15 अग॰ 2025

दो पाटों के बीच: महाशक्तियों की छाया में भारत की रणनीतिक दुविधा

 

– अनुपम दीक्षित

मेरी प्लेलिस्ट में आजकल मैरी मैकग्रेगर का टर्न बिटवीन टू लवर्स भारत की दुविधा को बखूबी व्यक्त करता है . इसके बोलों पर गौर कीजिए -

इसकी भावनात्मक पंक्तियां Torn between two lovers, feeling like a fool, Loving both of you is breaking all the rules , आज भारत की स्थिति को बखूबी अभिव्यक्त करती हैं जब वह हाल के दशकों के सबसे कठिन कूटनीतिक संतुलन को साधने की कोशिश कर रहा है . अब जरा इन पंक्तियों को देखिए जिसमें गीत की नायिका कहती है — "There's been another man that I've needed, and I've loved, But that doesn't mean I love you less" — यह ऐसे ही है जैसे भारत रूस के साथ अपने गहरे ऐतिहासिक रिश्तों को निभाते हुए अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को मज़बूत करना चाहता है लेकिन दोहरी निष्ठा तो नियमों के विरुद्ध ही है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की "रणनीतिक स्वायत्तता" वॉशिंगटन की एकनिष्ठता की अपेक्षाओं से टकरा रही है.


टैरिफ़: रिपब्लिकन हाथी का ट्रम्पनाद

क्या हुआ ? 

अगस्त 2025 में तनाव तब चरम पर पहुँचा, जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारतीय निर्यात पर 50% का चौंकाने वाला शुल्क लगा दिया — पहले के 25% शुल्क को दोगुना करते हुए — ताकि रूस से तेल ख़रीद जारी रखने के लिए नई दिल्ली को दंडित किया जा सके। इससे भारत एशिया का सबसे अधिक कर-भार झेलने वाला देश बन गया। 

असर क्या होगा?
ट्रंप  के 50% टैरिफ का सीधा मतलब है भारत के व्यापार में 50 अरब डॉलर की कमी. यह एक बड़ी कमी है .बात सिर्फ डॉलर्स की ही नहीं है बल्कि इसके अन्य पहलू भी हैं . इससे भारत में बड़े पैमाने पर नौकरियां जा सकती हैं. प्रमुख क्षेत्र — कपड़ा, रत्न-आभूषण, चमड़ा, रसायन और समुद्री उत्पाद — लंबे संकट में बुरी तरह प्रभावित होंगे। ट्रंप के टैरिफ भारत में बड़े पैमाने पर रोजगार का संकट पैदा करेंगे. गौरतलब है की ये सभी क्षेत्र श्रम प्रधान हैं. 

अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है (सालाना 87 अरब डॉलर)। इन टैरिफ़ ट्रम्पके बाद भारतीय निर्यातक वियतनाम, बांग्लादेश और जापान जैसे प्रतिस्पर्धियों से पिछड़ सकते हैं। हमारे पास लागत के अलावा कोई खास तकनीकी , आपूर्ति श्रृंखला जैसे प्रतिस्पर्धी लाभ नहीं हैं , और काम लागत भी संरक्षणवादी नीतियों के कारण है। भारत के विदेश मंत्रालय ने अमेरिका के इस कदम को "बेहद दुर्भाग्यपूर्ण" बताते हुए कहा कि अमेरिका समेत दूसरे देश भी रूस से तेल खरीद रहे हैं और भारत की ख़रीद बाज़ार की परिस्थितियों व ऊर्जा ज़रूरतों से तय होती है।

ट्रंप और मोदी की केमिस्ट्री तो हम सबने हाउडी मोदी के दौरान देखी ही थी लेकिन ट्रम्प प्रशासन के विशिष्ट आक्रामक अंदाज़ में की गई इस घोषणा ने भारत -अमेरिकी संबंधों को कूटनीतिक संकट में डाल दिया है, जिससे पिछले दशकों में बनी भारत-अमेरिका साझेदारी की बुनियाद हिल गई है .
भारत - अमेरिका व्यापार समझौते के लिए जारी बातचीत अबतक पाँच दौर के बाद भी बेनतीजा रही है. अब छठा दौर अगस्त अंत में होगा। वाणिज्य मंत्रालय ने कहा है कि सरकार "राष्ट्रीय हितों की रक्षा और संवर्द्धन के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी"। इस बीच, भारत ने तेल आपूर्ति स्रोतों में विविधता लाने के प्रयास तेज़ किए हैं — अमेरिका से तेल आयात छह महीने में 120% बढ़ा है।

आखिर ट्रंप चाहते क्या हैं? ट्रंप ने टैरिफ लगाते हुए कहा — "भारत अच्छा व्यापार साझेदार नहीं रहा… वे युद्ध मशीन को ईंधन दे रहे हैं, और अगर वे ऐसा करेंगे, तो मैं खुश नहीं रहूंगा"। उनके शब्दों में MAGA की राजनीतिक गूँज भी थी और और MAIGA के नारे की विफलता का संकेत भी जिसे हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने अमरीका यात्रा के दौरान दिया था. MAIGA दरअसल MAGA ( Make America Great Again)  और MIGA ( Make India Great Again) के मिलने से बनता है. इस तरह के संक्षेपण गढ़ना मोदी और ट्रंप दोनों को ही पसंद है . 

क्या ट्रंप को नोबल चाहिए ? अनेक लोग कयास लगा रहे हैं की ट्रंप इसलिए नाराज हैं क्योंकि उन्हें पाकिस्तान -भारत जंग रोकने का श्रेय नहीं मिला और नोबल पुरस्कार हाथ से निकल गया. मेरा मानना है की ये बेहद सतही कारण है. बेशक उनके मन में यह आकांक्षा हो तो गलत नहीं हैं लेकिन वे भारत के टैरिफ पर तो निर्भर नहीं ही हैं.

तो फिर  क्या ट्रंप पाकिस्तान - भारत झड़प को शांत करने के प्रयासों में उनकी भूमिका भारत ने स्वीकार नहीं की इसलिए वे नाराज हैं ? अमेरिका की सैन्य और व्यापारिक ताकत बेशक किसी देश को प्रभावित कर सकती है लेकिन भारत जैसे देश को यह स्वीकार करवाना की वह मध्यस्थता के कारण पीछे हटा , नामुमकिन ही है और ट्रंप यह जानते हैं . लेकिन फिर वे यह भी जानते हैं की यह एक बढ़िया दबाव रणनीति है इसलिए वे लगभग 30 बार ट्रुथ सोशल पर यह बात दोहरा चुके हैं. उन्हें जो हासिल करना था वे मुनीर को डिनर पर बुला कर पाकिस्तानन से ट्रेड डील कर के, कर चुके हैं. 

