– अनुपम दीक्षित
मेरी प्लेलिस्ट में आजकल मैरी मैकग्रेगर का टर्न बिटवीन टू लवर्स भारत की दुविधा को बखूबी व्यक्त करता है . इसके बोलों पर गौर कीजिए -
इसकी भावनात्मक पंक्तियां Torn between two lovers, feeling like a fool, Loving both of you is breaking all the rules , आज भारत की स्थिति को बखूबी अभिव्यक्त करती हैं जब वह हाल के दशकों के सबसे कठिन कूटनीतिक संतुलन को साधने की कोशिश कर रहा है . अब जरा इन पंक्तियों को देखिए जिसमें गीत की नायिका कहती है — "There's been another man that I've needed, and I've loved, But that doesn't mean I love you less" — यह ऐसे ही है जैसे भारत रूस के साथ अपने गहरे ऐतिहासिक रिश्तों को निभाते हुए अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को मज़बूत करना चाहता है लेकिन दोहरी निष्ठा तो नियमों के विरुद्ध ही है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत की "रणनीतिक स्वायत्तता" वॉशिंगटन की एकनिष्ठता की अपेक्षाओं से टकरा रही है.
टैरिफ़: रिपब्लिकन हाथी का ट्रम्पनाद
क्या हुआ ?
अगस्त 2025 में तनाव तब चरम पर पहुँचा, जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारतीय निर्यात पर 50% का चौंकाने वाला शुल्क लगा दिया — पहले के 25% शुल्क को दोगुना करते हुए — ताकि रूस से तेल ख़रीद जारी रखने के लिए नई दिल्ली को दंडित किया जा सके। इससे भारत एशिया का सबसे अधिक कर-भार झेलने वाला देश बन गया।
असर क्या होगा?
ट्रंप के 50% टैरिफ का सीधा मतलब है भारत के व्यापार में 50 अरब डॉलर की कमी. यह एक बड़ी कमी है .बात सिर्फ डॉलर्स की ही नहीं है बल्कि इसके अन्य पहलू भी हैं . इससे भारत में बड़े पैमाने पर नौकरियां जा सकती हैं. प्रमुख क्षेत्र — कपड़ा, रत्न-आभूषण, चमड़ा, रसायन और समुद्री उत्पाद — लंबे संकट में बुरी तरह प्रभावित होंगे। ट्रंप के टैरिफ भारत में बड़े पैमाने पर रोजगार का संकट पैदा करेंगे. गौरतलब है की ये सभी क्षेत्र श्रम प्रधान हैं.
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है (सालाना 87 अरब डॉलर)। इन टैरिफ़ ट्रम्पके बाद भारतीय निर्यातक वियतनाम, बांग्लादेश और जापान जैसे प्रतिस्पर्धियों से पिछड़ सकते हैं। हमारे पास लागत के अलावा कोई खास तकनीकी , आपूर्ति श्रृंखला जैसे प्रतिस्पर्धी लाभ नहीं हैं , और काम लागत भी संरक्षणवादी नीतियों के कारण है। भारत के विदेश मंत्रालय ने अमेरिका के इस कदम को "बेहद दुर्भाग्यपूर्ण" बताते हुए कहा कि अमेरिका समेत दूसरे देश भी रूस से तेल खरीद रहे हैं और भारत की ख़रीद बाज़ार की परिस्थितियों व ऊर्जा ज़रूरतों से तय होती है।
ट्रंप और मोदी की केमिस्ट्री तो हम सबने हाउडी मोदी के दौरान देखी ही थी लेकिन ट्रम्प प्रशासन के विशिष्ट आक्रामक अंदाज़ में की गई इस घोषणा ने भारत -अमेरिकी संबंधों को कूटनीतिक संकट में डाल दिया है, जिससे पिछले दशकों में बनी भारत-अमेरिका साझेदारी की बुनियाद हिल गई है .
