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गांधी जी ने जब से भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन का नेतृत्व संभाला, उनसे लोगों
की अपेक्षाएँ भी बढ़ गईं थीं। यह स्वाभाविक ही था क्यूंकी ब्रिटिश राज के अंतहीन निराशा
में डूबे दिनों में एक गांधी जी ही थे जिनमें लोगों को आशा की किरण दिखाई देती थी।
उनके अबूझ तरीकों से विरोध होते हुये भी राजनीतिक वर्ग उनके पीछे चलता रहा। यही गांधी
जी के तौर तरीकों की खासियत थी की वे विरोधी और समर्थकों दोनों से अपनी बात मनवा ही
लेते थे यद्यपि कभी कभी पूरी तरह से नहीं। गांधी जी की इसी ताकत के भरोसे लोगों ने
यह कहना शुरू कर दिया था कि गांधी जी क्रांतिकारियों की फांसी को बचा लेंगे। उनके लिए
यह दुश्वारी नहीं होगी। आखिर जब साम्राज्य का वाइसराय बराबरी पर बात करने को उतर आया
तो क्या वह उनकी बात नहीं मानेगा? लोगों को निराशा हुयी जब इरविन
और क्रांतिकारियों दोनों ने फांसी माफी से मना कर दिया। भगत सिंह ने असेंबली में बम
पूरी समझ के साथ फैका था और पकड़े गए थे। रही बची कसर अदालत में बम दर्शन पढ़ कर पूरी
कर दी थी। यह बलिदान था। गांधी जी के भरोसे किया गया अपराध नहीं। लोग भावुक होते हैं
इसलिए चाहते थे कि भारत माँ के वीर सपूत ज़िंदा रहें। वे गांधी जी से निराश हो गए। गांधी
जी जहां आशा की किरण थे वहीं क्रांतिकारी खीज और निराशा के प्रति गुस्से की अभिव्यक्ति
लेकिन दोनों ने ही जनता को अन्याय के सामने ना झुकना सिखाया। दोनों ने दिलों से अंग्रेजों
का डर दूर कर दिया। आज़ादी के बाद जनता के एक बड़े वर्ग में बहुत सी बातें गलतफहमियों
के रूप में प्रचलित रहीं हैं जिनमें पाकिस्तान को 50 लाख रुपये देना और भगत सिंह को
ना बचाना मुख्य हैं। इसी वर्ष एक सुभाष चन्द्र बोस की गुप्तचर सेवा के अधिकारी कि डायरी
पर आधारित पुस्तक में 7 ऐसे पत्र हैं जिन्हें गांधी जी ने ब्रिटिश हुकूमत को लिखा था।
इनमें भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए ) के उन 4 स्वयंसेवकों की रिहाई और फांसी माफी
की प्रार्थना की गयी है। अंततः उन्हें रिहा कर दिया गया था। इनमें श्री हरिदास मित्रा
भी थे जो बंगाल के प्रमुख नेता अमित मित्रा के पिता थे। शायद गांधी जी से खफा लोगों
के जले दिल पर कुछ पानी पड़ा हो। साथ ही बोस के साथ उनके सम्बन्धों को लेकर विचलित बंगाली
मानस भी राहत महसूस करे। इतिहास तो तथ्य बताता है। आप उसे कैसे समझते हैं यह आपकी समझ
पर निर्भर है।
(खबर साभार TOI कोलकाता 2 फरवरी 2014 ऑनलाइन)
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