13 जून 2025

एक कप इतिहास: चाय की प्याली में छुपे किस्से

लेखक: अनुपम दीक्षित


“ज़रा एक कप चाय बना देना।” शायद ये भारतीय गृहस्थ जीवन की सबसे सामान्य मगर सबसे गहरी पंक्ति है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस उबलते पानी, अदरक और पत्तियों के घोल के पीछे एक पूरी सभ्यता की कहानी छुपी है?

आज हम एक साधारण कप चाय के साथ चलेंगे इतिहास की गलियों में — पत्तियों की सुगंध से होते हुए, युद्धों, व्यापार, औपनिवेशिक साजिशों और सांस्कृतिक बदलावों तक।

☯️ चाय: कहां से आई ये पत्ती?

चाय की शुरुआत चीन से मानी जाती है। एक पौराणिक कथा कहती है कि 2737 ईसा पूर्व चीन के सम्राट शेन नुंग पानी उबाल कर पीने के पक्षधर थे। एक दिन जब उनके लिए पानी उबाला जा रहा था, तभी कुछ पत्तियां उड़कर पानी में गिर गईं। पानी का रंग बदल गया, और जब सम्राट ने उसे चखा — यह थी इतिहास की पहली चाय की चुस्की । 

🇬🇧 कैथरीन, चाय और इंग्लैंड में इसकी एंट्री

चाय ने इंग्लैंड की धरती पर पहली बार 1662 में कदम रखा, जब ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रगेंज़ा से हुआ। कैथरीन अपने साथ चाय की परंपरा और पत्तियों का खज़ाना लेकर आईं। वे खुद चाय की दीवानी थीं और इंग्लैंड के शाही दरबार इस तरह शुरू हुई ब्रिटेन की सांस्कृतिक पहचान “आफ्टरनून टी” 

🌍 जब चाय ने दुनिया घूमी

बौद्ध भिक्षुओं के साथ चाय का स्वाद धीरे-धीरे जापान, तिब्बत, और मंगोलिया पहुंचा। बौद्ध भिक्षुओं ने ध्यान के दौरान जगने के लिए चाय पीने की परंपरा शुरू की। चाय अब सिर्फ स्वाद नहीं थी, बल्कि साधना बन गई थी। और फिर यूरोप, खासकर ब्रिटेन, ने इस कड़क पेय को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया। भारत और अमेरिका ने भी चाय को अपनाया और इस तरह चाय दुनियाँ का पेय बन गई 

☠️ चाय, तस्करी और अफीम युद्ध

चाय ने चीन-ब्रिटेन संबंधों में जहर घोल दिया। चीन से चाय, पोर्सलीन और रेशम  यूरोप आता था लेकिन यूरोप के पास कुछ नहीं था जो वह चीन को इसके बदले दे सके इसलिए चीन केवल चाँदी के बदले इन चीज़ों को बेचता था, जो ब्रिटेन के लिए घाटे का सौदा था। इसका जवाब मिला उन्हें  अफीम में । ब्रिटिश भारत में अफीम उगाई गई और चीन को बेची गई, जिससे वहाँ नशाखोरी बढ़ी और चीन में असंतोष फैला। नतीजा — 1839 में पहला अफीम युद्ध। चाय को लेकर एक और अफ़ीम युद्ध लड़ा गया और चीन ने अपनी आज़ादी खो दी । 

🇺🇸 चाय की बग़ावत: बॉस्टन टी पार्टी

1773 में अमेरिका की धरती पर चाय क्रांति का कारण भी बनी। जब अंग्रेजों ने अमेरिका पर भारी चाय कर लगाया, तो बोस्टन के नागरिकों ने इसका विरोध करते हुए ब्रिटिश जहाज पर लदी चाय की पेटियाँ समंदर में फेंक दीं। यह घटना "बॉस्टन टी पार्टी" कहलाती है और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी बन गई।

🇮🇳 भारत में चाय की बगान और बग़ावत

19वीं सदी में अंग्रेजों ने भारत में चाय उगाने का निर्णय लिया — खासतौर से असम, दार्जिलिंग और नीलगिरि में। जबरन मजदूरी, जंगलों की कटाई और आदिवासी जीवनशैली का हनन हुआ।इसका परिणाम अहोम विद्रोह , ख़ासी विद्रोह , नागा विद्रोह ,कूकी संघर्ष जैसे विद्रोहों में हुआ । गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन (नमक आंदोलन) के दौरान नागालैंड की किशोरी गाइडिनल्यू ने जो शौर्य दिखाया उससे प्रभावित हो कर नेहरू जी ने उसे “रानी” गाइडिनल्यू कहा । 

 शुरुआत में भारतीयों को चाय कुछ ख़ास पसंद नहीं थी, पर बाद में अंग्रेजों ने Indian Tea Association के ज़रिए चाय का प्रचार शुरू किया — रेलवे स्टेशनों, मिलों और स्कूलों में चाय फ्री में बाँटी गई।