भारत - अमेरिका व्यापार समझौते के लिए जारी बातचीत अबतक पाँच दौर के बाद भी बेनतीजा रही है. अब छठा दौर अगस्त अंत में होगा। वाणिज्य मंत्रालय ने कहा है कि सरकार "राष्ट्रीय हितों की रक्षा और संवर्द्धन के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी"। इस बीच, भारत ने तेल आपूर्ति स्रोतों में विविधता लाने के प्रयास तेज़ किए हैं — अमेरिका से तेल आयात छह महीने में 120% बढ़ा है।
आखिर ट्रंप चाहते क्या हैं? ट्रंप ने टैरिफ लगाते हुए कहा — "भारत अच्छा व्यापार साझेदार नहीं रहा… वे युद्ध मशीन को ईंधन दे रहे हैं, और अगर वे ऐसा करेंगे, तो मैं खुश नहीं रहूंगा"। उनके शब्दों में MAGA की राजनीतिक गूँज भी थी और और MAIGA के नारे की विफलता का संकेत भी जिसे हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने अमरीका यात्रा के दौरान दिया था. MAIGA दरअसल MAGA ( Make America Great Again) और MIGA ( Make India Great Again) के मिलने से बनता है. इस तरह के संक्षेपण गढ़ना मोदी और ट्रंप दोनों को ही पसंद है .
क्या ट्रंप को नोबल चाहिए ? अनेक लोग कयास लगा रहे हैं की ट्रंप इसलिए नाराज हैं क्योंकि उन्हें पाकिस्तान -भारत जंग रोकने का श्रेय नहीं मिला और नोबल पुरस्कार हाथ से निकल गया. मेरा मानना है की ये बेहद सतही कारण है. बेशक उनके मन में यह आकांक्षा हो तो गलत नहीं हैं लेकिन वे भारत के टैरिफ पर तो निर्भर नहीं ही हैं.
तो फिर क्या ट्रंप पाकिस्तान - भारत झड़प को शांत करने के प्रयासों में उनकी भूमिका भारत ने स्वीकार नहीं की इसलिए वे नाराज हैं ? अमेरिका की सैन्य और व्यापारिक ताकत बेशक किसी देश को प्रभावित कर सकती है लेकिन भारत जैसे देश को यह स्वीकार करवाना की वह मध्यस्थता के कारण पीछे हटा , नामुमकिन ही है और ट्रंप यह जानते हैं . लेकिन फिर वे यह भी जानते हैं की यह एक बढ़िया दबाव रणनीति है इसलिए वे लगभग 30 बार ट्रुथ सोशल पर यह बात दोहरा चुके हैं. उन्हें जो हासिल करना था वे मुनीर को डिनर पर बुला कर पाकिस्तानन से ट्रेड डील कर के, कर चुके हैं.
ट्रंप के कथन से यह संकेत मिला कि वे भारत से अपने कृषि, रत्न-आभूषण, फार्मा जैसे बाज़ार अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलने की उम्मीद रखते हैं बल्कि वे इससे ज्यादा भी चाहते हैं जिनमें अमरीकी कंपनियों के लिए अधिक रियायतें, अमेरिकी उत्पादों की बाजार तक पहुंच बढ़ाना भी शामिल है .
यदि ट्रंप की कार्यशैली को देखें तो ऐसा लगता जरूर है कि वे एक स्कूल बुली की तरह पेश आ रहे हैं लेकिन हाल ही में जो भी समझौते हुए हैं उनमें अमेरिका को ही फायदा दिख रहा है जापान (550 अरब डॉलर ), EU (600 अरब डॉलर), दक्षिण कोरिया (350 अरब डॉलर) उल्लेखनीय है की ये सभी टैरिफ डील्स ही हैं इसके अलावा कई अन्य समझौते भी हैं जैसे कतर, सऊदी अरब और ब्रिटेन से जिनमें अमेरिका को स्पष्ट फायदा पहुंचेगा . ट्रंप अपने मतदाताओं को दिखाना चाहते हैं कि MAGA सिर्फ जुमला नहीं हकीकत है.
तो फिर कारण क्या हैं ? मेरा मानना है कि भारत के टैरिफ ट्रंप के लिए तुरुप का पत्ता हैं. ट्रंप तीन-आयामी दृष्टिकोण अपना रहे हैं: (1) रूस के तेल राजस्व को कम करने के लिए भारत और चीन जैसे देशों पर टैरिफ लगा कर उसे बातचीत की टेबल पर लाना, (2) यूरोप के साथ व्यापारिक और सैन्य साझेदारी को अमेरिका के लिए फायदेमंद बनाना, और (3) पुतिन के साथ प्रत्यक्ष बातचीत के माध्यम से यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने का प्रयास. ध्यान रहे कि भारत पर टैरिफ की गाज 7 अगस्त को स्टीव विटकॉफ की मास्को यात्रा, जिसका उद्देश्य रूस और यूक्रेन के बीच शांति सुनिश्चित करना था, के बाद ही गिरी है.
