16 दिस॰ 2012

किसी रंजिश को हवा दो की मैं ज़िंदा हूँ अभी

किसी रंजिश को हवा दो की मैं ज़िंदा हूँ अभी 

अमेरिका के राष्ट्रपति की आँखें फिर नम हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुये हैं जब ऐसी ही घटना ने उन्हें आहत किया था। शब्द और माहौल भी वही हैं गमगीन, गंभीर और कुछ करने के वादे , कुछ नहीं बदला है और शायद कुछ बदलेगा भी नहीं। आखिर छोटे बच्चों की मौत पर भला अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसी महान और शानदार लाइनों को अमेरिकी संविधान से यूं ही तो नहीं मिटाया जा सकता। और भला इससे किसका फाइदा होगा? अगर अमरीकी शस्त्र कानून बदलाव किया जाता है तो बंदूकों की बिक्री बंद हो जाएगी। लोग बेरोजगार होंगे और अराजकता फैलेगी फिर लोग अवैध तरीके से हथियार लेकर यही काम करेंगे। इसलिए यह कानून रहेगा और ऐसा ही रहेगा। इसके पैरवी करने वाले इतने सजग हैं की जिस दिन यह घटना घटी ठीक उसी दिन डिस्कवरी चैनल पर मैंने एक कार्यक्रम देखा जिसका नाम था डूम्स डे प्रेपेयर्स। इसमें एक सज्जन ने प्रलय या डूम्स डे के लिए तैयारी में पानी से ज्यादा बंदूकें खरीद रखीं थीं और उसका पूरा चिंतन इसी एक तर्क पर टीका था की जब मंदी आएगी तो अराजकता फैलेगी और उससे रक्षा के लिए हमें ऐसी तैयारी की ही आवश्यकता होगी। तो ऐसे कार्यक्रम दरअसल एक डर पैदा करके उस भय के व्यावसायिक दोहन के लिए माहौल बनाते हैं। तो मुझे पूरा भरोसा है की अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनी नहीं जाएगी।

हाल की घटना में एक नौजवान ने एक स्कूल में फायरिंग करके 20 बच्चों और 8 वयस्कों की जान ले ली और खुद को एवं अपनी माँ को भी मौत के घाट उतार दिया। मामले की परतें खुलने पर पता चला है की यह नौजवान एक समृद्ध परिवार से था जिसके पिता बहुराष्ट्रीय कंपनी जीई कैपिटल में वाइस प्रेसिडेंट हैं और विश्व की सबसे बड़ी सलहकार फार्म अर्न्स्ट एंड यंग में पार्टनर भी हैं। लड़के का बड़ा भाई भी अर्न्स्ट एंड यंग में अच्छे पद पर है। बचपन में ही मटा पिता का अलगाव हुआ और फिर तलाक जिसके बाद दोनों अपनी माँ के साथ रहते थे जो इसी स्कूल में टीचर थी। आस पास के लोगों ने इस नौजवान को कभी बात करते या मिलते जुलते नहीं देखा और ना ही कोशिश की क्यूंकी उन्हें लगता था की वह अकेला ही रहना चाहता है। उसके एक सहपाठी के अनुसार वह होशियार था। उसकी कभी हिंसक गतिविधियां भी नहीं थीं। तब आखिर क्या बात थी जिसने उसे ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। क्या ऐसी घटनाओं के लिए अमेरिका ही अभिशप्त है ? भारत में ऐसी हृदयविदारक घटनाएँ क्यूँ नहीं होतीं? क्या यह संस्कृति से संबन्धित मामला है ? क्या ऐसा करने वाले आपराधिक मनोवृत्ति के लोग होते हैं?क्या यह कमजोर शस्त्र कानून का नतीजा है ? प्रश्न बड़े हैं और उत्तर नदारद। 

मुझे याद है अपना बचपन जो एक छोटे कस्बे में बीता था। हमारे मुहल्ले में कोई अकेला हो ही नहीं सकता था। आप बाहर निकालिए तो पूरी गली पार करते करते चबूतरों पर धूप सेंकते बुजुर्ग और गली के लड़के अगर यह ना पूछें की "काए लला कहाँ जाय रहे ?" तो लानत है उनके वहाँ होने पर  और आपको भी अपने अस्तित्व का बखूबी एहसास हो जाता था। अगर कभी कोई समस्या होती तो पूरा मुहल्ला शामिल होता और दुख तो खैर होता ही था सामूहिक। लड़की की शादी हो तो सहायता बिना मांगे मिलती थी। पड़ोसियों की खबर रखना अशिष्ट नहीं आवश्यक था। सब कुछ अच्छा अच्छा ही नहीं था बुराइयाँ भी थीं पर कम से कम उस स्थिति से तो बेहतर ही था जिसमें बगल के फ्लैट में आदमी चार दिन से मरा पड़ा हो और लोगों का ध्यान तब जाए जब बदबू आने लगे। 

