पर अंततः वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही था, और सरकार इसे अपने विरुद्ध मान बैठी। इससे यही सिद्ध होता है की सरकार और भ्रष्टाचार एक ही हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध हर आंदोलन सरकार को अपने विरुद्ध लगता है मतलब साफ है की चोर की दाड़ी में तिनका। यह ठीक है की बाबा की मांगें सरकारी दृष्टि से अव्यवहारिक हैं और विदेशों में रखी संपत्ति को राष्ट्रिय घोषित करना और उसे वापस लाना एक लंबी प्रक्रिया से ही संभव है पर सरकार इस पर ठोस कार्यवाही शुरू कर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध गंभीर होने का संदेश भेज सकती थी और सरकार ठीक यही करने में हर बार विफल रही फिर चाहे वह राष्ट्रमंडल खेल हों, 2जी घोटाला हो, अन्ना का अनशन हो या फिर बाबा का सत्याग्रह। हर बार सरकार की भ्रष्टाचार के विरुद्ध कदम उठाने में आनाकानी से जनता को यही संदेश गया है की दाल में बहुत कुछ काला है। शायद कपिल सिब्बल ब्रिग्रेड की सोच यही है की भारत में भ्रष्टाचार एक जीवन शैली बन चुका है और इस पर चलने वाले आंदोलन प्रभावहीन है लेकिन वे यह भूल जाते है की सत्य का एक विशिष्ट गुण है कि सत्य का पाखंड भी सत्य के करीब ले जाता है। लेकिन सिब्बल साहब शायद हिटलरी मुहावरे को पसंद करते हैं जो कहता है कि झूठ को सौ बार दुहराने पर वह सत्य प्रतीत होने लगता है। वे हर बार आरोपी का बचाव करते हैं, शगूफे छोड़ते हैं, मुद्दे से भटकने कि कोशिश करते हैं और प्रोपेगेंडा फैलाते हैं। पर सनद रहे की सत्य शाश्वत होता है और झूठ अल्पजीवी और सत्य यही है की सरकार की विश्वसनीयता घटी है।
21 अप्रैल 2011
31 मार्च 2011
24 मार्च 2011
लीबिया पर लिबलिबापन : महाशक्तियों का हलकापन
इसी प्रकार दूसरे विश्व युद्ध के मुख्य कारण के रूप में मंदी ही थी। पूरा यूरोप पहले महायुद्ध के बाद अचानक मांग में आयी गिरावट और उत्पादन की कमी से त्रस्त था और जब हिटलर ने जर्मनी को इस मंदी से उबारने की कोशिश की तो उसके तौर तरीके अतिवादी थे। अमरीकी और ब्रिटिश सरकारों ने अपने आर्थिक हितों के कारण हिटलर के सभी अमानवीय कार्यों को अनदेखा किया और परिणाम स्वरूप हिटलर एक टनशाह के रूप में उभरा। हिटलर को रोकने और अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही ब्रिटेन और अन्य राष्ट्रों ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध घोषित किया। इतिहास गवाह है की आज जो समृद्धि अमेरिका की दिखाई देती है उसका कारण याएह युद्ध ही हैं। अमरीका ने इन युद्धों में यूरोप के लिए बैंकर का काम किया और इन राष्ट्रों के पुनर्निर्माण के लिए ज़बरदस्त पैसा न केवल यूरोपीय सरकारों को दिया बल्कि अमेरिकी कंपनियों ने यूरोप में सभी प्रकार के उत्पादों की सप्लाई भी की। कहने की ज़रूरत नहीं है की इसने अमेरिकी समृद्धि के द्वार खोल दिये और जब युद्ध खत्म हुआ तब तक अमेरिका एक महा शक्ति बन चुका था। दूसरी ओर यूरोप में युद्ध को खतम करने असली श्रेय रूस को है जिसने इस युद्ध में सबसे ज्यादा हानी उठाई। पश्चिमी देशों ने हिटलर को रूस के विरुद्ध खड़ा किया था लेकिन वह भस्मासुर की भाँति विकसित हुआ। युद्ध के खात्मे के बाद सुनहरे आर्थिक दिन खत्म होने को थे। अमेरिका की शक्ति को रूस से लगातार चुनौती मिल रही थी और मंदी के पुनः छा जाने का खतरा था। ऐसे में युद्ध के बाद एक और युद्ध शुरू हुआ जिसे लोग शीत युद्ध के नाम से जानते हैं। मेरा मानना है की युद्ध असल में कभी खत्म ही नहीं हुआ था। शीत युद्ध दूसरे महायुद्ध का ही एक और रूप था। शीतयुद्ध ने पूरी दुनियाँ को दोनों महाशक्तियों की स्पर्धा का अखाड़ा बना दिया।