अगर वे इन तीनों आयामों में सफल सिद्ध होंगे तो यह अमेरिकी कूटनीति की एक जबदस्त सफलता होगी और ठीक यही वे चाहते हैं . और कौन जाने इसका जश्न वे नोबल ले कर मनाएं.
इसके संकेत भी मिलने लगे हैं . जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं , ट्रंप ब्रेकिंग न्यूज में घोषणा कर रहे हैं की वे राष्ट्रपति पुतिन से 15 अगस्त को अलास्का में शीर्ष वार्ता में मिलने जा रहे हैं . उन्होंने संकेत दिया है की रूस -यूक्रेन युद्ध पर जरूरी डील हो सकती है .
भारत के पास 21 जुलाई तक का समय है किसी भी राजनयिक प्रयास के लिए . राष्ट्रपति पुतिन की प्रस्तावित भारत यात्रा की घोषणा भी 8 अगस्त को हुई है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद पहली बार चीन की यात्रा की तैयारी कर रहे हैं — ऐसे समय में जब वॉशिंगटन से रिश्ते तनावपूर्ण हैं, GOP (Grand Old Party) के "हाथी" की चिंघाड़ के बीच "ड्रैगन" और "हाथी" का नृत्य, और रूसी "भालू" का किनारे से देखना, एक दिलचस्प दृश्य होगा।
![]() |
The Elephant - Dragon Tango |
रूसी रीछ की झप्पी कितनी ऊष्म है ?
भारत को रूस की कितनी जरूरत है ?
भारत और रूस के बीच 78 साल पुराना गहरा दोस्ताना रिश्ता है, जो द्विपक्षीय शिखर सम्मेलनों और उच्च स्तरीय राजनयिक संपर्कों से मजबूत हुआ है। अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा में "भारत-रूस रणनीतिक साझेदारी की घोषणा" हुई और 2010 में पुनः इस रिश्ते को मजबूती देते हुए भारत को "विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी" का दर्जा मिला।
2024–25 में द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड ऊँचाई पर पहुंचकर 68.7 बिलियन डॉलर हो गया, जिसमें भारत का निर्यात 4.9 बिलियन और आयात 63.8 बिलियन डॉलर था।
रूस से भारत को आने वाला कच्चा तेल भारत की कुल आवश्यकता का लगभग 43% है, जिससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित होती है। भारत का तेल आयात रूस के यूक्रेन आक्रमण के बाद ही बढ़ा है.
रक्षा क्षेत्र में रूस भारत का प्रमुख साझेदार है - S-400 वायु रक्षा प्रणाली के पाँच रेजीमेंटों में से तीन पहले ही तैनात हो चुके हैं, ब्रह्मोस मिसाइल कार्यक्रम सफलतापूर्वक चल रहा है, और सुखोई Su-30MKI के लिए HAL लाइसेंस निर्माण सुविधा में 62.6% स्वदेशी सामग्री का उपयोग हो रहा है।
अंतरिक्ष सहयोग में GLONASS और NavIC नेवीगेशन सिस्टम के इंटरऑपरेबिलिटी के लिए दोनों देशों ने ग्राउंड स्टेशन स्थापित किए हैं, और गगनयान मानव अंतरिक्ष उड़ान परियोजना में रूसी तकनीकी सहायता शामिल हैं .
इसके अलावा बहुपक्षीय मंचों—BRICS, SCO, G20—में भारत और रूस ने अक्सर समान रुख अपनाया, और रूस ने भारत के UNSC स्थायी सदस्यता समर्थन का आह्वान किया। आर्थिक दबावों और वैश्विक प्रतिबंधों के बावजूद, दोनों देशों ने रुपया-रूबल भुगतान तंत्र और डी-डॉलराइजेशन के माध्यम से व्यवहारिक समाधान अपनाए हैं।
गौर करने वाली बात है कि टैरिफ़ ऐलान के समय, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल मॉस्को में रक्षा सहयोग बढ़ाने की बात कर रहे थे। रूस ने भारत के "स्वतंत्र रूप से व्यापार साझेदार चुनने के अधिकार" का खुलकर समर्थन किया। ट्रंप की घोषणाओं के बाद राजनयिक एकजुटता दिखाते हुए पुतिन और मोदी के बीच फोन वार्ता 8 अगस्त 2025 को संपन्न हुई जिसमें यूक्रेन स्थिति पर चर्चा, "विशेष और विशेषाधिकार प्राप्त रणनीतिक साझेदारी" की पुष्टि और राष्ट्रपति पुतिन की 2025 के अंत तक भारत यात्रा की पुष्टि शामिल है . इस घोषणा की टाइमिंग से लगता है की भारत ने संदेश दे दिया है कि रूस से संबंध उसके इन घोषणाओं से नहीं प्रभावित होंगे .