ट्रंप के कथन से यह संकेत मिला कि वे भारत से अपने कृषि, रत्न-आभूषण, फार्मा जैसे बाज़ार अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने की उम्मीद रखते हैं बल्कि वे इससे ज्यादा भी चाहते हैं जिनमें अमरीकी कंपनियों के लिए अधिक रियायतें, अमेरिकी उत्पादों की बाजार तक पहुंच बढ़ाना भी शामिल है .

यदि ट्रंप की कार्यशैली को देखें तो ऐसा लगता जरूर है कि वे एक स्कूल बुली की तरह पेश आ रहे हैं लेकिन हाल ही में जो भी समझौते हुए हैं उनमें अमेरिका को ही फायदा दिख रहा है जापान (550 अरब डॉलर ), EU (600 अरब डॉलर), दक्षिण कोरिया (350 अरब डॉलर) उल्लेखनीय है की ये सभी टैरिफ डील्स ही हैं इसके अलावा कई अन्य समझौते भी हैं जैसे कतर, सऊदी अरब और ब्रिटेन से जिनमें अमेरिका को स्पष्ट फायदा पहुंचेगा . ट्रंप अपने मतदाताओं को दिखाना चाहते हैं कि  MAGA सिर्फ जुमला नहीं हकीकत है.

तो फिर कारण क्या हैं ?  मेरा मानना है कि भारत के  टैरिफ  ट्रंप के लिए तुरुप का पत्ता हैं. ट्रंप तीन-आयामी दृष्टिकोण अपना रहे हैं: (1) रूस के तेल राजस्व को कम करने के लिए भारत और चीन जैसे देशों पर टैरिफ लगा कर उसे बातचीत की टेबल पर लाना, (2) यूरोप के साथ व्यापारिक और सैन्य साझेदारी को अमेरिका के लिए फायदेमंद बनाना, और (3) पुतिन के साथ प्रत्यक्ष बातचीत के माध्यम से यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने का प्रयास. ध्यान रहे कि भारत पर टैरिफ की गाज 7 अगस्त को स्टीव विटकॉफ की मास्को यात्रा, जिसका उद्देश्य रूस और यूक्रेन के बीच शांति सुनिश्चित करना था, के बाद ही गिरी है. 

अगर वे इन तीनों आयामों में सफल सिद्ध होंगे तो यह अमेरिकी कूटनीति की एक जबदस्त सफलता होगी और ठीक यही वे चाहते हैं . और कौन जाने इसका जश्न वे नोबल ले कर मनाएं.

इसके संकेत भी मिलने लगे हैं . जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं , ट्रंप ब्रेकिंग न्यूज में घोषणा कर रहे हैं की वे राष्ट्रपति पुतिन से 15 अगस्त को अलास्का में शीर्ष वार्ता में मिलने जा रहे हैं . उन्होंने संकेत दिया है की रूस -यूक्रेन युद्ध पर जरूरी डील हो सकती है . 

भारत के पास 21 जुलाई तक का समय है किसी भी राजनयिक प्रयास के लिए . राष्ट्रपति पुतिन की प्रस्तावित भारत यात्रा की घोषणा भी 8 अगस्त को हुई है और  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद पहली बार चीन की यात्रा की तैयारी कर रहे हैं — ऐसे समय में जब वॉशिंगटन से रिश्ते तनावपूर्ण हैं, GOP (Grand Old Party) के "हाथी" की चिंघाड़ के बीच "ड्रैगन" और "हाथी" का नृत्य, और  रूसी "भालू" का किनारे से देखना, एक दिलचस्प दृश्य होगा।

The Elephant - Dragon Tango 


रूसी रीछ की झप्पी कितनी ऊष्म है ? 

भारत को रूस की कितनी जरूरत है ?  

भारत और रूस के बीच 78 साल पुराना गहरा दोस्ताना रिश्ता है, जो द्विपक्षीय शिखर सम्मेलनों और उच्च स्तरीय राजनयिक संपर्कों से मजबूत हुआ है। अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा में "भारत-रूस रणनीतिक साझेदारी की घोषणा" हुई और  2010 में पुनः  इस रिश्ते को मजबूती देते हुए भारत को  "विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी" का दर्जा मिला।

2024–25 में द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुंचकर 68.7 बिलियन डॉलर हो गया, जिसमें भारत का निर्यात 4.9 बिलियन और आयात 63.8 बिलियन डॉलर था।

रूस से भारत को आने वाला कच्चा तेल भारत की कुल आवश्यकता का लगभग 43% है, जिससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित होती है। भारत का तेल आयात रूस के यूक्रेन आक्रमण के बाद ही बढ़ा है.

रक्षा क्षेत्र में रूस भारत का प्रमुख साझेदार है - S-400 वायु रक्षा प्रणाली के पाँच रेजीमेंटों में से तीन पहले ही तैनात हो चुके हैं, ब्रह्मोस मिसाइल कार्यक्रम सफलतापूर्वक चल रहा है, और सुखोई Su-30MKI के लिए HAL लाइसेंस निर्माण सुविधा में 62.6% स्वदेशी सामग्री का उपयोग हो रहा है।

अंतरिक्ष सहयोग में GLONASS और NavIC नेवीगेशन सिस्टम के इंटरऑपरेबिलिटी के लिए दोनों देशों ने ग्राउंड स्टेशन स्थापित किए हैं, और गगनयान मानव अंतरिक्ष उड़ान परियोजना में रूसी तकनीकी सहायता शामिल हैं .

इसके अलावा बहुपक्षीय मंचों—BRICS, SCO, G20—में भारत और रूस ने अक्सर समान रुख अपनाया, और रूस ने भारत के UNSC स्थायी सदस्यता समर्थन का आह्वान किया। आर्थिक दबावों और वैश्विक प्रतिबंधों के बावजूद, दोनों देशों ने रुपया-रूबल भुगतान तंत्र और डी-डॉलराइजेशन के माध्यम से व्यवहारिक समाधान अपनाए हैं।

गौर करने वाली बात है कि टैरिफ़ ऐलान के समय, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल मॉस्को में रक्षा सहयोग बढ़ाने की बात कर रहे थे। रूस ने भारत के "स्वतंत्र रूप से व्यापार साझेदार चुनने के  अधिकार" का खुलकर समर्थन किया।  ट्रंप की घोषणाओं के बाद राजनयिक एकजुटता दिखाते हुए पुतिन और मोदी के बीच फोन वार्ता 8 अगस्त 2025 को संपन्न हुई जिसमें  यूक्रेन स्थिति पर चर्चा, "विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी" की पुष्टि और राष्ट्रपति पुतिन की 2025 के अंत तक भारत यात्रा की पुष्टि शामिल है . इस घोषणा की टाइमिंग से लगता है की भारत ने संदेश दे दिया है कि रूस से संबंध उसके इन घोषणाओं से नहीं प्रभावित होंगे .

