दुनियाँ मेरे आगे
विचार पक्षियों जैसे होते हैं। मस्तिष्क के विशाल और अनंत फलक पर वे बादलों की तरह अचानक आते हैं, आकृतियाँ बदलते हैं, पक्षियों की तरह मँडराते हैं और फिर दूर कहीं गुम हो जाते हैं। बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनियाँ मेरे आगे, होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे। इन्हीं तमाशों पर जो विचार आकार लेते हैं उन्हें पकड़ने का प्रयास है यह चिट्ठा। आपको अच्छा लगे तो एक लघु चिप्पी चस्पा करना ना भूलें।
1 अप्रैल 2021
शहीदों के हत्यारे
27 अप्रैल 2019
भगत सिंह भी परेशान थे गोदी मिडिया से
ऐसा लगता है कि २०१४ के बाद भारत में न्यूज़ चैनलों के पास सिवाय मोदी के भजन गाने के और कोई मुद्दा , खबर या स्टोरी नहीं है . लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है की यह मिडिया कलियुग २०१४ के बाद आया है और उससे पहले मिडिया का सतयुग था . रविश कुमार और सहयोगियों को यही लगता है लेकिन रवीश भी असल में गोदी मिडिया ही हैं बस अंतर इतना है की गोदी मोदी विरोधी की है . उनके उठाये गए मुद्दे वाजिब हैं लेकिन उनका लहजा पत्रकार का नहीं "विपक्ष" का अधिक है . मिडिया आजकल ही बिकाऊ हो गयी है ऐसा नहीं है . यह तो अपने जन्म से ही बिकाऊ थी . लोकतंत्र से चौथे स्तम्भ के का दर्जा मिलने से इसे एक पवित्र दर्जा मिल भले ही गया लेकिन इसका चरित्र तो गोदी वाला ही था .दरअसल पत्रकारिता व्यवसाय ही ऐसा है की उससे निष्पक्षता की अपेक्षा करना ज्यादती है क्योंकि आखिर तो वह एक व्यवसाय ही है ना ? लेखन कला के आरम्भ से ही , लेखन का प्रोपेगैडा में बखूबी इस्तेमाल होने लगा था . लेखन कला का पहला विस्तृत अभिलेख " हम्मुराबी संहिता " भी दरअसल राजकीय प्रोपेगैंडा का हिस्सा था . इस अभिलेख में ईराक क्षेत्र के राजा ने आज से करीब ५००० साल पहले राज्य के सामान्य कानूनों को लिपिबद्ध करके सार्वजानिक रूप से राजा की प्रशंशा के साथ छपवा दिया था .
अशोक के अभिलेख तो राजकीय प्रचार अभियान का ज़बरदस्त उदाहरण हैं जिनमें स्वयं अशोक खुद को देवताओं का प्रिय और सुन्दर दिखने वाला घोषित कर देता है (देवानं प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक ) और जनता को तरह तरह से आश्वस्त , शिक्षित और आदेश देता हुआ अशोक को अंततः लगभग अवतार सिद्ध कर देता है .अशोक द्वारा रौंदे गए कलिंग में अशोक की दम्भपूर्ण आवाज़ कलिग के अभिलेखों में पुचकारने वाली आवाज़ बन जाती है .
अशोक के बाद कलिंग नरेश खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख में तो खारवेल की प्रशंसा में प्रयुक्त शब्द देखने लायक हैं . इसमें लिख है की खारवेल ने मगध को रौंद दिया और अपने हाथी घोड़ों को गंगा में स्नान करवाया , मगध के राजा को घुटने टेकने पर मजबूर कर उसे राज्य के खेतों को गधों से जुतवाया. तमिल प्रदेश में जीत दर्ज की. खारवेल प्रशस्ति भी तो गोदी मिडिया ही है.