🫖 भारतीय पहचान में घुली चाय

अब चाय भारत की पहचान बन चुकी है। रेलवे स्टेशन की सीटी, कुल्हड़ की गर्मी, अदरक-इलायची की खुशबू और गली के नुक्कड़ पर चाय वाला — ये सब मिलकर एक सांस्कृतिक दस्तावेज हैं। चाय अब सिर्फ एक पेय नहीं — एक भावना है।

🏭महलों से चायख़ानों तक - चाय-सुट्टा ब्रेक

भारत में चाय की बाग़वानी शुरू होते ही ब्रिटेन में चाय सस्ती होने लगी। कामगारों को कारख़ानों की लंबी पालियों में जगाये रखने के लिए चाय अवकाश दिये गये और इस तरह शुरू हुई आज के ऑफिसों की चाय-सुट्टा ब्रेक की परंपरा । 

✊🏽क्रांतियों का ईंधन - बुद्धिजीवियों का शग़ल 

बीसवीं शताब्दी में चाय बुद्धिजीवियों का पेय बना और चायखाने बन गये क्रांतिकारियों के अड्डे। भारत से ले कर सोवियत संघ तक और क्यूबा से क्योटो तक चाय ने अपना एक नया रूप ले लिया -प्रगतिशील , जागरूक और अधिकारों का प्रतीक । 

आज दुनियाँ में चाय , पानी के बाद सबसे अधिक पिया जाने पेय है ।तो अगली बार जब आप एक कप चाय पीएं, तो ध्यान रहे  — आपकी चाय सिर्फ दूध-पत्ती-चीनी का मिश्रण ही नहीं है, बल्कि पूरी दुनियाँ का इतिहास समेटे है । 


1 अप्रैल 2021

शहीदों के हत्यारे

शहीदों के हत्यारे - प्रकाश के रे की कलम से 
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शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के बाद आंदोलन को धोखा देनेवालों, जेल के अधिकारियों तथा रात के अँधेरे में शहीदों के शव को जलानेवाले पुलिस अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार ने बड़े-बड़े ईनाम दिए थे. इन क्रांतिकारियों के निकट सहयोगी रहे हंसराज वोहरा की कहानी तो लोग जानते ही हैं कि इनकी गवाही शहीदों के फ़ाँसी का सबसे बड़ा आधार बनी थी. वोहरा ने आर्थिक लाभ लेने के बजाय लंदन में पढ़ाई का ख़र्च पंजाब सरकार से लिया. वापसी में सरकारी अधिकारी बने, फिर लाहौर के एक अख़बार के संवाददाता बने और बाद में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अमेरिका में संवाददाता हुए. कई दशक बाद उन्होंने राजगुरु के भाई को पत्र में अपनी सफ़ाई देने की कोशिश की, पर यह भी लिखा कि वह दौर उन्हें आक्रांत करता है और उनकी इच्छा है कि लोग उन्हें बिसार दें. 

क्रांतिकारी से सरकारी गवाह बने जयगोपाल को बीस हज़ार रुपए मिले, जबकि दो अन्य गवाहों (ये भी क्रांतिकारी रहे थे)- फणीन्द्र घोष और मनमोहन बनर्जी को बिहार के चंपारण में पचास-पचास एकड़ ज़मीन मिली. विभिन्न ओहदों के जेल अधिकारियों- एफ़ए बारकर, एनआर पुरी और पीडी चोपड़ा को प्रोन्नति और मेडल हासिल हुए. फ़ाँसी देखकर रोनेवाले जेल उपाधीक्षक अकबर खान को पहले निलंबित किया गया, खान बहादुर की पदवी छीनी गयी, लेकिन बाद में नौकरी पर रख लिया गया. 

लाहौर षड्यंत्र केस के जाँच अधिकारी शेख़ अब्दुल अज़ीज़ को विशेष प्रोन्नति मिली. ये सारी जानकारियाँ देते हुए पंजाब के पुलिस अधिकारी आरके कौशिक ने कुछ साल पहले के एक लेख में बताया है कि अज़ीज़ का मामला दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत का अकेला मामला है, जिसमें हेड कान्स्टेबल के रूप में भर्ती हुआ आदमी डीआइजी होकर सेवानिवृत्त हुआ था. अज़ीज़ के बेटे को उसी साल डीएसपी भी बना दिया गया था. इसके अलावा उसे पचास एकड़ ज़मीन भी मिली थी. 

लाहौर के एसएसपी हैमिल्टन हार्डिंग को भी पुरस्कार मिला. शहीदों के शव को जलानेवाले अधिकारी सुदर्शन सिंह, अमर सिंह और जेआर मॉरिस तथा इस काम में शामिल तमाम पुलिसकर्मियों को भी प्रोमोशन और पुरस्कार मिले. लाहौर व कसूर के प्रशासनिक अधिकारियों- पंडित श्री किशन, शेख़ अब्दुल हामिद और लाला नाथू राम- को भी ओहदे और मेडल मिले.  

अब फ़ाँसी देनेवाले जल्लादों को क्या कोसना! उन्हें तब भी और अब भी बहुत मामूली रक़म मिलती है. बहरहाल, कौशिक साहब ने बताया है कि शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के जल्लाद काला मसीह के बेटे तारा मसीह ने बहुत सालों बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फ़ाँसी दी थी.