भारत को यह भी पता है की जरूरत पड़ने पर रूसी  सहयोग ही काम आता है. भारत को रूस की जरूरत चीन को काबू में रखने के लिए भी है क्योंकि SCO, BRICS और G20 जैसे संगठनों में रूस भारत का सहयोगी रहा है .

अमेरिका -चीन व्यापार युद्ध के चलते रूस के चीन के साथ भी संबंध गहरे हो रहे हैं और भारत रूस से बेहतर संबंध बनाए रखना चाहेगा जिससे एशिया में वह इन दोनों को नजदीकी सहयोगी बनाने से रोक सके. भारत रूस के संबंध सिर्फ तेल पर नहीं टिके हैं . इसलिए अगर भारत ऐसे संकेत देता है की वह अमेरिकी टैरिफ के लिए तेल का आयात कम करेगा तब भी रूस -भारत संबंधों पर कोई आंच नहीं आने वाली.  ऐसा भी नहीं है की अमेरिकी दबाव में भारत ने प्रतिक्रिया ना दिखाई हो, व्यवहारिकता को देखते हुए भारत ने रूस से अपने रक्षा आयात को 2010 - 2014 के 72% से चरणबद्ध तरीके से घटाया है. 2015-2019 में 55% और अंततः 2020-2024 में 36% कर दिया गया है .  



क्या भारतीय हाथी और चीनी ड्रैगन साथ में नृत्य करेंगे ? 

भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध : 2025 में भारत और चीन ने अपने 75वें राजनयिक वर्ष की वर्षगांठ मनाई है, लेकिन 2020 में गलवान में हुई झड़पों के बाद विश्वास डगमगा गया है. सीमा गतिरोध के बाद दोनों पक्ष धीरे-धीरे सामान्यीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। भारत की प्रसिद्ध कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जहां कुछ आशा बनी है वहीं कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन पर गतिरोध अभी भी बाकी है. 

चीन ने रेयर अर्थ धातुओं के भारत को निर्यात पर रोक लगा दी है जो अभी भी जारी है और भारत को गहरा आघात पहुंचा रही है. रेयर अर्थ पर रोक से भारतीय अर्थव्यवस्था के अनेक सेक्टर्स खतरे में पड़ गए हैं जिनमें ऑटोमोबाइल, मोबाइल, रक्षा, अंतरिक्ष, खनन जैसे बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं . दरअसल अगर ट्रंप के टैरिफ और चीन के प्रतिबंध लंबे समय तक चलते हैं तो भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार में .5% से 1% तक की कमी देखी जा सकती है.

गलवान के बाद से ही बंद पड़ी दिल्ली - बीजिंग सीधी वायु सेवा भी अभी तक शुरू नहीं हो पाई है .

भारत की हानि , चीन को फायदा :

अमेरिका द्वारा चीन पर 100% टैरिफ़ की धमकी और भारत पर पहले से 50% शुल्क लगाने से दोनों ही देश अमेरिकी आर्थिक दबाव के शिकार हैं। यद्यपि चीन ने सफलतापूर्वक अमेरिका को बातचीत के लिए तैयार कर लिया है और ट्रंप दो बार 100% टैरिफ की डेड लाइन बढ़ा चुके हैं.

उल्लेखनीय है की ट्रंप के भारत पर टैरिफ में जिन क्षेत्रों को मुक्त रखा गया है वे हैं , मोबाइल फोन, रेयर अर्थ, फार्मास्यूटिकल, लिथियम आयन बैटरी और सौर ऊर्जा. इन सभी क्षेत्रों में भारत चीन पर पूरी तरह से निर्भर है. ऐसे में भारत पर लगे टैरिफ से चीन को कोई हानि नहीं हैं.  चीन का विशाल निर्यात, विकल्पों की उपलब्धता और रेयर अर्थ जैसे तकनीकों में महारथ ने उसे मोलभाव में ऊपरी स्तर पर रखा है.

भारत की स्थिति इससे बिलकुल अलग है. भारत अभी भी उच्च तकनीक के मामले में दूसरे देशों पर निर्भर है. ऐसे में ट्रंप के टेरिफ भारत को असहज स्थिति में डाल रहे हैं . 

चीन के लिए अवसर ?
चीन इस अवसर का लाभ उठाना चाहेगा. चीन ने आधिकारिक रूप से भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का समर्थन भी किया है और भारत में चीन के राजदूत ने 1+1=11 का सुझाव दिया है. अगर कुछ लोगों को यह लग रहा हो की यह भारत - चीन संबंधों का स्वर्णिम युग होने जा रहा है तो उन्हें वैसी ही निराशा होगी जैसी हिंदीचिनी भाई भाई के नारे के फेल होने पर हुई थी . दरअसल भारत की रणनीतिक स्वायत्त का समर्थन चीन इसलिए भी कर रहा है ताकि इसके द्वारा पश्चिम और भारत की बढ़ती नजदीकियों को रोक सके . चीन के ग्लोबल टाइम्स ने टिप्पणी की है कि रणनीति की मेज़ पर वॉशिंगटन की सूची में भारत कभी नहीं रहा . दरअसल चीन इस मौके पर दुनियां को यह दिखा रहा है कि जोर शोर से प्रचारित मोदी-ट्रंप कैमिस्ट्री और भारत को रणनीतिक साझेदारी में दरअसल कोई गहराई नहीं है.

इसके अलावा चीन ग्लोबल साउथ के लीडर की अपनी उस धूमिल होती छवि को सुधारना चाहता है जिसपर श्री लंका, मालदीव, पाकिस्तान और कई अफ्रीकी देशों को ऋण के बोझ से लाद देने और ऋण को इक्विटी में बदलने के कारण दाग लग चुके हैं . वह यह दिखाना चाहता है की बिना पश्चिम जैसी शर्तों के चीन एक बेहतर और सम्मानजनक साझेदार है . 

इसके अलावा चीन यह भी चाहता है कि भारत उसके ब्रिक्स - रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा बने और चीनी कंपनियों को भारत में और अधिक अवसर मिलें, विश्व में रणनीतिक स्तर पर अमेरिका के स्थान पर चीन को विकल्प के रूप में देखा जाए, दलाई लामा, ताइवान जैसे मुद्दों पर भारत अपने रुख में बदलाव लाए.

भारत कुछ ही दशकों में विकास दर के मामले में चीन से आगे निकल जायेगा. यद्यपि भारत को चीन के स्तर तक पहुंचने में कई दशक लगेंगे लेकिन फिर भी भारत को कमजोर रख कर वह उसे विकास की दौड़ में पीछे रखना चाहता हैं और साथ ही वह भारत के विशाल बाजार में अपनी ऐसी पैठ बनाने में कुछ हद तक कामयाब भी हो गया है कि मोलभाव की मेज़ पर भारत को परेशानी हो . 