आगे फिर आपको समुद्रगुप्त मिलते हैं जिनके युद्ध मत्री ने ही प्रशस्ति लिखने का जिम्मा संभाला था और समुद्रगुप्त की प्रशंसा में एक विशाल अभिलेख प्रयाग में अशोक के ही स्तम्भ पर अंकित करवाया था . हरिशेण अपने स्वामी की प्रशंसा बेहद जोरदार तरीके से करता है - कुछ वैसे ही जैसे अंजना ओम कश्यप (आज तक) और सरदाना (आज तक ) करते हैं . ज़रा गौर फरमाइए - "वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, बाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी… अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी’ । (दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है) वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था. उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है . उसे ‘परमभागवत’ अर्थात स्वयं ईश्वर - विष्णु कहते थे । ‘विश्व में कौन-सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है’.
अब इसे उन सभी इंटरव्यू से मिला कर देखिये जो मोदी ने पिछले पांच वर्षों में दिए हैं - आपको कुछ नया नहीं लगेगा .
अब ज़रा यहाँ भी देखिये कि भगत सिंह इस बारे क्या कहते हैं . यह उद्धरण उनके 1928 के लेख से है -
"यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।" अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?"
तो गोदी हमेशा से थी और रहेगी . रविश भी उतने ही गोदी प्रेमी हैं जितने रोहित सरदाना . न वे क्रन्तिकारी हैं और न ये .
7 दिस॰ 2018
अंबेडकर भारत नहीं पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य थे
जब कांग्रेस से संविधान सभा के लिए अंबेडकर न चुने जा सके तब अविभाजित बंगाल में दलित-मुस्लिम एकता के आर्किटेक्ट जोगेंद्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से संविधान सभा में पहुंचाया.
यह जानना आपको दिलचस्प लगेगा कि जिस आंबेडकर को आज हम जानते हैं वह मुस्लिम लीग की देन हैं ।
लीग ने ही अंबेडकर के समाप्त होते राजनीतिक कैरियर को पुनर्स्थापित किया ।
मंडल कांग्रेस को सांम्प्रदायिक मानते थे और जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष विचारों को पसंद करते थे इसलिए मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।
वो मानते थे कि सांप्रदायिक कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी. वो जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के बड़े प्रशंसक थे और अनुसूचित जातियों के सरपरस्त के रूप में उन्हें गांधी और नेहरू की तुलना में कहीं ऊपर आंकते थे।
इसलिए मंडल भारत से पलायन कर न केवल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने बल्कि वो इसके जनकों में से एक थे.वो पाकिस्तान की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे वाले हिंदू थे और मुस्लिम बहुल वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के अकेले पैरोकार.
हालांकि, जिन्ना की मौत के बाद उनके सपने कुचले गए. तत्कालीन पाकिस्तान ने उन्हें गलत साबित कर दिया।
अंबेडकर ने राजनीतिक फायदे के लिए और कांग्रेस की राजनीति को नाकाम करने के लिए मंडल की सहायता से अवसर का फायदा उठाया और बंगाल के चार जिलों से वोट ले कर वे संविधान सभा के लिए चुन लिए गये।
लेकिन एक खास परिस्थिति के चलते फिर उनके प्रयास को धक्का पहुंचा। विभाजन की योजना के तहत इस पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाए और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए. जिन चार ज़िलों- जस्सोर, खुलना, बोरीसाल और फरीदपुर- से गांधी और कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए वहां हिंदुओं की आबादी 71% थी. मतलब, इन सभी चार ज़िलों को भारत में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने शायद आंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया.
इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.
पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे.
जब यह स्पष्ट हो गया कि आंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.
बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम. आर. जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया था जिनकी जगह को जी. वी. मावलंकर ने भरा. मंसूबा था कि उन्हें (मावलंकर को) तब संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे।
(यह लेख बी बीबीसी हिंदी से लिया गया है )
12 नव॰ 2018
हिन्दुस्तान के ठग
3 अक्तू॰ 2018
भगत सिंह ने की थी अपने पिता की गद्दार से तुलना - जानिए क्यों ?