27 अप्रैल 2019

भगत सिंह भी परेशान थे गोदी मिडिया से

सा लगता है कि २०१४ के बाद भारत में न्यूज़ चैनलों के पास सिवाय मोदी के भजन गाने के और कोई मुद्दा , खबर या स्टोरी नहीं है . लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है की यह मिडिया कलियुग २०१४ के बाद आया है और उससे पहले मिडिया का सतयुग था . रविश कुमार और सहयोगियों को यही लगता है  लेकिन रवीश भी असल में गोदी मिडिया ही हैं बस अंतर इतना है की गोदी मोदी विरोधी की है . उनके उठाये गए मुद्दे वाजिब हैं लेकिन उनका लहजा पत्रकार का नहीं "विपक्ष" का अधिक है . मिडिया आजकल ही बिकाऊ हो गयी है ऐसा नहीं है . यह तो अपने जन्म से ही बिकाऊ थी . लोकतंत्र से चौथे स्तम्भ के का दर्जा मिलने से इसे एक पवित्र दर्जा मिल भले ही गया लेकिन इसका चरित्र तो गोदी वाला ही था .दरअसल पत्रकारिता व्यवसाय ही ऐसा है की उससे निष्पक्षता की अपेक्षा करना ज्यादती है क्योंकि आखिर तो वह एक व्यवसाय ही है ना ? लेखन कला के आरम्भ से ही , लेखन का प्रोपेगैडा में बखूबी इस्तेमाल होने लगा था . लेखन कला का पहला विस्तृत अभिलेख " हम्मुराबी संहिता " भी दरअसल राजकीय प्रोपेगैंडा का हिस्सा था . इस अभिलेख में ईराक क्षेत्र के राजा ने आज से करीब ५००० साल पहले राज्य के सामान्य कानूनों को लिपिबद्ध करके सार्वजानिक रूप से राजा की प्रशंशा के साथ छपवा दिया था . 

अशोक के अभिलेख तो राजकीय प्रचार अभियान का ज़बरदस्त उदाहरण हैं जिनमें स्वयं अशोक खुद को देवताओं का प्रिय और सुन्दर दिखने वाला घोषित कर देता है (देवानं प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक ) और जनता को तरह तरह से आश्वस्त , शिक्षित और आदेश देता हुआ अशोक को अंततः लगभग अवतार सिद्ध कर देता है .अशोक द्वारा रौंदे गए कलिंग में अशोक की दम्भपूर्ण आवाज़ कलिग के अभिलेखों में  पुचकारने वाली आवाज़ बन जाती है . 

अशोक के बाद कलिंग नरेश खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख में तो खारवेल की प्रशंसा में प्रयुक्त शब्द देखने लायक हैं . इसमें लिख है की खारवेल ने मगध को रौंद दिया और अपने हाथी घोड़ों को गंगा में स्नान करवाया , मगध के राजा को घुटने टेकने पर मजबूर कर उसे राज्य के खेतों को गधों से जुतवाया. तमिल प्रदेश में जीत दर्ज की. खारवेल  प्रशस्ति भी तो गोदी मिडिया ही है. 

आगे फिर आपको समुद्रगुप्त मिलते हैं जिनके युद्ध मत्री ने ही प्रशस्ति लिखने का जिम्मा संभाला था और समुद्रगुप्त की प्रशंसा में एक विशाल अभिलेख प्रयाग में अशोक के ही स्तम्भ पर अंकित करवाया था . हरिशेण अपने स्वामी की प्रशंसा बेहद जोरदार तरीके से करता है - कुछ वैसे ही जैसे अंजना ओम कश्यप (आज तक) और सरदाना (आज तक ) करते हैं . ज़रा गौर फरमाइए - "वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, बाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी… अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी’ । (दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है) वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था. उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है . उसे  ‘परमभागवत’ अर्थात स्वयं ईश्वर - विष्णु कहते थे । ‘विश्व में कौन-सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है’. 


अब इसे उन सभी इंटरव्यू से मिला कर देखिये जो मोदी ने पिछले पांच वर्षों में दिए हैं - आपको कुछ नया नहीं लगेगा .


अब ज़रा यहाँ भी देखिये कि भगत सिंह इस बारे क्या कहते हैं . यह उद्धरण उनके 1928 के लेख से है - 


"यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।" अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?"

तो गोदी हमेशा से थी और रहेगी . रविश भी उतने ही गोदी प्रेमी हैं जितने रोहित सरदाना . न वे क्रन्तिकारी हैं और न ये .


7 दिस॰ 2018

अंबेडकर भारत नहीं पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य थे

जब कांग्रेस से संविधान सभा के लिए अंबेडकर न चुने जा सके तब अविभाजित बंगाल में दलित-मुस्लिम एकता के आर्किटेक्ट जोगेंद्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से संविधान सभा में पहुंचाया.