घरेलू राजनीति और ड्राइंग रूम विदेश नीति :

आर्थिक पक्ष के अलावा यह पहली बार हुआ है जबकि किसी भारतीय सरकार ने अपनी विदेश नीति और रक्षा को घरेलू राजनीति में मुद्दा बनाया है . यह हमने पीएम मोदी की अनगिनत विदेश यात्राओं , पाकिस्तान के साथ झड़पों, नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश के साथ देखा है . अमेरिकी राष्ट्रपतियों की यात्राएं हों या राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा, सभी घरेलू राजनीति को लक्ष्य करके आयोजित थीं. यह नीति चमक दमक के साथ भारत को पेश करती रही और मीडिया ने इसके प्रचार में खुली छूट ली. अब यह अति प्रचार ही भारत को वैदेशिक नीति के फ्रंट पर थोड़ा फीका कर रहा है जबकि वैश्विक नेता इस सरकारी कमजोरी को पकड़ चुके हैं .

विदेश नीतियां भावनाओं पर नहीं पारस्परिक हितों पर आधारित होती हैं . कई बार ऐसे मौके भी होते हैं जब आपको कदम पीछे हटने पड़ते हैं ताकि आगे बढ़ सकें. इसे ही कूटनीति  कहते हैं लेकिन अगर निर्णायक पदों पर बैठे लोग इन पर जन भावनाओं के अनुरूप निर्णय लेने लगेंगे तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे. विदेश नीति लोगों के ड्राइंग रूम में तय नहीं होती.

प्रधानमंत्री मोदी की 31 अगस्त–1 सितंबर को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के लिए चीन यात्रा 2018 के बाद पहली होगी, और 2020 की गलवान झड़प के बाद पहली और इस पर अभी से सोशल मीडिया.  अच्छा यही रहेगा कि परंपराओं के अनुकूल ही सरकार इस विषय पर विपक्ष को सूचित रखे और उनसे सहयोग लेकर ही आगे बढ़े. 

भारत के विकल्प क्या हैं ? 

भारत चीन पर दबाव बनाने की हर संभव रणनीति अपनाना चाहेगा. लेकिन चीन के मुकाबले , भारत के पास सीमित विकल्प उपलब्ध हैं. यद्यपि भारत multi-alliance के अनुरूप ही रूस, अमेरिका, चीन और यूरोप सभी से वार्ता कर रहा है और सभी संभव क्षेत्रीय मंचों का प्रयोग कर रहा है .  (RIC - Russia -India -China) त्रिकोणीय सहयोग, जो सीमा तनाव के कारण वर्षों से निष्क्रिय था, फिर से सक्रिय होने के संकेत दे रहा है। रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने कहा कि "बीजिंग और नई दिल्ली दोनों RIC बनाए रखने में स्पष्ट रुचि दिखा रहे हैं"। 

भारत का एक साथ क्वाड, SCO, BRICS संगठनों में शामिल होना भारत की मल्टीएलायंस की जांची परखी नीति के अनुरूप ही है जिसका विकास नेहरू की गुटनिरपेक्षता नीति से ही हुआ है. या यूं कहें कि यह गुटनिरपेक्षता का नया नाम है और असल में नया भी नहीं है . खुद नेहरू ने गुट निरपेक्षता को समझते हुए कहा था कि यह सबसे दूरी बनाने की बजाए सबसे संबंध रखने की नीति है . यह किसी एक गुट से नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से संबंधों की नीति है . भारत इन मंचों का प्रयोग वॉशिंगटन और चीन दोनों  पर बेहतर दबाव बनाने के लिए कर सकता है .

प्रधान मंत्री की चीन यात्रा से मुझे बहुत उम्मीदें नहीं है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर यदि चीन से बात बने तो भविष्य के लिए अच्छा होगा. भारत हीरों किया कटाई , पॉलिशिंग और फिनिशिंग का सबसे बड़ा केंद्र है और विष की अनेक हीरा कंपनियां यहां की सेवाएं लेटिन हैं . उधर चीन पूरे विश्व में कृत्रिम हीरों का 40%  से अधिक का उत्पादन करता है . दोनों देश इस मुद्दे पर यदि सहमत हों तो भारत के लिए जेम और ज्वैलरी बाजार में विविधता बनाने में आसानी होगी और ट्रंप टैरिफ का असर भी काम रहेगा.

दूसरा क्षेत्र फार्मास्यूटिकल API आउट निर्यात का है जिस पर भारत ने संरक्षण नीतियां अपनाएं हैं . अनेक भारतीय कंपनियों के एपीआई के लिए चीन में निवेश किया है . दोनों देश अगर इसमें किसी नतीजे पर पहुंचते हैं तो यह win-win स्थिति होगी.

 इसके अलावा भारत बुनियादी ढांचे में चीन से तकनीकी सहयोग , सूचना प्रौद्योगिकी और कृत्रिम -बुद्धिमत्ता , विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में असीम संभावनाएं हैं . भारत को आगामी बैठक का पूरा फायदा उठाना चाहिए

भारत के लिए यह रोमांस नहीं, बल्कि रणनीतिक आवश्यकता है।

भारतीय हाथी और चीनी ड्रैगन का डांस दिलचस्प तो है लेकिन यह एक दुर्लभ से भी दुर्लभ अवसर होगा और रिपब्लिकन हाथी की चिंघाड़ दोनों में से किसी के लिए भी “संगीत” जैसी तो नहीं है .



13 जून 2025

एक कप इतिहास: चाय की प्याली में छुपे किस्से

लेखक: अनुपम दीक्षित


“ज़रा एक कप चाय बना देना।” शायद ये भारतीय गृहस्थ जीवन की सबसे सामान्य मगर सबसे गहरी पंक्ति है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस उबलते पानी, अदरक और पत्तियों के घोल के पीछे एक पूरी सभ्यता की कहानी छुपी है?

आज हम एक साधारण कप चाय के साथ चलेंगे इतिहास की गलियों में — पत्तियों की सुगंध से होते हुए, युद्धों, व्यापार, औपनिवेशिक साजिशों और सांस्कृतिक बदलावों तक।

☯️ चाय: कहां से आई ये पत्ती?