1946-1954 First Indochina War (also known as the French Indochina War)
1947 – USA in Greek Civil War
1948 – Israel War of Independence (also known as the Arab-Israeli War) till now (active participation of USA, France and UK)
1950-1953 Korean War (Active role of USA)
1954-1962 French-Algerian War
1955-1972 First Sudanese Civil War
1956 Suez Crisis (France/UK/USA)
1959 Cuban Revolution
1959-1973 Vietnam War
1979-1989 Soviet-Afghan War (USSR/USA)
1980-1988 Iran-Iraq War (USA/USSR)
1990-1991 Gulf War (USA)
1991-1995 Third Balkan War (NATO/USA)
2003 – Invasion of Iraq
2004 – War on terror – Afghanistan and Iraq
2004 Ivorian War (France)
2004 – Somalia war
1991 – till now Chechen war
ऊपर की लिस्ट से आपको अंदाज़ा हो गया होगा की युद्ध कभी रुका नहीं है बस इसका स्वरोपोप और स्थान बदलता रहा है। नीचे दिये चित्र में आप यह भी देखिये की आजकल विश्व में कहाँ कहाँ युद्ध चल रहा है।
इस चित्र के नीले रंग वाले स्थान युद्धरत क्षेत्र हैं। गौर कीजिये यूएसए निरापद है लेकिन विश्व के लगभग हर युद्ध में उसका सीधा या अप्रत्यक्ष हाथ है। युद्ध पूंजीवाद का इंजन है यह मेरी प्रस्थापना है। तो ज़रा सांसें थम कर बैठिए और देखिये की कोरिया, ईरान, सीरिया, लीबिया, सूडान, तंजानिया, चेचन्या, मेक्सिको, कश्मीर का एक एक कर नंबर आता जाएगा। आज सबसे महत्व का मुद्दा तेल है, कल पानी होगा (इस पर रिसर्च शुरू हो गए हैं की विश्व में कैसे साफ पानी की किल्लत होती जा रही है और ये रिसर्च संस्थाएं हम जैसे देशों को सुझाव दे रहीं हैं की साफ पानी पर टैक्स लगाने और उसे बेचने की जरूरत है। इसके बाद बारी आएगी अनाज की। पिछले वर्षों में हम अनाज की कमी के शगूफे और औसके प्रभाव में बड़ी कीमतों को आज भी झेल रहे हैं। ऐसे ही नए मुद्दे खड़े होते रहेंगे और युद्ध होते रहेंगे। निरीह मरते रहेंगे और मुट्ठीभर लोग इससे पैसे कमाते रहेंगे। इंजन चलता रहेगा आइरन हील (यदि अपने न पढ़ा हो तो जरूर पढ़ें जैक लंदन का उपन्यास आइरन हील) घूमता रहेगा।
चोरी चोरी - चुपके चुपके - गजनी
बौलीवुड की प्रेरणा - चोरी से (प्रेरित व्यक्ति प्रेरणा के स्रोत के बारे में बताता है पर चोर नहीं)
पसंद अपनी अपनी है भाई बिलकुल गजनी
19 मार्च 2011
17 मार्च 2011
15 मार्च 2011
प्रकृति का जयनाद
महाकवि जयशंकर प्रसाद की अमर कृति “कामायनी” की यही पंक्तियाँ याद आयी जब मैंने जापान के तट बांधों पर प्रलय सिंधु का प्रचंड प्रवाह देखा। यह प्रवाह केवल लहरों का प्रवाह ही नहीं था बल्कि इसमें मनुष्य के अनंत दुष्कार्यों के प्रति घृणा की भावना भी निहित थी।सुनामी से बचने के लिए तटीय शहरों के समुद्री किनारों पर जो तटबंध बनाए गए थे उन्हें हमने उद्दाम लहरों के दुर्दमनीय प्रवाह में बहते देखा, शहरों की सड़कों को खाइयों में बदलते देखा। इतने क्रोध में थीं ये लहरें की जहाजों को शहरों के बीच खड़ा कर दिया और कारों को मकानों के ऊपर चढ़ा दिया, गगनचुम्बी इमारतें अब धराशाही हो चुकी थीं और सब ओर बस प्रलय का तांडव था। लगता था जैसे यह प्रकृति का जयघोष है।
6 मार्च 2011
28 फ़र॰ 2011
21 फ़र॰ 2011
टीपू के रोकेट और अमेरिकी राष्ट्रगान – ऊंची उड़ान