यह जानना आपको दिलचस्प लगेगा कि जिस आंबेडकर को आज हम जानते हैं वह मुस्लिम लीग की देन हैं ।

लीग ने ही अंबेडकर के समाप्त होते राजनीतिक कैरियर को पुनर्स्थापित किया

मंडल कांग्रेस को सांम्प्रदायिक मानते थे और जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष विचारों को पसंद करते थे इसलिए मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

वो मानते थे कि सांप्रदायिक कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी. वो जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के बड़े प्रशंसक थे और अनुसूचित जातियों के सरपरस्त के रूप में उन्हें गांधी और नेहरू की तुलना में कहीं ऊपर आंकते थे।

इसलिए मंडल भारत से पलायन कर न केवल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने बल्कि वो इसके जनकों में से एक थे.वो पाकिस्तान की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे वाले हिंदू थे और मुस्लिम बहुल वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के अकेले पैरोकार.

हालांकि, जिन्ना की मौत के बाद उनके सपने कुचले गए. तत्कालीन पाकिस्तान ने उन्हें गलत साबित कर दिया।

अंबेडकर ने राजनीतिक फायदे के लिए और कांग्रेस की राजनीति को नाकाम करने के लिए मंडल की सहायता से अवसर का फायदा उठाया और बंगाल के चार जिलों से वोट ले कर वे संविधान सभा के लिए चुन लिए गये।

लेकिन एक खास परिस्थिति के चलते फिर उनके प्रयास को धक्का पहुंचा। विभाजन की योजना के तहत इस पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाए और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए. जिन चार ज़िलों- जस्सोर, खुलना, बोरीसाल और फरीदपुर- से गांधी और कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए वहां हिंदुओं की आबादी 71% थी. मतलब, इन सभी चार ज़िलों को भारत में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने शायद आंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया.

इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.

पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे.

जब यह स्पष्ट हो गया कि आंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.

बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम. आर. जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया था जिनकी जगह को जी. वी. मावलंकर ने भरा. मंसूबा था कि उन्हें (मावलंकर को) तब संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे।

(यह लेख  बी बीबीसी हिंदी से लिया गया है )

12 नव॰ 2018

हिन्दुस्तान के ठग

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3 अक्टू॰ 2018

भगत सिंह ने की थी अपने पिता की गद्दार से तुलना - जानिए क्यों ?

२ अक्तूबर आते ही सोशल मीडिया पर गाँधी को लेकर बहुत सी गलत बातें फैलने लगती हैं . इनमें एक मुद्दा है भगत सिंह की फांसी का . गाँधी जी के प्रति घृणा का प्रदर्शन करते हुए कहा जाता है कि उनहोंने भगत सिंह को फांसी से नहीं बचाया क्योंकि गाँधी जी तब वायसराय इरविन से नमक आन्दोलन के बाद बातचीत कर रहे थे और उन्होंने कई कैदियों को रिहा भी कराया था . आइये जानें की सत्यता क्या है . 

भगत सिंह को गिरफ्तार क्यों किया गया और फांसी क्यों दी गयी :

भगत सिंह क्रन्तिकारी थे . वे भारत को हिंसक तरीकों का प्रयोग करके ब्रिटिश सरकार को डरा कर भारत को स्वतंत्रता दिलवाने में भरोसा रखते थे . साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए लाला लाजपत राय को लाठी चार्ज में चोटें आयीं थीं और भगत सिंह व साथियों ने ब्रिटिश सरकार से इसका बदला लेने के लिए पुलिस कप्तान स्कॉट की हत्या की योजना बनायी लेकिन नौसिखिये साथियों और हड़बड़ी में गलती से एक अन्य पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गयी . पुलिस ने दबिश दे कर भगत सिंह के अनेक साथियों को पकड़ लिया . इधर साइमन कमीशन के वादों पर जब राष्ट्रीय नेता बहस कर रहे थे तभी सरकार ने पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल असेब्मली में पेश  किए . ये दोनों बिल दरअसल बढती क्रन्तिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए थे. असेम्बली के अधिकांश भारतीय सदस्य इस बिल का विरोध कर रहे थे लेकिन वायसराय ने इसे अपने विशेषाधिकार से पारित कर सकते थे . भगत सिंह और साथियों ने तय किया कि उदारवादी राजनीती और सरकार के कानून का विरोध करने और क्रांतिकारियों की बात को कहने के लिए जिस समय ये कानून पारित हों उसी समय असेम्बली में बम का धमाका किया जाये . इसका उद्देश्य जान लेना नहीं था . भगत सिंह की योजना में यह भी शामिल था कि वे लोग गिरफ़्तारी का विरोध नहीं करेंगे  और अपना बयान जज के सामने प्रेस की उपस्थिति में देंगे . बम फैंकने के साथ ही उनहोंने एक परचा भी फैंका था जो इस तरह था -

सूचना
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है,” प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं.....आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं,विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। 
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं। हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है। (https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1929/mein-feinka.htm). 