चाय की शुरुआत चीन से मानी जाती है। एक पौराणिक कथा कहती है कि 2737 ईसा पूर्व चीन के सम्राट शेन नुंग पानी उबाल कर पीने के पक्षधर थे। एक दिन जब उनके लिए पानी उबाला जा रहा था, तभी कुछ पत्तियां उड़कर पानी में गिर गईं। पानी का रंग बदल गया, और जब सम्राट ने उसे चखा — यह थी इतिहास की पहली चाय की चुस्की । 

🇬🇧 कैथरीन, चाय और इंग्लैंड में इसकी एंट्री

चाय ने इंग्लैंड की धरती पर पहली बार 1662 में कदम रखा, जब ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रगेंज़ा से हुआ। कैथरीन अपने साथ चाय की परंपरा और पत्तियों का खज़ाना लेकर आईं। वे खुद चाय की दीवानी थीं और इंग्लैंड के शाही दरबार इस तरह शुरू हुई ब्रिटेन की सांस्कृतिक पहचान “आफ्टरनून टी” 

🌍 जब चाय ने दुनिया घूमी

बौद्ध भिक्षुओं के साथ चाय का स्वाद धीरे-धीरे जापान, तिब्बत, और मंगोलिया पहुंचा। बौद्ध भिक्षुओं ने ध्यान के दौरान जगने के लिए चाय पीने की परंपरा शुरू की। चाय अब सिर्फ स्वाद नहीं थी, बल्कि साधना बन गई थी। और फिर यूरोप, खासकर ब्रिटेन, ने इस कड़क पेय को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया। भारत और अमेरिका ने भी चाय को अपनाया और इस तरह चाय दुनियाँ का पेय बन गई 

☠️ चाय, तस्करी और अफीम युद्ध

चाय ने चीन-ब्रिटेन संबंधों में जहर घोल दिया। चीन से चाय, पोर्सलीन और रेशम  यूरोप आता था लेकिन यूरोप के पास कुछ नहीं था जो वह चीन को इसके बदले दे सके इसलिए चीन केवल चाँदी के बदले इन चीज़ों को बेचता था, जो ब्रिटेन के लिए घाटे का सौदा था। इसका जवाब मिला उन्हें  अफीम में । ब्रिटिश भारत में अफीम उगाई गई और चीन को बेची गई, जिससे वहाँ नशाखोरी बढ़ी और चीन में असंतोष फैला। नतीजा — 1839 में पहला अफीम युद्ध। चाय को लेकर एक और अफ़ीम युद्ध लड़ा गया और चीन ने अपनी आज़ादी खो दी । 

🇺🇸 चाय की बग़ावत: बॉस्टन टी पार्टी

1773 में अमेरिका की धरती पर चाय क्रांति का कारण भी बनी। जब अंग्रेजों ने अमेरिका पर भारी चाय कर लगाया, तो बोस्टन के नागरिकों ने इसका विरोध करते हुए ब्रिटिश जहाज पर लदी चाय की पेटियाँ समंदर में फेंक दीं। यह घटना "बॉस्टन टी पार्टी" कहलाती है और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी बन गई।

🇮🇳 भारत में चाय की बगान और बग़ावत

19वीं सदी में अंग्रेजों ने भारत में चाय उगाने का निर्णय लिया — खासतौर से असम, दार्जिलिंग और नीलगिरि में। जबरन मजदूरी, जंगलों की कटाई और आदिवासी जीवनशैली का हनन हुआ।इसका परिणाम अहोम विद्रोह , ख़ासी विद्रोह , नागा विद्रोह ,कूकी संघर्ष जैसे विद्रोहों में हुआ । गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन (नमक आंदोलन) के दौरान नागालैंड की किशोरी गाइडिनल्यू ने जो शौर्य दिखाया उससे प्रभावित हो कर नेहरू जी ने उसे “रानी” गाइडिनल्यू कहा । 

 शुरुआत में भारतीयों को चाय कुछ ख़ास पसंद नहीं थी, पर बाद में अंग्रेजों ने Indian Tea Association के ज़रिए चाय का प्रचार शुरू किया — रेलवे स्टेशनों, मिलों और स्कूलों में चाय फ्री में बाँटी गई।

🫖 भारतीय पहचान में घुली चाय

अब चाय भारत की पहचान बन चुकी है। रेलवे स्टेशन की सीटी, कुल्हड़ की गर्मी, अदरक-इलायची की खुशबू और गली के नुक्कड़ पर चाय वाला — ये सब मिलकर एक सांस्कृतिक दस्तावेज हैं। चाय अब सिर्फ एक पेय नहीं — एक भावना है।

🏭महलों से चायख़ानों तक - चाय-सुट्टा ब्रेक

भारत में चाय की बाग़वानी शुरू होते ही ब्रिटेन में चाय सस्ती होने लगी। कामगारों को कारख़ानों की लंबी पालियों में जगाये रखने के लिए चाय अवकाश दिये गये और इस तरह शुरू हुई आज के ऑफिसों की चाय-सुट्टा ब्रेक की परंपरा । 

✊🏽क्रांतियों का ईंधन - बुद्धिजीवियों का शग़ल 

बीसवीं शताब्दी में चाय बुद्धिजीवियों का पेय बना और चायखाने बन गये क्रांतिकारियों के अड्डे। भारत से ले कर सोवियत संघ तक और क्यूबा से क्योटो तक चाय ने अपना एक नया रूप ले लिया -प्रगतिशील , जागरूक और अधिकारों का प्रतीक । 

आज दुनियाँ में चाय , पानी के बाद सबसे अधिक पिया जाने पेय है ।तो अगली बार जब आप एक कप चाय पीएं, तो ध्यान रहे  — आपकी चाय सिर्फ दूध-पत्ती-चीनी का मिश्रण ही नहीं है, बल्कि पूरी दुनियाँ का इतिहास समेटे है । 


1 अप्रैल 2021

शहीदों के हत्यारे

शहीदों के हत्यारे - प्रकाश के रे की कलम से 
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शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के बाद आंदोलन को धोखा देनेवालों, जेल के अधिकारियों तथा रात के अँधेरे में शहीदों के शव को जलानेवाले पुलिस अधिकारियों को ब्रिटिश सरकार ने बड़े-बड़े ईनाम दिए थे. इन क्रांतिकारियों के निकट सहयोगी रहे हंसराज वोहरा की कहानी तो लोग जानते ही हैं कि इनकी गवाही शहीदों के फ़ाँसी का सबसे बड़ा आधार बनी थी. वोहरा ने आर्थिक लाभ लेने के बजाय लंदन में पढ़ाई का ख़र्च पंजाब सरकार से लिया. वापसी में सरकारी अधिकारी बने, फिर लाहौर के एक अख़बार के संवाददाता बने और बाद में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अमेरिका में संवाददाता हुए. कई दशक बाद उन्होंने राजगुरु के भाई को पत्र में अपनी सफ़ाई देने की कोशिश की, पर यह भी लिखा कि वह दौर उन्हें आक्रांत करता है और उनकी इच्छा है कि लोग उन्हें बिसार दें. 

क्रांतिकारी से सरकारी गवाह बने जयगोपाल को बीस हज़ार रुपए मिले, जबकि दो अन्य गवाहों (ये भी क्रांतिकारी रहे थे)- फणीन्द्र घोष और मनमोहन बनर्जी को बिहार के चंपारण में पचास-पचास एकड़ ज़मीन मिली. विभिन्न ओहदों के जेल अधिकारियों- एफ़ए बारकर, एनआर पुरी और पीडी चोपड़ा को प्रोन्नति और मेडल हासिल हुए. फ़ाँसी देखकर रोनेवाले जेल उपाधीक्षक अकबर खान को पहले निलंबित किया गया, खान बहादुर की पदवी छीनी गयी, लेकिन बाद में नौकरी पर रख लिया गया. 

