विचार पक्षियों जैसे होते हैं। मस्तिष्क के विशाल और अनंत फलक पर वे बादलों की तरह अचानक आते हैं, आकृतियाँ बदलते हैं, पक्षियों की तरह मँडराते हैं और फिर दूर कहीं गुम हो जाते हैं। बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनियाँ मेरे आगे, होता है शब ओ रोज़ तमाशा मेरे आगे। इन्हीं तमाशों पर जो विचार आकार लेते हैं उन्हें पकड़ने का प्रयास है यह चिट्ठा। आपको अच्छा लगे तो एक लघु चिप्पी चस्पा करना ना भूलें।
21 दिस॰ 2011
19 दिस॰ 2011
अदम गोंडवी का जाना
साल 2011 न जाने क्यूँ जाते जाते कुछ ऐसे लोगों को ले जा रहा है कि लगता है बहुत अकेले हो जाएंगे आने वाले साल में। पहले बचपन के अंकल पै (टिंकल वाले - मेरी उम्र के नौजवान अभी भी शायद चकमक, डूब डूब और कालिया को नहीं भूले होंगे) फिर भोपेन हजारिका, जगजीत सिंह, देवानन्द और अब जमीनी शायर अदम। वक्त की पहचान जब साथ छोड़ने लगे तो समझना चाहिए कि अब वक्त बदलने का है। वक्त के बदलने का एहसास तो पहले भी था फिज़ाओं में जब अदीबों ने विचारधाराओं के अंत की घोषणा कर दी थी और जमीनी बात करने वाले को पूजीवादी गलियों (कम्युनिस्ट एक गाली है पूजीवादी दयारों में) से नवाजा जाने लगा था। ऐसे ही एक बेअदब जमीनी कवि थे अदम। दुष्यंत कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुये अदम्य जिजीविषा के धनी रामनाथ सिंह ने लोगों की असल बात कहने का जोखम उठाया था। उनके कुछ अशआर देखिये।
काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में .
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में.
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में.
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
ससद बदल गयी है यहाँ की नखास में.
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक विडम्बना है जो ऐसी रचनाएँ अभी तक समीचीन बनी हुयी हैं। व्यवस्था निरंतर जस की तस है और जनता त्रस्त है। क्या यह हमारे लिए या प्रेमचंद के लिए शर्म की बात नहीं है की होरी आज भी न केवल ज़िंदा है बल्कि उसके हालात पहले से भी गए बीते हैं। हम प्रगति और विकास की बात करते हैं लेकिन इस विकास का जमा हासिल आखिर क्या है? ज़रा गौर से देखिये कि अदम की दृष्टि वह देखती है जो आसानी से दिखता नहीं। कितना व्यंग्य और व्यथा है।
· इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
· जो उलझ कर रह गई फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में
· आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
· ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.
और शहरों के इस उबाऊ अंधेर से घबरा कर ही शायद उनका यह शेर मुकम्मल हुआ होगा।
· ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
· न इनमें वो कशिश होगी, न बू होगी, न रानाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी क़तारों में
· अदीबों! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में
और बेशक आपको बुरा लगे आखिर हम मध्यमवर्गीय लोगों के संस्कार तो हैं ही सामंतवादी - लेकिन फिर भी
· वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
· इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
पूंजीवाद का ढोल बज रहा है। आइरन हील शाश्वत चक्र की भांति मंथर गति से घूम रहा है और 2011 तेजी से 1984 की अवस्था में पहुँच रहा है (यहाँ में ऑस्कर वाइल्ड के प्रसिद्ध उपन्यास 1984 की बात कर रहा हूँ)। जमीनी बात करने वाले हाशिये पर हैं। भारत सुपर शक्ति बन गया है। अच्छी बात है। प्रोपेगैण्डा सही जा रहा है। भारत धनवान है। काले धन की सूची बताती है। भारत में संभावनाएं हैं यह करोड़ों की संपत्ति वाले चपरासियों और क्लर्कों से साबित हो रहा है। आंदोलन हो रहे हैं और सरकार कटघरे में है। मनरेगा और खासुबि भी चल रहे हैं लेकिन फिर भी सोचता हूँ की अब जमीनी लोगों की बात कौन कहेगा। इस डर्टी पिकचर के युग में, मुन्नी, शीला, राजा, कलमाड़ी के दौर में भला अब कौन मेरा ध्यान जब तब सच्चाईयों की जमीन तक मोड़ेगा? शायद तुमने सोचा होगा -
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए
(दुष्यंत कुमार)
5 दिस॰ 2011
ज़िंदगी से इश्क़ का फसाना - देव आनंद
88 वर्ष का यह पुराना शख्स निरंतर नवीनता कि खोज में लगा रहा। चाहे वह फिल्में हों, फिल्में बनाने का तरीका हो, हीरोइने हों या असल जिंदगी में उनकी प्रेमिकाएँ हों। सुरैया, कामिनी कौशल और ज़ीनत अमान के साथ उनके रोमांस के किस्से भी चले और यह सभी असफल प्रेम कहानियों कि परिणति को प्राप्त हुये। इन पर सोचते हुये उन्हें कहते सुना कि हार असल में ग्रोथ है। असफलता नए दरवाजे खोलती है और हर बार जब में हारा तो मुझे नया मुकाम मिला। ऐसे ही फलसफे का बयान है उनकी आत्मकथा "रोमांसिंग विथ लाइफ" जिसमें अनेक किस्से रोचक भी हैं। आज उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है वह शायद ही भर पाये। मन तो नहीं हुआ उनकी मौत पर दुखी होने का पर फिर भी
तो आइए अब से कुछ दिनों तक हम उनकी तरह ही इस ज़िंदगी का जश्न मनाएँ और इसके उन लम्हों को भरपूर जिएँ जो कि बस आज ही हैं - क्या पता कल हों न हों।
अंत में एक खूबसूरत गीत उन्हीं की फिल्म से।