पुलिस ने भगत सिंह को गिरफ्तार किया तब सरदार सर सोभा सिंह वहां मौजूद थे और पुलिस ने उनके हवाले भगत सिंह के वहां होने की चश्मदीद गवाही शामिल की हैं . असेम्बली के अध्यक्ष श्री विट्ठल भाई पटेल थे जो पहले भारतीय अध्यक्ष थे . वे सरदार पटेल के भाई थे . isl

पुलिस ने असेम्बली बम कांड के साथ ही भगत सिंह और साथियों पर "लाहौर षड़यंत्र केस " भी चलाया . भगत सिंह के पकडे गए साथी गोपाल ने सांडर्स की हत्या में भगत सिंह का नाम ले दिया था . इसके साथ ही अन्य क्रांतिकारियों के नाम भी दे दिए थे. भगत सिंह को फांसी असेम्बली में बम फैंकने से नहीं बल्कि लाहौर षड़यंत्र केस में उनके "क्रन्तिकारी " साथियों की गद्दारी के कारण  मिली थी. 

गाँधी इरविन समझौता
यह वह घटना है जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन या नमक आन्दोलन की सफलता ने गाँधी जी को निर्विवाद नेता स्थापित कर दिया था और देश के कोने कोने में गाँधी के इस आन्दोलन की धमक सुनाई दी थी. इसकी लोकप्रियता से मजबूर हो कर सरकार ने गाँधी से बातचीत का रास्ता निकला . गाँधी जी भी राजी हो गए . वार्ता हुयी और शर्तों में अनेक बातें शामिल हुयी जिन्स्में राजनितिक बंदियों को छोड़ने की बात भी शामिल थी . अनेक कैदियों को रिहा कर दिया गया लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को छोड़ने से इरविन ने यह कह कर इनकार कर दिया की वे राजनितिक बंदी नहीं हत्यारोपी हैं .

 गाँधी जी का पक्ष : गाँधी जी ने खुद लिखा है - 'भगत सिंह की बहादुरी के लिए मेरे  मन में सम्मान है. लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं. उनहोंने कहा कि सरकार गंभीर रूप से उकसा रही है कि हम समझौते से पीछे हट जाएँ लेकिन समझौते की शर्तों में फांसी रोकना शामिल नहीं था. इसलिए इससे पीछे हटना ठीक नहीं है. "भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है. ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य ज़ाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता. सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं. 

"मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने समझाया , मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी. वो मैंने इस्तेमाल की. 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी." पाठकों को सनद रहे की भगत सिंह और साथियों को २३ की रात को फांसी दी गयी. 

भगत सिंह की फांसी के बाद गाँधी ने  कहा - भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके न्याय और प्रचार हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे." 

यह सही है की गाँधी जी जिस स्थिति में थे वे वायसराय पर अधिक दबाव बना सकते थे लेकिन फिर खुद गाँधी जी ही कहाँ रह जाते अगर वे हिंसा के प्रश्न को अनदेखा करते . उनहोंने असहयोग आन्दोलन हिंसा के कारण  ही वापस ले लिया था .  

भगत सिंह की प्रतिक्रिया : 
अब यह भी जान लें की भगत सिंह क्या सोचते थे अपनी फांसी के बारे में . 

जेल में जब एक पंजाबी नेता ने भगत सिंह से पुछा की उनहोंने अपना बचाव क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था  "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं.

"भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को पत्र लिखा और कहा कि मेरे बेटे का जोन सोंडर की हत्या में कोई हाथ नहीं है और वो निर्दोष है. तब भगत सिंह ने उन्हें बेहद सख्त भाषा में जो पत्र लिखा था वह शब्शः आपके सामने रख रहा हूँ . जो लोग भगत सिंह की फांसी माफ़ करने को लेकर गाँधी जी को कोसते हैं , भगत सिंह ने उन्हें गद्दार कहा होता.

(यह पत्र यहाँ से लिया गया है https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1930/pitaji-ke-nam-patra.htm)