भारत को यह भी पता है की जरूरत पड़ने पर रूसी सहयोग ही काम आता है. भारत को रूस की जरूरत चीन को काबू में रखने के लिए भी है क्योंकि SCO, BRICS और G20 जैसे संगठनों में रूस भारत का सहयोगी रहा है .
अमेरिका -चीन व्यापार युद्ध के चलते रूस के चीन के साथ भी संबंध गहरे हो रहे हैं और भारत रूस से बेहतर संबंध बनाए रखना चाहेगा जिससे एशिया में वह इन दोनों को नजदीकी सहयोगी बनाने से रोक सके. भारत रूस के संबंध सिर्फ तेल पर नहीं टिके हैं . इसलिए अगर भारत ऐसे संकेत देता है की वह अमेरिकी टैरिफ के लिए तेल का आयात कम करेगा तब भी रूस -भारत संबंधों पर कोई आंच नहीं आने वाली. ऐसा भी नहीं है की अमेरिकी दबाव में भारत ने प्रतिक्रिया ना दिखाई हो, व्यवहारिकता को देखते हुए भारत ने रूस से अपने रक्षा आयात को 2010 - 2014 के 72% से चरणबद्ध तरीके से घटाया है. 2015-2019 में 55% और अंततः 2020-2024 में 36% कर दिया गया है .
क्या भारतीय हाथी और चीनी ड्रैगन साथ में नृत्य करेंगे ?
भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध : 2025 में भारत और चीन ने अपने 75वें राजनयिक वर्ष की वर्षगांठ मनाई है, लेकिन 2020 में गलवान में हुई झड़पों के बाद विश्वास डगमगा गया है. सीमा गतिरोध के बाद दोनों पक्ष धीरे-धीरे सामान्यीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। भारत की प्रसिद्ध कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जहां कुछ आशा बनी है वहीं कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन पर गतिरोध अभी भी बाकी है.
चीन ने रेयर अर्थ धातुओं के भारत को निर्यात पर रोक लगा दी है जो अभी भी जारी है और भारत को गहरा आघात पहुंचा रही है. रेयर अर्थ पर रोक से भारतीय अर्थव्यवस्था के अनेक सेक्टर्स खतरे में पड़ गए हैं जिनमें ऑटोमोबाइल, मोबाइल, रक्षा, अंतरिक्ष, खनन जैसे बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं . दरअसल अगर ट्रंप के टैरिफ और चीन के प्रतिबंध लंबे समय तक चलते हैं तो भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार में .5% से 1% तक की कमी देखी जा सकती है.
गलवान के बाद से ही बंद पड़ी दिल्ली - बीजिंग सीधी वायु सेवा भी अभी तक शुरू नहीं हो पाई है .
भारत की हानि , चीन को फायदा :
अमेरिका द्वारा चीन पर 100% टैरिफ़ की धमकी और भारत पर पहले से 50% शुल्क लगाने से दोनों ही देश अमेरिकी आर्थिक दबाव के शिकार हैं। यद्यपि चीन ने सफलतापूर्वक अमेरिका को बातचीत के लिए तैयार कर लिया है और ट्रंप दो बार 100% टैरिफ की डेड लाइन बढ़ा चुके हैं.
उल्लेखनीय है की ट्रंप के भारत पर टैरिफ में जिन क्षेत्रों को मुक्त रखा गया है वे हैं , मोबाइल फोन, रेयर अर्थ, फार्मास्यूटिकल, लिथियम आयन बैटरी और सौर ऊर्जा. इन सभी क्षेत्रों में भारत चीन पर पूरी तरह से निर्भर है. ऐसे में भारत पर लगे टैरिफ से चीन को कोई हानि नहीं हैं. चीन का विशाल निर्यात, विकल्पों की उपलब्धता और रेयर अर्थ जैसे तकनीकों में महारथ ने उसे मोलभाव में ऊपरी स्तर पर रखा है.
