लोकतन्त्र की हत्या हो जाती है जब "संसद" में लफ़्फ़ाजियाँ चलें, और बिल सदन के बाहर से तय होकर कानून बन जाएँ। लोकतन्त्र तब भी नहीं रहता जब सत्ता के लिए अनाप शनाप पैसा और अनर्गल प्रलाप किए जाएँ। लोकतन्त्र तब भी दम तोड़ देता है जब प्रेस जनता के साथ की बजाए किसी दल का भौंपू बन जाता है। लोकतन्त्र में मतभिन्नता की जगह है लेकिन भिन्नमति की नहीं । हम अलोकतंत्र में रहते हैं ।
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