"मैं ये बात जानकर हैरान हूं कि आपने मेरे बचाव के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को अर्जी दी है।आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूँ लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूँ कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था। आप जानते थे कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं। मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतन्त्रतापूर्वक काम करता रहा हूँ। मुझे यकीन है कि आपको यह बात याद होगी कि आप आरम्भ से ही मुझसे यह बात मनवा लेने की कोशिशें करते रहे हैं कि मैं अपना मुकदमा संजीदगी से लड़ूँ और अपना बचाव ठीक से प्रस्तुत करूँ लेकिन आपको यह भी मालूम है कि मैं सदा इसका विरोध करता रहा हूँ। मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा प्रकट नहीं की और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया है।
आप जानते हैं कि हम एक निश्चित नीति के अनुसार मुकदमा लड़ रहे हैं। मेरा हर कदम इस नीति, मेरे सिद्धान्तों और हमारे कार्यक्रम के अनुरूप होना चाहिए। आज स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं लेकिन अगर स्थितियाँ इससे कुछ और भी अलग होतीं तो भी मैं अन्तिम व्यक्ति होता जो बचाव प्रस्तुत करता। इस पूरे मुकदमे में मेरे सामने एक ही विचार था और वह यह कि हमारे विरुद्ध जो संगीन आरोप लगाये गए हैं, बावजूद उनके हम पूर्णतया इस सम्बन्ध में अवहेलना का व्यवहार करें। मेरा नजरिया यह रहा है कि सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ऐसी स्थितियों में उपेक्षा दिखानी चाहिए और उनको जो भी कठोरतम सजा दी जाए, वह उन्हें हँसते-हँसते बर्दाश्त करनी चाहिए। इस पूरे मुकदमे के दौरान हमारी योजना इसी सिद्धान्त के अनुरूप रही है। हम ऐसा करने में सफल हुए या नहीं, यह फैसला करना मेरा काम नहीं। हम खुदगर्जी को त्यागकर अपना काम कर रहे हैं।मेरी ज़िन्दगी इतनी कीमती नहीं जितनी कि आप सोचते हैं। कम-से-कम मेरे लिए तो इस जीवन की इतनी कीमत नहीं कि इसे सिद्धान्तों को कुर्बान करके बचाया जाए। मेरे अलावा मेरे और साथी भी हैं जिनके मुकदमे इतने ही संगीन हैं जितना कि मेरा मुकदमा। हमने एक संयुक्त योजना अपनायी है और उस योजना पर हम अन्तिम समय तक डटे रहेंगे। हमें इस बात की कोई परवाह नहीं कि हमें व्यक्तिगत रूप में इस बात के लिए कितना मूल्य चुकाना पड़ेगा।पिता जी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे भय है,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निन्दा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जायें। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा। यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके सन्दर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है- निचले स्तर की कमजोरी।यह एक ऐसा समय था जब हम सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं, जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है। मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई, यह बात मैं समझ नहीं सकता। 


पुलिस ने असेम्बली बम के साथ ही सांडर्स की हत्या का आरोपी बना कर भी चार्जशीट दाखिल की . उन्हें मौत की सजा सुनाई गयी . 

जो लोग गाँधी को कोसते हैं बेशक कोसें लेकिन भगत सिंह की माफ़ी के लिए ना कोसें . भगत सिंह बिलकुल नहीं चाहते थे की उन्हें फांसी से बचाया जाए . ये शहादत थी - एक ऊँचे दर्जे की शहादत . इसे इस तरह नीचा ना बनाईये .


18 नव॰ 2016

लाइनों में देश

सरकार का तर्क : ऐसा होना ही था । इसके लिए गोपनियता जरूरी थी । सारी तैयारी थी । पर्याप्त कैश है । व्यवस्था दुरुस्त है ।
असल हालत : ऐसी खबरें हैं कि चुनिन्दा लोगों को कदम के बारे में जानकारी थी । सरकार ने पिछले नौ दिनों में 7 बार नियम बदले हैं जिससे यही संकेत मिलता है कि तैयारी पूरी नहीं थी । बैंक समान्यतः 10 बजे खुलते हैं , 11 बजे तक कामकाज शुरू हो पाता है और 3 या 4 बजे तक कैश खत्म हो जाता है । इस बीच औसतन 100 लोगों का ही काम हो पाता है । इसका अर्थ है कि कैश पर्याप्त नहीं है । और व्यवस्था का आलम यह है कि घोषणा करने के 4 दिन बाद आर्थिक सचिव को बैंकिंग मित्रों का प्रयोग करने की याद आई
क्या किया जाना चाहिए था : यह ठीक है की गोपनियता आवश्यक थी लेकिन यह देखना भी जरूरी था कि जब 85% प्रचलित मुद्रा समाप्त हो जाएगी तब उससे निबटने के लिए कैसे कदम उठये जाएंगे । पर्याप्त मात्र में नोटों की छ्पाई, उन्हें वितरित करने का तंत्र, मशीनों और सोफ्टवेयरों का अपडेटिकरण, ग्रामीण क्षेत्रों में कैश वितरण व्यवस्था जैसी समस्याओं के बारे में भी विचार आवश्यक था।
·         इसके लिए अच्छी पृष्ठभूमि वाले काबिल अफसरों के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स बनाई जा सकती थी जिनमें बैंकिंग, वित्त, कृषि, उद्द्योग और सूचना के क्षेत्रों में काम कर चुके विशेषज्ञ अफसर होते । इस फोर्स को गोपनीयता के निर्देश दिये जा सकते थे ।  
·         बैंकों के दायरे को ग्रामीण क्षेत्रों में महीनों पहले बढ़ाना शुरू किया जा सकता था । ग्रामों में कई गांवों के बीच एक या दो बैंक होते हैं । इस स्थिति में पहले सुधार होता और तब यह कदम उठाया जाता।
·         नए नोट जब डिजायन किए जा रहे थे तब उसके आकार को ऐसा रखा जा सकता था जो पुराने एटीएम में ही फिट हो सकते और स्कैनर सेंसर भी उन्हें पहचान पाते तो बड़ी समस्या हल हो जाती ।
·         नोटों के वितरण के हर संभव चैनल को पहचान लेना चाहिए था और प्रधान मंत्री की घोषणा के साथ ही रेडियो, टीवी से विस्तृत दिशा निर्देश जारी करने चाहिए थे । जबकि हुआ उल्टा । प्रधानमंत्री जी खुद आए , घोषणा की और जापान चले गए। कोई अधिकारी संचार माध्यमों पर अगले दो दिनों तक नहीं आया । वित्त मंत्री आए भी तो सभी आरोपों को खारिज करते नज़र आए। जब स्थिति विस्फोटक हुयी तो प्रधानमंत्री राजनीतिक भाषण देते हुये गोवा में रोने लगे । राजनीति करने की जगह तुरंत मीटिंग करके हालत का जायजा लेना चाहिए था।  
·         बैंकों के लिए दिशनिर्देश पहले से तैयार रहने चाहिए थे । घोषणा होते ही बैंकों को स्पष्ट दिशनिर्देश डिस्प्ले करने कि व्यवस्था करें को कहा जा सकता था ।