लाहौर षड्यंत्र केस के जाँच अधिकारी शेख़ अब्दुल अज़ीज़ को विशेष प्रोन्नति मिली. ये सारी जानकारियाँ देते हुए पंजाब के पुलिस अधिकारी आरके कौशिक ने कुछ साल पहले के एक लेख में बताया है कि अज़ीज़ का मामला दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत का अकेला मामला है, जिसमें हेड कान्स्टेबल के रूप में भर्ती हुआ आदमी डीआइजी होकर सेवानिवृत्त हुआ था. अज़ीज़ के बेटे को उसी साल डीएसपी भी बना दिया गया था. इसके अलावा उसे पचास एकड़ ज़मीन भी मिली थी. 

लाहौर के एसएसपी हैमिल्टन हार्डिंग को भी पुरस्कार मिला. शहीदों के शव को जलानेवाले अधिकारी सुदर्शन सिंह, अमर सिंह और जेआर मॉरिस तथा इस काम में शामिल तमाम पुलिसकर्मियों को भी प्रोमोशन और पुरस्कार मिले. लाहौर व कसूर के प्रशासनिक अधिकारियों- पंडित श्री किशन, शेख़ अब्दुल हामिद और लाला नाथू राम- को भी ओहदे और मेडल मिले.  

अब फ़ाँसी देनेवाले जल्लादों को क्या कोसना! उन्हें तब भी और अब भी बहुत मामूली रक़म मिलती है. बहरहाल, कौशिक साहब ने बताया है कि शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के जल्लाद काला मसीह के बेटे तारा मसीह ने बहुत सालों बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फ़ाँसी दी थी.

27 अप्रैल 2019

भगत सिंह भी परेशान थे गोदी मिडिया से

सा लगता है कि २०१४ के बाद भारत में न्यूज़ चैनलों के पास सिवाय मोदी के भजन गाने के और कोई मुद्दा , खबर या स्टोरी नहीं है . लेकिन क्या सचमुच में ऐसा है की यह मिडिया कलियुग २०१४ के बाद आया है और उससे पहले मिडिया का सतयुग था . रविश कुमार और सहयोगियों को यही लगता है  लेकिन रवीश भी असल में गोदी मिडिया ही हैं बस अंतर इतना है की गोदी मोदी विरोधी की है . उनके उठाये गए मुद्दे वाजिब हैं लेकिन उनका लहजा पत्रकार का नहीं "विपक्ष" का अधिक है . मिडिया आजकल ही बिकाऊ हो गयी है ऐसा नहीं है . यह तो अपने जन्म से ही बिकाऊ थी . लोकतंत्र से चौथे स्तम्भ के का दर्जा मिलने से इसे एक पवित्र दर्जा मिल भले ही गया लेकिन इसका चरित्र तो गोदी वाला ही था .दरअसल पत्रकारिता व्यवसाय ही ऐसा है की उससे निष्पक्षता की अपेक्षा करना ज्यादती है क्योंकि आखिर तो वह एक व्यवसाय ही है ना ? लेखन कला के आरम्भ से ही , लेखन का प्रोपेगैडा में बखूबी इस्तेमाल होने लगा था . लेखन कला का पहला विस्तृत अभिलेख " हम्मुराबी संहिता " भी दरअसल राजकीय प्रोपेगैंडा का हिस्सा था . इस अभिलेख में ईराक क्षेत्र के राजा ने आज से करीब ५००० साल पहले राज्य के सामान्य कानूनों को लिपिबद्ध करके सार्वजानिक रूप से राजा की प्रशंशा के साथ छपवा दिया था . 

अशोक के अभिलेख तो राजकीय प्रचार अभियान का ज़बरदस्त उदाहरण हैं जिनमें स्वयं अशोक खुद को देवताओं का प्रिय और सुन्दर दिखने वाला घोषित कर देता है (देवानं प्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक ) और जनता को तरह तरह से आश्वस्त , शिक्षित और आदेश देता हुआ अशोक को अंततः लगभग अवतार सिद्ध कर देता है .अशोक द्वारा रौंदे गए कलिंग में अशोक की दम्भपूर्ण आवाज़ कलिग के अभिलेखों में  पुचकारने वाली आवाज़ बन जाती है . 

अशोक के बाद कलिंग नरेश खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख में तो खारवेल की प्रशंसा में प्रयुक्त शब्द देखने लायक हैं . इसमें लिख है की खारवेल ने मगध को रौंद दिया और अपने हाथी घोड़ों को गंगा में स्नान करवाया , मगध के राजा को घुटने टेकने पर मजबूर कर उसे राज्य के खेतों को गधों से जुतवाया. तमिल प्रदेश में जीत दर्ज की. खारवेल  प्रशस्ति भी तो गोदी मिडिया ही है. 

आगे फिर आपको समुद्रगुप्त मिलते हैं जिनके युद्ध मत्री ने ही प्रशस्ति लिखने का जिम्मा संभाला था और समुद्रगुप्त की प्रशंसा में एक विशाल अभिलेख प्रयाग में अशोक के ही स्तम्भ पर अंकित करवाया था . हरिशेण अपने स्वामी की प्रशंसा बेहद जोरदार तरीके से करता है - कुछ वैसे ही जैसे अंजना ओम कश्यप (आज तक) और सरदाना (आज तक ) करते हैं . ज़रा गौर फरमाइए - "वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, बाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी… अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने ‘कविराज’ की उपाधि प्राप्त की थी’ । (दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है) वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था. उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है . उसे  ‘परमभागवत’ अर्थात स्वयं ईश्वर - विष्णु कहते थे । ‘विश्व में कौन-सा ऐसा गुण है जो उसमें नहीं है’. 


अब इसे उन सभी इंटरव्यू से मिला कर देखिये जो मोदी ने पिछले पांच वर्षों में दिए हैं - आपको कुछ नया नहीं लगेगा .


अब ज़रा यहाँ भी देखिये कि भगत सिंह इस बारे क्या कहते हैं . यह उद्धरण उनके 1928 के लेख से है - 


"यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।" अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?"

तो गोदी हमेशा से थी और रहेगी . रविश भी उतने ही गोदी प्रेमी हैं जितने रोहित सरदाना . न वे क्रन्तिकारी हैं और न ये .


7 दिस॰ 2018

अंबेडकर भारत नहीं पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य थे

जब कांग्रेस से संविधान सभा के लिए अंबेडकर न चुने जा सके तब अविभाजित बंगाल में दलित-मुस्लिम एकता के आर्किटेक्ट जोगेंद्र नाथ मंडल ने आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से संविधान सभा में पहुंचाया.