भगत सिंह को गिरफ्तार क्यों किया गया और फांसी क्यों दी गयी :
भगत सिंह क्रन्तिकारी थे . वे भारत को हिंसक तरीकों का प्रयोग करके ब्रिटिश सरकार को डरा कर भारत को स्वतंत्रता दिलवाने में भरोसा रखते थे . साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए लाला लाजपत राय को लाठी चार्ज में चोटें आयीं थीं और भगत सिंह व साथियों ने ब्रिटिश सरकार से इसका बदला लेने के लिए पुलिस कप्तान स्कॉट की हत्या की योजना बनायी लेकिन नौसिखिये साथियों और हड़बड़ी में गलती से एक अन्य पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गयी . पुलिस ने दबिश दे कर भगत सिंह के अनेक साथियों को पकड़ लिया . इधर साइमन कमीशन के वादों पर जब राष्ट्रीय नेता बहस कर रहे थे तभी सरकार ने पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल असेब्मली में पेश किए . ये दोनों बिल दरअसल बढती क्रन्तिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए थे. असेम्बली के अधिकांश भारतीय सदस्य इस बिल का विरोध कर रहे थे लेकिन वायसराय ने इसे अपने विशेषाधिकार से पारित कर सकते थे . भगत सिंह और साथियों ने तय किया कि उदारवादी राजनीती और सरकार के कानून का विरोध करने और क्रांतिकारियों की बात को कहने के लिए जिस समय ये कानून पारित हों उसी समय असेम्बली में बम का धमाका किया जाये . इसका उद्देश्य जान लेना नहीं था . भगत सिंह की योजना में यह भी शामिल था कि वे लोग गिरफ़्तारी का विरोध नहीं करेंगे और अपना बयान जज के सामने प्रेस की उपस्थिति में देंगे . बम फैंकने के साथ ही उनहोंने एक परचा भी फैंका था जो इस तरह था -
सूचना
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है,” प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं.....आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं,विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं। हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है। (https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1929/mein-feinka.htm).
पुलिस ने असेम्बली बम कांड के साथ ही भगत सिंह और साथियों पर "लाहौर षड़यंत्र केस " भी चलाया . भगत सिंह के पकडे गए साथी गोपाल ने सांडर्स की हत्या में भगत सिंह का नाम ले दिया था . इसके साथ ही अन्य क्रांतिकारियों के नाम भी दे दिए थे. भगत सिंह को फांसी असेम्बली में बम फैंकने से नहीं बल्कि लाहौर षड़यंत्र केस में उनके "क्रन्तिकारी " साथियों की गद्दारी के कारण मिली थी.
गाँधी इरविन समझौता :
यह वह घटना है जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन या नमक आन्दोलन की सफलता ने गाँधी जी को निर्विवाद नेता स्थापित कर दिया था और देश के कोने कोने में गाँधी के इस आन्दोलन की धमक सुनाई दी थी. इसकी लोकप्रियता से मजबूर हो कर सरकार ने गाँधी से बातचीत का रास्ता निकला . गाँधी जी भी राजी हो गए . वार्ता हुयी और शर्तों में अनेक बातें शामिल हुयी जिन्स्में राजनितिक बंदियों को छोड़ने की बात भी शामिल थी . अनेक कैदियों को रिहा कर दिया गया लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को छोड़ने से इरविन ने यह कह कर इनकार कर दिया की वे राजनितिक बंदी नहीं हत्यारोपी हैं .
गाँधी जी का पक्ष : गाँधी जी ने खुद लिखा है - 'भगत सिंह की बहादुरी के लिए मेरे मन में सम्मान है. लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं. उनहोंने कहा कि सरकार गंभीर रूप से उकसा रही है कि हम समझौते से पीछे हट जाएँ लेकिन समझौते की शर्तों में फांसी रोकना शामिल नहीं था. इसलिए इससे पीछे हटना ठीक नहीं है. "भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है. ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य ज़ाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता. सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं.
"मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने समझाया , मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी. वो मैंने इस्तेमाल की. 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी." पाठकों को सनद रहे की भगत सिंह और साथियों को २३ की रात को फांसी दी गयी.
भगत सिंह की फांसी के बाद गाँधी ने कहा - भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके न्याय और प्रचार हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे."
यह सही है की गाँधी जी जिस स्थिति में थे वे वायसराय पर अधिक दबाव बना सकते थे लेकिन फिर खुद गाँधी जी ही कहाँ रह जाते अगर वे हिंसा के प्रश्न को अनदेखा करते . उनहोंने असहयोग आन्दोलन हिंसा के कारण ही वापस ले लिया था .
भगत सिंह की प्रतिक्रिया :
अब यह भी जान लें की भगत सिंह क्या सोचते थे अपनी फांसी के बारे में .
जेल में जब एक पंजाबी नेता ने भगत सिंह से पुछा की उनहोंने अपना बचाव क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं.
"भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को पत्र लिखा और कहा कि मेरे बेटे का जोन सोंडर की हत्या में कोई हाथ नहीं है और वो निर्दोष है. तब भगत सिंह ने उन्हें बेहद सख्त भाषा में जो पत्र लिखा था वह शब्शः आपके सामने रख रहा हूँ . जो लोग भगत सिंह की फांसी माफ़ करने को लेकर गाँधी जी को कोसते हैं , भगत सिंह ने उन्हें गद्दार कहा होता.
(यह पत्र यहाँ से लिया गया है https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1930/pitaji-ke-nam-patra.htm)
पुलिस ने असेम्बली बम के साथ ही सांडर्स की हत्या का आरोपी बना कर भी चार्जशीट दाखिल की . उन्हें मौत की सजा सुनाई गयी .
जो लोग गाँधी को कोसते हैं बेशक कोसें लेकिन भगत सिंह की माफ़ी के लिए ना कोसें . भगत सिंह बिलकुल नहीं चाहते थे की उन्हें फांसी से बचाया जाए . ये शहादत थी - एक ऊँचे दर्जे की शहादत . इसे इस तरह नीचा ना बनाईये .
18 नव॰ 2016
लाइनों में देश
17 नव॰ 2016
एक शहर जो भविष्य को खा रहा है।
दिल्ली मुझे डराता है ।
यहाँ इतिहास कोने में सिमटा सहमा है
वर्तमान धुएँ को फँकता , गहमा है
भविष्य यहाँ खाँसता , धुआँ फाँकता
फुटपाथ पर भीख मांगता ,चार्जर और चीप साहित्य बेचता
रेलों में सुबह शाम बस्ता ले कर दौड़ता
अपने दिन गिन रहा है ।
दिल्ली मुझे डराता है ।
दिल्ली में आने वाले
बिहार, उड़ीसा, मेघालय, नागालैंड के परवासी
पिघल कर बन जाते हैं एक दिल्लीवाले
चालाक, जुगाडु, स्वार्थी, अंधे, क्रूर
बीतती है जिनकी ज़िंदगी
नौ से पाँच ,
सुबह शाम सड़कों पर
रेडियो जौकी की अनवरत रटंत के बीच ।
जिंदगी गुजरती है यहाँ रेल की तरह
घर एक बर्थ है - बस सोने के लिए
वे जीते हैं जिंदगी दूसरों के लिए
-----नहीं यह मानवता नहीं, गुलामी है
जिंदगी बंधुआ है उनके ऑफिसों में
घर बस एक बर्थ है उनके लिए ।
दिल्ली की सुबह है किसी स्टेशन की तरह
हर कोई कहीं जाने की जुगाड़ में है
लेकिन पहुंचता कहीं नहीं
दिल्ली पर शाम किसी मरघट की तरह उतरती है
और गिद्ध बैठ जाते हैं इंतज़ार में
रात श्मशान की तरह सूनी है
दिल्ली मुझे डराती है