भारत की स्थिति इससे बिलकुल अलग है. भारत अभी भी उच्च तकनीक के मामले में दूसरे देशों पर निर्भर है. ऐसे में ट्रंप के टेरिफ भारत को असहज स्थिति में डाल रहे हैं .
चीन के लिए अवसर ?
चीन इस अवसर का लाभ उठाना चाहेगा. चीन ने आधिकारिक रूप से भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का समर्थन भी किया है और भारत में चीन के राजदूत ने 1+1=11 का सुझाव दिया है. अगर कुछ लोगों को यह लग रहा हो की यह भारत - चीन संबंधों का स्वर्णिम युग होने जा रहा है तो उन्हें वैसी ही निराशा होगी जैसी हिंदीचिनी भाई भाई के नारे के फेल होने पर हुई थी . दरअसल भारत की रणनीतिक स्वायत्त का समर्थन चीन इसलिए भी कर रहा है ताकि इसके द्वारा पश्चिम और भारत की बढ़ती नजदीकियों को रोक सके . चीन के ग्लोबल टाइम्स ने टिप्पणी की है कि रणनीति की मेज़ पर वॉशिंगटन की सूची में भारत कभी नहीं रहा . दरअसल चीन इस मौके पर दुनियां को यह दिखा रहा है कि जोर शोर से प्रचारित मोदी-ट्रंप कैमिस्ट्री और भारत को रणनीतिक साझेदारी में दरअसल कोई गहराई नहीं है.
इसके अलावा चीन ग्लोबल साउथ के लीडर की अपनी उस धूमिल होती छवि को सुधारना चाहता है जिसपर श्री लंका, मालदीव, पाकिस्तान और कई अफ्रीकी देशों को ऋण के बोझ से लाद देने और ऋण को इक्विटी में बदलने के कारण दाग लग चुके हैं . वह यह दिखाना चाहता है की बिना पश्चिम जैसी शर्तों के चीन एक बेहतर और सम्मानजनक साझेदार है .
इसके अलावा चीन यह भी चाहता है कि भारत उसके ब्रिक्स - रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा बने और चीनी कंपनियों को भारत में और अधिक अवसर मिलें, विश्व में रणनीतिक स्तर पर अमेरिका के स्थान पर चीन को विकल्प के रूप में देखा जाए, दलाई लामा, ताइवान जैसे मुद्दों पर भारत अपने रुख में बदलाव लाए.
भारत कुछ ही दशकों में विकास दर के मामले में चीन से आगे निकल जायेगा. यद्यपि भारत को चीन के स्तर तक पहुंचने में कई दशक लगेंगे लेकिन फिर भी भारत को कमजोर रख कर वह उसे विकास की दौड़ में पीछे रखना चाहता हैं और साथ ही वह भारत के विशाल बाजार में अपनी ऐसी पैठ बनाने में कुछ हद तक कामयाब भी हो गया है कि मोलभाव की मेज़ पर भारत को परेशानी हो .
घरेलू राजनीति और ड्राइंग रूम विदेश नीति :
आर्थिक पक्ष के अलावा यह पहली बार हुआ है जबकि किसी भारतीय सरकार ने अपनी विदेश नीति और रक्षा को घरेलू राजनीति में मुद्दा बनाया है . यह हमने पीएम मोदी की अनगिनत विदेश यात्राओं , पाकिस्तान के साथ झड़पों, नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश के साथ देखा है . अमेरिकी राष्ट्रपतियों की यात्राएं हों या राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा, सभी घरेलू राजनीति को लक्ष्य करके आयोजित थीं. यह नीति चमक दमक के साथ भारत को पेश करती रही और मीडिया ने इसके प्रचार में खुली छूट ली. अब यह अति प्रचार ही भारत को वैदेशिक नीति के फ्रंट पर थोड़ा फीका कर रहा है जबकि वैश्विक नेता इस सरकारी कमजोरी को पकड़ चुके हैं .