विमौद्रिकरण अच्छा है या बुरा इसपर बहस हो सकती है । यह अच्छा कदम भी हो सकता है लेकिन इसे बहुत बुरी तरह से अंजाम दिया गया है । 

17 नव॰ 2016

एक शहर जो भविष्य को खा रहा है।


दिल्ली मुझे डराता है ।
यहाँ इतिहास कोने में सिमटा सहमा है 
वर्तमान धुएँ को फँकता , गहमा है 
भविष्य यहाँ खाँसता , धुआँ फाँकता 
फुटपाथ पर भीख मांगता ,चार्जर और चीप साहित्य बेचता 
रेलों में सुबह शाम बस्ता ले कर दौड़ता
अपने दिन गिन रहा है ।
दिल्ली मुझे डराता है  ।

दिल्ली में आने वाले
बिहार, उड़ीसा, मेघालय, नागालैंड के परवासी 

पिघल कर बन जाते हैं एक दिल्लीवाले 
चालाक, जुगाडु, स्वार्थी, अंधे, क्रूर
बीतती है जिनकी ज़िंदगी
नौ से पाँच ,
सुबह शाम सड़कों पर
रेडियो जौकी की अनवरत रटंत के बीच ।

जिंदगी गुजरती है यहाँ रेल की तरह
घर एक बर्थ है - बस सोने के लिए
वे जीते हैं जिंदगी 
दूसरों के लिए
 -----नहीं यह मानवता नहीं, गुलामी है 
जिंदगी बंधुआ है उनके ऑफिसों में
घर बस एक बर्थ है उनके लिए ।

दिल्ली की सुबह है किसी स्टेशन की तरह 
हर कोई कहीं जाने की जुगाड़ में है 
लेकिन पहुंचता कहीं नहीं 

दिल्ली पर शाम किसी मरघट की तरह उतरती है
और गिद्ध बैठ जाते हैं इंतज़ार में
रात श्मशान की तरह सूनी है 


