25 जुल॰ 2014

Clueless First post with eyeless writers

Clueless First post with eyeless writers

फर्स्ट पोस्ट में छपे लेख की प्रतिक्रिया

लेख पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें
http://www.firstpost.com/world/eyeless-gaza-clueless-india-shouldnt-care-1632867.html

1-First, the current Palestinian troubles are self-inflicted, as there is no point in provoking Israel and then complaining about their reaction.
यह कहना वैसे ही है जैसे गली के गुंडे के बारे में कोई कहे कि पहले उसे उकसाया अब पछताओ ....लेकिन रहेगा तो वह गुंडा ही ना ?

2- Second, the refugee status and grievances of Palestinians can easily be solved by wealthy Arabs themselves if only they were willing to resettle them in their vast territories.
क्या लेखक महोदय को बेघर कर दिया जाए और फिर कहा जाए कि जाओ अपने समृद्ध संबंधियों के साथ रहो जा कर।

3- Third, there is the specious argument that Indians have in the past supported Palestine, and therefore they must do so now.This is like saying, “We’ve been defecating in public since Nehru’s days, and therefore we must continue to do so, QED”
श्रीनिवासन जी ने लिखा है “यह तो इस तरह है कि हम नेहरू के जमाने से ही खुले में हगते आए हैं सो अब भी यही करेंगे” उनके तर्क और ज्ञान का स्तर इसी उदाहरण से पता चलता है।
 भारत ने अतीत में फिलिस्तीन का समर्थन सोचे समझे सिद्धांतों के आधार पर किया था अगर भारतीय विदेश नीति के आज भी वही सिद्धान्त हैं तो बेशक उसे फिलिस्तीन का समर्थन करना चाहिए। खुद गांधी जी ने लिखा था "मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है.मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं.... पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं. क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया. फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह ....इंग्लैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता" श्रीनिवासन को गांधी जी का संदर्भ भी शायद अच्छा ना लगे। इसमें भ्रांतिपूर्ण अगर कुछ है तो वह खुद राजीव श्रीनिवासन हैं

4 Fourth, the prevailing mythology about Palestinians suggest that they are somehow uniquely downtrodden and worthy of support.
अगर फिलिस्तीन का शोषण एक मिथक है तो सत्य का उदघाटन राजीव श्रीनिवासन जी को करना चाहिए। या फिर प्रबंधन की पढ़ाई और सलाहकर्म के बाद उन्हें इतिहास पढ़ने का मौका नहीं मिलता ? मुझे तो उनका विदेश नीति पर लिखना ही एक मिथक लग रहा है।

5-Fifth, by implying that the Palestinian cause is supported ipso facto by all Muslim Indians, the latter are stereotyped and ghettoised.
 दरअसल श्री श्रीनिवासन की सोच खुद संकुचित और स्टीरियोटाइप है। सभी भारतीय मुसलमानों को एक खास नज़र से देखना ही इसका सबूत है।

6 - Sixth, there are no major Indian interests at play in the Israel-Gaza conflict, and therefore India should only give it the attention it deserves
इस्रायल - फिलिस्तीन विवाद से और उस क्षेत्र से हमारे बहुत से हित जुड़े हैं । अगर हम अतीत में इस्रायल का समर्थन करते तो हमें भारत के विभाजन के आधारों को भी मानना पड़ता। आज भी अगर हम फिलिस्तीन के विभाजन को स्वीकार करेंगे तो कश्मीर पर समस्या खड़ी होगी। अगर हम इस्रायल के हमलों को समर्थित करते हैं तो हमें चीन के हमलों पर चुप रहने को तैयार हो जाना चाहिए। श्रीनिवासन फिर कहते हैं कि अरबों ने इस्रायल के अस्तित्व के अधिकार को चुनौती दे रखी है .... अब या तो फर्स्ट पोस्ट में किसी तरह के आर्काइव्स नहीं हैं या फिर श्रीनिवासन ने मेहनत नहीं की है क्यूंकी तथ्य तो उल्टे हैं। इस्रायल के पास सब कुछ है ....ज़मीन, लोग, सरकार, अमेरिका और फिलिस्तीन ? एक ऐसा देश जिसे आप नक्शे पर नहीं खोज पाएंगे.