विदेश नीतियां भावनाओं पर नहीं पारस्परिक हितों पर आधारित होती हैं . कई बार ऐसे मौके भी होते हैं जब आपको कदम पीछे हटने पड़ते हैं ताकि आगे बढ़ सकें. इसे ही कूटनीति कहते हैं लेकिन अगर निर्णायक पदों पर बैठे लोग इन पर जन भावनाओं के अनुरूप निर्णय लेने लगेंगे तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे. विदेश नीति लोगों के ड्राइंग रूम में तय नहीं होती.
प्रधानमंत्री मोदी की 31 अगस्त–1 सितंबर को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के लिए चीन यात्रा 2018 के बाद पहली होगी, और 2020 की गलवान झड़प के बाद पहली और इस पर अभी से सोशल मीडिया. अच्छा यही रहेगा कि परंपराओं के अनुकूल ही सरकार इस विषय पर विपक्ष को सूचित रखे और उनसे सहयोग लेकर ही आगे बढ़े.
भारत के विकल्प क्या हैं ?
भारत चीन पर दबाव बनाने की हर संभव रणनीति अपनाना चाहेगा. लेकिन चीन के मुकाबले , भारत के पास सीमित विकल्प उपलब्ध हैं. यद्यपि भारत multi-alliance के अनुरूप ही रूस, अमेरिका, चीन और यूरोप सभी से वार्ता कर रहा है और सभी संभव क्षेत्रीय मंचों का प्रयोग कर रहा है . (RIC - Russia -India -China) त्रिकोणीय सहयोग, जो सीमा तनाव के कारण वर्षों से निष्क्रिय था, फिर से सक्रिय होने के संकेत दे रहा है। रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने कहा कि "बीजिंग और नई दिल्ली दोनों RIC बनाए रखने में स्पष्ट रुचि दिखा रहे हैं"।
भारत का एक साथ क्वाड, SCO, BRICS संगठनों में शामिल होना भारत की मल्टीएलायंस की जांची परखी नीति के अनुरूप ही है जिसका विकास नेहरू की गुटनिरपेक्षता नीति से ही हुआ है. या यूं कहें कि यह गुटनिरपेक्षता का नया नाम है और असल में नया भी नहीं है . खुद नेहरू ने गुट निरपेक्षता को समझते हुए कहा था कि यह सबसे दूरी बनाने की बजाए सबसे संबंध रखने की नीति है . यह किसी एक गुट से नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से संबंधों की नीति है . भारत इन मंचों का प्रयोग वॉशिंगटन और चीन दोनों पर बेहतर दबाव बनाने के लिए कर सकता है .
प्रधान मंत्री की चीन यात्रा से मुझे बहुत उम्मीदें नहीं है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर यदि चीन से बात बने तो भविष्य के लिए अच्छा होगा. भारत हीरों किया कटाई , पॉलिशिंग और फिनिशिंग का सबसे बड़ा केंद्र है और विष की अनेक हीरा कंपनियां यहां की सेवाएं लेटिन हैं . उधर चीन पूरे विश्व में कृत्रिम हीरों का 40% से अधिक का उत्पादन करता है . दोनों देश इस मुद्दे पर यदि सहमत हों तो भारत के लिए जेम और ज्वैलरी बाजार में विविधता बनाने में आसानी होगी और ट्रंप टैरिफ का असर भी काम रहेगा.
दूसरा क्षेत्र फार्मास्यूटिकल API आउट निर्यात का है जिस पर भारत ने संरक्षण नीतियां अपनाएं हैं . अनेक भारतीय कंपनियों के एपीआई के लिए चीन में निवेश किया है . दोनों देश अगर इसमें किसी नतीजे पर पहुंचते हैं तो यह win-win स्थिति होगी.
इसके अलावा भारत बुनियादी ढांचे में चीन से तकनीकी सहयोग , सूचना प्रौद्योगिकी और कृत्रिम -बुद्धिमत्ता , विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में असीम संभावनाएं हैं . भारत को आगामी बैठक का पूरा फायदा उठाना चाहिए
भारत के लिए यह रोमांस नहीं, बल्कि रणनीतिक आवश्यकता है।
भारतीय हाथी और चीनी ड्रैगन का डांस दिलचस्प तो है लेकिन यह एक दुर्लभ से भी दुर्लभ अवसर होगा और रिपब्लिकन हाथी की चिंघाड़ दोनों में से किसी के लिए भी “संगीत” जैसी तो नहीं है .