दिल्ली मुझे डराती है 


16 नव॰ 2016

सक्षम नेता अक्षम तंत्र

मोदी जी ने राष्ट्रव्यापी ऑपरेशन तो कर दिया जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं । इतने साहसिक कदम के लिए जिस तरह की राजनीतिक इच्छाशक्ति और समर्थन की आवश्यकता होती है वह उनके पास है । वे अपनी आर्थिक दृष्टि का परिचय गुजरात के दिनों में दे चुके हैं जिसे गुजरात मॉडल माना जाता है । गुजरात में रहते हुये जिस प्रशासनिक दक्षता का उनहोनने परिचय दिया था वह सरहनीय है। इसीलिए जब 8 नवंबर की रात उन्होंने इस भीषण निर्णय की घोषणा की थी तब चौंकने के अलावा पीछे कहीं यह आश्वासन भी था की वे दक्ष प्रशासक हैं और कार्यपालिका के निर्देश के लिए उसके पीछे खड़े रहेंगे। लेकिन अपनी आर्थिक घोषणा की तरह ही वे सबको चकित करते हुये जापान चले गए तब जबकि देश को उनकी और उनके मार्गदर्शन की सबसे अधिक जरूरत थी। यही नहीं जब जनता में अफरा तफरी फैली और लंबी लाइनें लगने लगीं तब उनका जापान से मज़ाक के मूड में आया वीडियो जले पर नमक छिड़कने जैसा था । जब जनता मोदी मोदी करते हुये उनसे अक्षम नौकरशाही को दिशा देने की अपेकक्षा कर रही थी तब वे मज़ाक कर रहे थे की कांग्रेस ने चवन्नी बंद की थी हमने 1000 बंद किए जिसकी जैसे हैसियत । ऐसे मज़ाक फेसबुक पर तो अच्छे लगते हैं लेकिन गंभीर और जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग अगर इस स्तर तक उतर आयें तो आसंवेदनशीलता प्रकट होती है । भारत लौटने पर जब उन्हें स्थिति की गंभीरता का एहसास हुआ होगा तो उनके आँसू निकल आए जिसे हम सबने उनकी गोवा रैली में भी देखा । स्वाभाविक है की जब आप इतना बड़ा कदम उठाएँ और वह फ़ेल होता नज़र आए तब आँसू निकालना वाजिब है । इन आंसुओं ने बेशक हमें यह दिखाया की हमारे प्रधानमंत्री उतने असंवेदनशील सनहीन है जीतने जापान से दिखरहे थे । प्रधानमंत्री क भी लगा की अब तो इस काम की योजना बनाना जरूरी है । यह साबरमती के घाट बनवाने जैसा काम नहीं था जिसमें बिना योजना के काम चल जाता । यहाँ तो 125 करोड़ प्यारे देशवासियों की बात थी । इसलिए रातों को भी ना सोने वाले और बिना छुट्टी के काम करने वाले पालनहार मोदी जी ने आधीरात को मीटिंग बुलाई वह भी 6 दिन बाद  । हालांकि यह मीटिंग अगर वे उसी दिन सुबह या दोपहर में बुलाते तो अगले दिन तक जनता में इसके कदमों की खबर पहुँच जाती । खैर उनकी कामकाजी शैली है । 6 दिन बाद की गयी इस मीटिंग के बाद जो सामने आया वह इस बात की पुष्टि करता था की हमारे देश की जनता बिलकुल किसी फौज की तरह इस निर्णय को मानने के लिए तैयार थी लेकिन सरकार के पास तैयारी नहीं थी । आर्थिक सचिव कहते नज़र आये की टास्क फोर्स बनाया "जाएगा", माइक्रो एटीएम लगाए "जाएंगे" इत्यादि । 6 दिन बाद भविष्य की प्लानिंग ? तब तक 16 लोग अपनी ज़िंदगी से हाथ धो चुके थे , कारोबार ठप्प हो चुका था , जनता काम धाम छोड़ कर लाइनों में थी। पहले की डेड लाइनें बढ़ायी जाने लगीं, और मोदी जी 50 दिन का समय मांगते नज़र आए । 50 दिन बाद सपनों के भारत का वादा भी किया और रोये भी । अपनी कुर्बानियों का भी हवाला दिया । हर प्रकार से जनता को आश्वस्त करते नज़र आए । अगले दिन गाजीपुर कि रैली में उनके भाषण में फिर तेज था हालांकि उनकी रैली में जो भीड़ थी पता नहीं उसे अपने नोट बदलवाने की चिंता क्यूँ नहीं थी । शायद उसे नए नोटों में पेमैंट मिल चुका था इसीलिए वह दुगने जोश से जादू के खेल की तरह ताली बजते नज़र आए और मोदी जी भी पूरे जादूगर । वे बार बार  कह रहे थे -- एक बार फिर ताली बजाईए" और तालियाँ बज रहीं थीं । लेकिन इस तालियों की गड़गड़ाहट के पीछे देश की जनता त्राहिमाम कर रही थी । वे क्रूर हो गए । काला धन वाले नींद की गोलियां ले रहे हैं और गरीब जनता आराम से सो रही है । शायद ताली बजने वालों को इकट्ठा करने वाले उनके दरबारियों ने उन्हें नहीं दिखाया कि गरीब सो नहीं रहा लाइन में खड़ा है और भविष्य को ले कर परेशान है। जबकि काला धन वाले अपने पैसे को ठिकाने लगा चुके हैं । खुद मोदी जी ने विदेशों में संपत्ति खरीदने, सोना खरीदने, निवेश करने और कंपनियाँ खोलने के मामलों में, धन  को आसान शर्तों पर विदेश भेजने की सीमा 3 साल पहले की 60000 डॉलर से बढ़ा कर 2 लाख डॉलर कर दी है जिससे 4 लाख करोड़ रु से अधिक धन बाहर गया है । सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों का 1.14 लाख करोड़ लोन अब  बट्टे खाते में हैं जिसे माफ कर दिया गया है । यादव सिंह जैसों तक पर भी कार्यवाही नहीं हुयी है । ऐसी भी घटनाएँ हैं कि बीजेपी के खातों में घोषणा से ठीक पहले करोड़ों जमा हुये थे । पार्टीसीपेटारी नोट और हवाला पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी है । काला धन रखने वालों की जानकारी भी सरकार के पास है लेकिन इन पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी है । राजनीतिक पार्टियां के चंदे पर भी कोई कदम नहीं है । कम से कम मोदी जी बीजेपी को ही सूचना कानून के दायरे में ले आते । लेकिन यह उनके लिए कठिन है । क्योकि 2 वर्ष के कार्यकाल देखते हुये यही लगता है कि वह बेचारे सरकार और पार्टी में अकेले हैं । विदेश मंत्री होते हुये भी सभी तरह के कम काज और यहाँ तक कि घोषणाएँ भी वे खुद करते हैं । वित्त मंत्री के होते हुये भी यह काम भी खुद ही करते हैं । सरकार में केवल वही हैं जिनके बारे में यह सुनाई देता है कि वे दिन रात काम में जुटे हैं । तभी वे छुट्टी नहीं ले पाते । बिना ठीक से आराम किए थकान के कारण भी आपके निर्णय लेने कि क्षमता पर असर पड़ता है । लेकिन मोदी जी बचपन से खतरों के खिलाड़ी रहे हैं । जहां माँ भारती के सपूत भरत , सिंह से खेलते थे तो मोदी घड़ियाल से । शायद आँसू इसी ट्रेनिग का नतीजा हैं ।