अगर हमास ने अपराध किया और तीन किशोरों की हत्या की तो उसके बदले हजारों मासूमों की जानें लेना जायज़ है ? क्या श्रीनिवासन इसी को विदेश नीति मानते हैं। इसके बदले क्या कोई और रास्ता नहीं था ? दरअसल इस्रायल का यही दादगीरीपूर्ण रवैया इस क्षेत्र की शांति का दुश्मन है। अगर हमास दोषी है तो इस्रायल भी एक आतंकवादी राष्ट्र ही है। 

और लीजिये अंत में वे गोधरा को भी ले आते हैं कि फिलिस्तीनीयों ने इस्रायल को उकसाया लेकिन इस्रायल कि प्रतिक्रिया ज्यादा बदनाम हो गयी ठीक उसी तरह गोधरा के बाद की प्रतिक्रिया ही ज्यादा बदनाम हुयी। श्रीनिवासन साहब ऊपर आप कह चुके हैं कि इस्रायल – फिलिस्तीन विवाद का भारत के लिए महत्व नहीं है और अब आप गोधरा कि प्रति हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए प्रयोग कर रहे हैं .. खुद को ही विरोधाभासी सिद्ध कर लिया ?
एक अन्य तर्क आपने कश्मीरी पंडितों के बारे में दिया है। अगर हम इस्रायल को समर्थन करते हैं तो हमें कश्मीरी पंडितों का पलायन भी स्वीकार कर लेना चाहिए। अगर पंडितों को अपनी ज़मीन पर लौटने का हक है तो फिलिस्तीनीयों को भी है। खुद श्रीनिवासन आतंकियों का तर्क प्रयोग कर रहे हैं कि फिलिस्तीन को कतर, सऊदी और कुवैतियों द्वारा जमीन देनी चाहिए थी। वही तर्क जो कश्मीरी अलगाववादी पंडितों के लिए देते हैं कि भारतीय प्रदेशों को उन्हें जगह देनी चाहिए।
भारतीय संसद के प्रस्ताव कि प्रभावोत्पादकता को लेकर श्रीनिवासन पता नहीं ऐसे क्यूँ कह रहे हैं? आखिर और किस देश की संसद के प्रस्ताव को उस देश के बाहर विशेष ध्यान दिया जाता है सिवाय अमेरिका को छोड़ कर। संसद के प्रस्ताव बाहर की बजाए भीतर के लिए अधिक होते हैं। सरकारें भारत कि जनता के प्रति जिम्मेदार होतीं हैं इसलिए अगर इस्रायल के खिलाफ प्रस्ताव पास करने से भारत कि जनता सुकून महसूस करती है तो यह होना चाहिए।


श्रीनिवासन को गुटनिरपेक्षता पिलपिला गणतन्त्र (बनाना रिपब्लिक) लगता है तो यह उनकी समस्या है। नेहरू कि विदेश नीति में विश्व दृष्टि थी लेकिन आज तो वह दृष्टि विहीन है। गुटनिरपेक्षता के कारण ही आज हम यहाँ है नहीं तो अमेरिका या रूस के पुछलग्गू हो कर रह जाते और क्या मालूम “भारत” रह भी जाता या फिर वह भी गाज़ा, फिलिस्तीन और इस्रायल जैसी ही गति पाता। 
फर्स्ट पोस्ट को बेहतर लेखकों का चुनाव करना चाहिए। 