यह जानना आपको दिलचस्प लगेगा कि जिस आंबेडकर को आज हम जानते हैं वह मुस्लिम लीग की देन हैं ।

लीग ने ही अंबेडकर के समाप्त होते राजनीतिक कैरियर को पुनर्स्थापित किया

मंडल कांग्रेस को सांम्प्रदायिक मानते थे और जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष विचारों को पसंद करते थे इसलिए मंडल ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

वो मानते थे कि सांप्रदायिक कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी. वो जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के बड़े प्रशंसक थे और अनुसूचित जातियों के सरपरस्त के रूप में उन्हें गांधी और नेहरू की तुलना में कहीं ऊपर आंकते थे।

इसलिए मंडल भारत से पलायन कर न केवल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने बल्कि वो इसके जनकों में से एक थे.वो पाकिस्तान की सरकार में सबसे ऊंचे ओहदे वाले हिंदू थे और मुस्लिम बहुल वाले इस देश में धर्मनिरपेक्षता के अकेले पैरोकार.

हालांकि, जिन्ना की मौत के बाद उनके सपने कुचले गए. तत्कालीन पाकिस्तान ने उन्हें गलत साबित कर दिया।

अंबेडकर ने राजनीतिक फायदे के लिए और कांग्रेस की राजनीति को नाकाम करने के लिए मंडल की सहायता से अवसर का फायदा उठाया और बंगाल के चार जिलों से वोट ले कर वे संविधान सभा के लिए चुन लिए गये।

लेकिन एक खास परिस्थिति के चलते फिर उनके प्रयास को धक्का पहुंचा। विभाजन की योजना के तहत इस पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाए और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए. जिन चार ज़िलों- जस्सोर, खुलना, बोरीसाल और फरीदपुर- से गांधी और कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध आंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए वहां हिंदुओं की आबादी 71% थी. मतलब, इन सभी चार ज़िलों को भारत में रखा जाना चाहिए था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने शायद आंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया.

इसके परिणामस्वरूप आंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.

पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे.

जब यह स्पष्ट हो गया कि आंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.

बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम. आर. जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दिया था जिनकी जगह को जी. वी. मावलंकर ने भरा. मंसूबा था कि उन्हें (मावलंकर को) तब संविधान सभा का अध्यक्ष बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने यह फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह आंबेडकर भरेंगे।

(यह लेख  बी बीबीसी हिंदी से लिया गया है )

12 नव॰ 2018

हिन्दुस्तान के ठग

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3 अक्टू॰ 2018

भगत सिंह ने की थी अपने पिता की गद्दार से तुलना - जानिए क्यों ?

२ अक्तूबर आते ही सोशल मीडिया पर गाँधी को लेकर बहुत सी गलत बातें फैलने लगती हैं . इनमें एक मुद्दा है भगत सिंह की फांसी का . गाँधी जी के प्रति घृणा का प्रदर्शन करते हुए कहा जाता है कि उनहोंने भगत सिंह को फांसी से नहीं बचाया क्योंकि गाँधी जी तब वायसराय इरविन से नमक आन्दोलन के बाद बातचीत कर रहे थे और उन्होंने कई कैदियों को रिहा भी कराया था . आइये जानें की सत्यता क्या है . 

भगत सिंह को गिरफ्तार क्यों किया गया और फांसी क्यों दी गयी :

भगत सिंह क्रन्तिकारी थे . वे भारत को हिंसक तरीकों का प्रयोग करके ब्रिटिश सरकार को डरा कर भारत को स्वतंत्रता दिलवाने में भरोसा रखते थे . साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए लाला लाजपत राय को लाठी चार्ज में चोटें आयीं थीं और भगत सिंह व साथियों ने ब्रिटिश सरकार से इसका बदला लेने के लिए पुलिस कप्तान स्कॉट की हत्या की योजना बनायी लेकिन नौसिखिये साथियों और हड़बड़ी में गलती से एक अन्य पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गयी . पुलिस ने दबिश दे कर भगत सिंह के अनेक साथियों को पकड़ लिया . इधर साइमन कमीशन के वादों पर जब राष्ट्रीय नेता बहस कर रहे थे तभी सरकार ने पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल असेब्मली में पेश  किए . ये दोनों बिल दरअसल बढती क्रन्तिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए थे. असेम्बली के अधिकांश भारतीय सदस्य इस बिल का विरोध कर रहे थे लेकिन वायसराय ने इसे अपने विशेषाधिकार से पारित कर सकते थे . भगत सिंह और साथियों ने तय किया कि उदारवादी राजनीती और सरकार के कानून का विरोध करने और क्रांतिकारियों की बात को कहने के लिए जिस समय ये कानून पारित हों उसी समय असेम्बली में बम का धमाका किया जाये . इसका उद्देश्य जान लेना नहीं था . भगत सिंह की योजना में यह भी शामिल था कि वे लोग गिरफ़्तारी का विरोध नहीं करेंगे  और अपना बयान जज के सामने प्रेस की उपस्थिति में देंगे . बम फैंकने के साथ ही उनहोंने एक परचा भी फैंका था जो इस तरह था -

सूचना
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है,” प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं.....आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं,विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘औद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में ‘अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून’ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताओं की अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। 
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं। हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है। (https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1929/mein-feinka.htm). 



पुलिस ने भगत सिंह को गिरफ्तार किया तब सरदार सर सोभा सिंह वहां मौजूद थे और पुलिस ने उनके हवाले भगत सिंह के वहां होने की चश्मदीद गवाही शामिल की हैं . असेम्बली के अध्यक्ष श्री विट्ठल भाई पटेल थे जो पहले भारतीय अध्यक्ष थे . वे सरदार पटेल के भाई थे . isl

पुलिस ने असेम्बली बम कांड के साथ ही भगत सिंह और साथियों पर "लाहौर षड़यंत्र केस " भी चलाया . भगत सिंह के पकडे गए साथी गोपाल ने सांडर्स की हत्या में भगत सिंह का नाम ले दिया था . इसके साथ ही अन्य क्रांतिकारियों के नाम भी दे दिए थे. भगत सिंह को फांसी असेम्बली में बम फैंकने से नहीं बल्कि लाहौर षड़यंत्र केस में उनके "क्रन्तिकारी " साथियों की गद्दारी के कारण  मिली थी. 

गाँधी इरविन समझौता
यह वह घटना है जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन या नमक आन्दोलन की सफलता ने गाँधी जी को निर्विवाद नेता स्थापित कर दिया था और देश के कोने कोने में गाँधी के इस आन्दोलन की धमक सुनाई दी थी. इसकी लोकप्रियता से मजबूर हो कर सरकार ने गाँधी से बातचीत का रास्ता निकला . गाँधी जी भी राजी हो गए . वार्ता हुयी और शर्तों में अनेक बातें शामिल हुयी जिन्स्में राजनितिक बंदियों को छोड़ने की बात भी शामिल थी . अनेक कैदियों को रिहा कर दिया गया लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को छोड़ने से इरविन ने यह कह कर इनकार कर दिया की वे राजनितिक बंदी नहीं हत्यारोपी हैं .