मुझे लगता है की हमें फिर से सोचना होगा हमारे विकास और सफलता के मापदण्डों के बारे में। क्या किसी एमएनसी का CEO बनना ही जबकि आपका परिवार बिखर रहा हो । क्या मशीन की तरह काम करना और पैसा कमाना ही सफलता का मापदंड होना चाहिए। इस आधार पर उस नौजवान के पिता सफल हैं परंतु क्या वे मानवीय पैमानों पर सफल हैं? जब आपका परिवार बिखर रहा हो तो सफलता की सिद्धियों का क्या मतलब है। और क्या ऊंची इमारतें, फ़्लाइओवर, एकप्रेसवे, बड़ी गाड़ियां, ऊंचे पुल और बड़ी कंपनियाँ बैंक ही किसी समाज की सफलता की गारंटी हैं। अगर एक समाज अपने बच्चों को सुरक्षा, शिक्षा और सही वातावरण नहीं दे सकता तो उसके सफल होने का क्या अर्थ ? क्या एक राज्य तभी सफल है जबकि वह सबसे ज्यादा हथियार, सेना और शक्ति का प्रदर्शन कर सकता है जबकि उसका समाज दरक रहा हो। क्या एक संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी के पीछे जीवन के अधिकार को पीछे धकेल कर सफल माना जा सकता है। आखिर व्यक्तिगत जीवन की सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक जीवन की सुरक्षा होनी चाहिए। राज्य एक सामूहिक व्यवस्था है और इसमें व्यक्ति की निरपेक्ष स्वतन्त्रता नहीं होती इसलिए अमेरिकी क़ानूनो की निरपेक्षताएँ अक्सर विरोधाभासी नज़र आती हैं। इस घटना में नौजवान ने सभी हथियार कानूनी ढंग से खरीदे थे। उसे रोका नहीं जा सकता था यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता थी लेकिन उन लोगों के जीवन के नैसर्गिक अधिकार का क्या ? क्या यह अधिकार कम महत्वपूर्ण हैं ? अमेरिकी समाज का यह अकेलापन ऐसी घटनाओं का कारक बनता है। 
इस अकेलेपन में जब कोई नौजवान अपने अस्तित्व का आभास कराना चाहता है तब समाज व्यक्तिवादी हो कर उसके अकेलेपन को उस पर थोप देता है। उससे कोई नहीं पूछता की वह क्या चाहता है। उसके माँ बाप भी उसके कमरे के दरवाजे को अपनी सीमा मानते हैं और जब वह अकेलापन इतना असहनीय हो जाए तब वह एक ऐसी रंजिश को हवा देता है की जो समाज अभीतक उसके अस्तित्व से बेखबर था वह उसके होने और ना रहने के पलों को याद करके बरसों कांपता रहता है। 

तेल की धार देखो ............

प्रधान मंत्री जी कह रहे हैं की तेल का बिल , शिक्षा और स्वस्थ्य के बिल से ज्यादा है और इसे कम करके इन क्षेत्रों में लगाना जरूरी है । उत्तम विचार है। आखिर स्वस्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में पैसा है ही कहाँ जिसे खाया जा सके ! इन क्षेत्रों में जरा सा घोटाला करो नहीं की पकड़ में आ जाता है। कोई मंत्री स्वस्थ्य और शिक्षा का विभाग नहीं लेना चाहता और ना ही कोई कॉर्पोरेट इनके लिए लॉबीइंग करता है। अब तेल का पैसा आएगा तो हालत सुधरेंगे। अब ज़रा देखिये ना अभी यूपी में जो घोटाला हुआ है उसमें कितनी जानें चली गईं हैं। CMO भक्षी बन गया है राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन। सारी बुराइयों की जड़ सबसिडी ही है। छोड़ दीजिये उस अंतिम आदमी को बाज़ार के भरोसे और मुकर जाइए उन जिम्मेदारियों से जो एक कल्याणकारी राज्य की मानी जातीं है। 

11 दिस॰ 2012

पश्चिम का पागलपन

एक ऑस्ट्रेलियन एफ एम चैनल के जोकी द्वारा एक भारतीय मूल की नर्स को झूठी कॉल की और ब्रितानी राज घराने की बहू केट मिडल्टन के गर्भवती होने की खबर हासिल कर ली। इसके बाद उठे तूफान ने नर्स को इतना परेशान किया की उसने ख़ुदकुशी कर ली। इस घटना से एक बार फिर उस पागलपन पर प्रश्न चिह्न लग गया है जो शाही परिवार के बारे में खबरें प्राप्त करने के लिए जुनूनी हदें पार कर जाता है और कई जानें भी ले चुका है जिसमें खुद प्रिंस विलियम की माँ डायना की दर्दनाक मौत शामिल है और अब एक और जान केवल इसी वजह से चली गयी। शाही परिवार या सेलिब्रिटी की निजी ज़िंदगी के बारे में क्या श्रोता या पाठक वाकई इतने लालायित होते हैं कि रेडियो जौकी और पेप्रात्ज़ि कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं?! मुझे पूरा भरोसा है कि लोग ऐसा नहीं चाहते। आखिर क्यूँ नहीं कुछ अखबार या चैनल एक ऐसा व्यापक अध्ययन नहीं करा लेते जिसमें लोगों से इस प्रश्न को पूछा जाये। मुझे लगता है कि सेलिब्रिटी भी इस जनमत संग्रह को पसंद करेंगे और एक बड़े पागलपन से हम सबका पीछा छूटेगा।