4 जुल॰ 2014

वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं : स्वरुपानन्द

वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं : स्वरुपानन्द

शंकरचार्य (?) को वेदों का विरोध स्वीकार्य नहीं है। यह होता रहा है। बहुत सी बातें इसलिए सही हैं की शास्त्रों में लिखा है। ये कौन से शास्त्र है कोई नहीं बताता। क्यूँ बताएगा ? कोई देख लेगा कि लिखा है या नहीं। शंकरचार्य ने भी नहीं बताया है की ठीक ठीक कौन सी बातों का विरोध किसने किया है। शुरुआत तो द्वेष की स्वयं शंकरचार्य ने ही की थी जबकि अथर्व वेद का कथन है
.....मा नो विदद्वृजिना द्वेष्या या 
(ऐसे बुरे कार्यों से हम दूर रहें जो द्वेष बढ़ाने वाले हों)
और इस तरह स्वयं स्वरूपनन्द ने साई बाबा को देवता और खुद को मनुष्य सिद्ध कर दिया है क्यूंकी वैदिक साहित्य के अंग शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है
.....सत्यमेव देवाः, अनृतं मनुष्याः (देवता सत्याचरण करने वाले और मनुष्य अनृत का आचरण करते हैं )
यजुर्वेद में मनुष्यता के लिए जो प्रार्थना है वह भी श्री स्वरूपानन्द जी भूल गए जिसमें कहा गया है
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।
 (“मैं सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ । हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें”)

साईं बाबा के प्रति अपने पूर्वगृह के कारण वे न केवल खुद वैदिक विरोधी (वेदाभ्यासजडः) सिद्ध हुये हैं बल्कि वे जिस पीठ के स्वामी हैं उसी के प्रवर्तक आदि गुरु शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के भी विरोधी सिद्ध हुये हैं। 
ॠग्वेद में कहा है
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” 
(एक ही मौलिक सत्ता को विद्वान अलग अलग नामों से पुकारते हैं)
इसी ॠग्वेद के सामंजस्य सूक्त में कहा है
“ येन देवा न वी यंति नो चविद्विशते मिथः।
  तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः ।। “
 (जिस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद विद्वान एक दूसरे का विरोध नहीं करते और आपसी द्वेष समाप्त कर लेते हैं वह सर्वश्रेष्ठ विद्या ब्रह्मविद्या है जिसे हम सभी के घरों में पहुँचने की कामना करते हैं।) और आप तो द्वेष को बढ़ावा दे रहे हैं। आप कैसे ब्रह्म ज्ञानी है ?
स्वयं आदि शंकर ने अद्वैत की स्थापना करते हुये सिद्ध किया था की ब्रह्म ही परम तत्व है और उसकी कोई जाति या धर्म नहीं होता जीव और ब्रह्म दो नहीं, एक हैं और जीव ही वस्तुतः वास्तविक रूप में ब्रह्म है । आदि शंकर प्रत्येक जीव को ब्रह्म मान रहे हैं और आप एक मनुष्य को भगवान मानने से इंकार कर रहे हैं वह भी धर्म के आधार पर ? 
आप भी जानते हैं कि पत्थर देवता नहीं होता ....भक्ति उसे देवता बना देती है। भक्ति की शक्ति का स्रोत “भज गोविंदम” में स्वयं आदिशंकर ने स्पष्ट किया है - 
“जब बुद्धिमत्ता परिपक्व होती है तो हृदय में जमकर जड़ें जमा लेती है, वह प्रज्ञा बन जाती है। जब यह प्रज्ञा जीवन के साथ संयुक्त होती है तथा क्रिया का रूप ले लेती है तब भक्ति बन जाती है। ज्ञान जो परिपक्व होता है भक्ति कहलाता है। यदि यह भक्ति में नहीं बदलता तो निरुपयोगी है।
  

साईं बाबा को आप नहीं मानते ना सही उनके करोड़ों अनुयायी उनके बताए रास्ते को हृदय में जमा कर , उसे जीवन में उतार कर भक्ति के कारण पूजते हैं तो आप परेशान क्यूँ होते हैं ? यदि आप साईं को गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो आपको बड़ी लकीर खींचनी पड़ेगी, जैसा की स्वयं आदि शंकरचार्य ने बौद्ध धर्म के सापेक्ष किया था। आपको खुद को छोटा हो कर नहीं , बड़ा होकर जीतना होता है, यही हिन्दू परंपरा है ...उसका पालन कीजिये।