 गाँधी जी का पक्ष : गाँधी जी ने खुद लिखा है - 'भगत सिंह की बहादुरी के लिए मेरे  मन में सम्मान है. लेकिन मुझे ऐसा तरीका चाहिए जिसमें खुद को न्योछावर करते हुए आप दूसरों को नुकसान न पहुंचाएं. उनहोंने कहा कि सरकार गंभीर रूप से उकसा रही है कि हम समझौते से पीछे हट जाएँ लेकिन समझौते की शर्तों में फांसी रोकना शामिल नहीं था. इसलिए इससे पीछे हटना ठीक नहीं है. "भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है. ईश्वर को साक्षी रखकर मैं ये सत्य ज़ाहिर करना चाहता हूं कि हिंसा के मार्ग पर चलकर स्वराज नहीं मिल सकता. सिर्फ मुश्किलें मिल सकती हैं. 

"मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने समझाया , मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी. वो मैंने इस्तेमाल की. 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी." पाठकों को सनद रहे की भगत सिंह और साथियों को २३ की रात को फांसी दी गयी. 

भगत सिंह की फांसी के बाद गाँधी ने  कहा - भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे. इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया था. उनकी वीरता को नमन है. लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए. उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता. खून करके न्याय और प्रचार हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे." 

यह सही है की गाँधी जी जिस स्थिति में थे वे वायसराय पर अधिक दबाव बना सकते थे लेकिन फिर खुद गाँधी जी ही कहाँ रह जाते अगर वे हिंसा के प्रश्न को अनदेखा करते . उनहोंने असहयोग आन्दोलन हिंसा के कारण  ही वापस ले लिया था .  

भगत सिंह की प्रतिक्रिया : 
अब यह भी जान लें की भगत सिंह क्या सोचते थे अपनी फांसी के बारे में . 

जेल में जब एक पंजाबी नेता ने भगत सिंह से पुछा की उनहोंने अपना बचाव क्यों नहीं किया तो उनका जवाब था  "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं.

"भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को पत्र लिखा और कहा कि मेरे बेटे का जोन सोंडर की हत्या में कोई हाथ नहीं है और वो निर्दोष है. तब भगत सिंह ने उन्हें बेहद सख्त भाषा में जो पत्र लिखा था वह शब्शः आपके सामने रख रहा हूँ . जो लोग भगत सिंह की फांसी माफ़ करने को लेकर गाँधी जी को कोसते हैं , भगत सिंह ने उन्हें गद्दार कहा होता.

(यह पत्र यहाँ से लिया गया है https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1930/pitaji-ke-nam-patra.htm)


"मैं ये बात जानकर हैरान हूं कि आपने मेरे बचाव के लिए स्पेशल ट्रिब्यूनल को अर्जी दी है।आपका पुत्र होने के नाते मैं आपकी पैतृक भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूँ लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूँ कि आपको मेरे साथ सलाह-मशविरा किये बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था। आप जानते थे कि राजनैतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं। मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किये बिना सदा स्वतन्त्रतापूर्वक काम करता रहा हूँ। मुझे यकीन है कि आपको यह बात याद होगी कि आप आरम्भ से ही मुझसे यह बात मनवा लेने की कोशिशें करते रहे हैं कि मैं अपना मुकदमा संजीदगी से लड़ूँ और अपना बचाव ठीक से प्रस्तुत करूँ लेकिन आपको यह भी मालूम है कि मैं सदा इसका विरोध करता रहा हूँ। मैंने कभी भी अपना बचाव करने की इच्छा प्रकट नहीं की और न ही मैंने कभी इस पर संजीदगी से गौर किया है।
आप जानते हैं कि हम एक निश्चित नीति के अनुसार मुकदमा लड़ रहे हैं। मेरा हर कदम इस नीति, मेरे सिद्धान्तों और हमारे कार्यक्रम के अनुरूप होना चाहिए। आज स्थितियाँ बिल्कुल अलग हैं लेकिन अगर स्थितियाँ इससे कुछ और भी अलग होतीं तो भी मैं अन्तिम व्यक्ति होता जो बचाव प्रस्तुत करता। इस पूरे मुकदमे में मेरे सामने एक ही विचार था और वह यह कि हमारे विरुद्ध जो संगीन आरोप लगाये गए हैं, बावजूद उनके हम पूर्णतया इस सम्बन्ध में अवहेलना का व्यवहार करें। मेरा नजरिया यह रहा है कि सभी राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ऐसी स्थितियों में उपेक्षा दिखानी चाहिए और उनको जो भी कठोरतम सजा दी जाए, वह उन्हें हँसते-हँसते बर्दाश्त करनी चाहिए। इस पूरे मुकदमे के दौरान हमारी योजना इसी सिद्धान्त के अनुरूप रही है। हम ऐसा करने में सफल हुए या नहीं, यह फैसला करना मेरा काम नहीं। हम खुदगर्जी को त्यागकर अपना काम कर रहे हैं।मेरी ज़िन्दगी इतनी कीमती नहीं जितनी कि आप सोचते हैं। कम-से-कम मेरे लिए तो इस जीवन की इतनी कीमत नहीं कि इसे सिद्धान्तों को कुर्बान करके बचाया जाए। मेरे अलावा मेरे और साथी भी हैं जिनके मुकदमे इतने ही संगीन हैं जितना कि मेरा मुकदमा। हमने एक संयुक्त योजना अपनायी है और उस योजना पर हम अन्तिम समय तक डटे रहेंगे। हमें इस बात की कोई परवाह नहीं कि हमें व्यक्तिगत रूप में इस बात के लिए कितना मूल्य चुकाना पड़ेगा।पिता जी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे भय है,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निन्दा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जायें। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा। यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके सन्दर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है- निचले स्तर की कमजोरी।यह एक ऐसा समय था जब हम सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं, जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है। मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई, यह बात मैं समझ नहीं सकता। 


पुलिस ने असेम्बली बम के साथ ही सांडर्स की हत्या का आरोपी बना कर भी चार्जशीट दाखिल की . उन्हें मौत की सजा सुनाई गयी . 

जो लोग गाँधी को कोसते हैं बेशक कोसें लेकिन भगत सिंह की माफ़ी के लिए ना कोसें . भगत सिंह बिलकुल नहीं चाहते थे की उन्हें फांसी से बचाया जाए . ये शहादत थी - एक ऊँचे दर्जे की शहादत . इसे इस तरह नीचा ना बनाईये .