12 नव॰ 2012

Oh My God: भगवान की सही व्याख्या

भगवान को देखा है? कैसा है वह? कहाँ रहता है ? हिन्दू है या मुसलमान? आदमी है या औरत? शक्ल कैसी है? ये और इन जैसे अनेक प्रश्न मनुष्य को आदि काल से मथते आए हैं। इसी मंथन से वेद, उपनिषद, वेदांग, गीता, बाइबल, अवेस्ता, क़ुरान जैसे ग्रंथ निकले हैं। इन्हें किसने रचा कोई नहीं जानता पर इनमें मानव जाति  के सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान का समावेश है। यह ज्ञान है अस्तित्व का, मनुष्य के होने के कारण का, उसकी कठनाइयों का और उसकी जिम्मेदारियों का। यह ज्ञान है मनुष्य के विकास का, उन्नयन का। पशुत्व से मानवत्व के विकास की कुंजी का। यह ज्ञान है आस्था का, भरोसे का और इसी ज्ञान से जब जब भरोसा टूटता है तब तब उसे फिर से स्थापित करने के लिए किसी मुहम्मद, ईसा, कृष्ण या बुद्ध को आना पड़ता है और इन ग्रन्थों की शिक्षाओं को फिर से नए संदर्भों में स्थापित करना पड़ता है। दुनियाँ के सबसे पुराने हिन्दू धर्म में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। इस धर्म में निरंतार नए तत्वों का समावेश होता रहा है। यह सबको अपने भीतर ले कर चलने वाला सही मायने में लोकतांत्रिकता का प्रतीक है। इसमें सनातन से लेकर पुरातन, नास्तिक, तांत्रिक, अघोर, शैव, शक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन, निरीश्वरवादी और हर तरह का वाद विवाद शामिल होता आया है। यह धर्म हर एक वाद को फलने फूलने का स्पेस देता आया है। इसीलिए जब ओह माई गॉड में कांजी भाई (कान्ह जी - कृष्ण का अपभ्रंश) भगवान को कोसते हैं और मूर्तियों का धंधा चोखा करते हैं तो कोई फतवा जारी नहीं होता। कोई मंत्री करोड़ों के ईनाम की घोषणा नहीं करता। लोग हँसते हैं और कांजी भाई की बातों पर कहीं गहरे ध्यान भी देते है। संतों के विद्रूप पर किसी का सिर कलम करने की घोषणा नहीं होती। OMG मज़ाक में उस धर्म की उस सड़न की ओर इशारा करती है जिसकी दुर्गंध के अब हम आदि हो गए हैं। अनेक बापू, बाबाओं और निर्मलो के चोखे धंधे से पर्दा फ़ाश करती यह फिल्म एक सरहनीय प्रयास है। भगवान का असली स्वरूप तो प्राणियों में है। देखने के लिए ज्ञान चक्षु नहीं प्रेम की दृष्टि चाहिए। एक शायर का कहना है

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, जिसको देखा ही नहीं उसको खुदा कहते हैं।

फिल्म कांजीभाई को नास्तिक कहती है और नास्तिक का अर्थ भी बताती है - वह जो प्रमाण में आस्था रखे। यह भारत की ही खूबी है की वैदिक दर्शन को ना मानने वाले नास्तिक दर्शन भी हिंदुओं के ही माने जाते हैं। चार्वाक के लोकायत दर्शन का भौतिकवाद, बुद्ध का क्षणिकवाद और जैन का इंद्रियनिग्रह एक ही समस्या के अलग अलग हल हैं। बौद्ध और जैन धर्मों ने मानवता, अहिंसा और क्षमा पर जो बल दिया है वह असल में इसी तथ्य पर बल है की असली धर्म है प्राणियों के प्रति दया, अहिंसा, शुद्ध विचार और सादा जीवन। आडंबर यज्ञ, कीर्तन, पूजा और मंत्रों से श्रेष्ठ है दया और मन की शुद्धता। मन चंगा तो कठौती में गंगा। दारम की सरलता में ही उसका कल्याणकारी स्वरूप निहित है। आज बापुओं, निर्मलो ने न केवल धर्म को दुकान में बदल दिया है बल्कि उसका विद्रूप भी बना दिया है। खैर दुकानें तो चलती ही रहेंगी संतोष बस इतना  ही है की इनके खिलाफ आवाज़ उठती रहनी चाहिए। जो समाज खुद की आलोचना नहीं करता वह विकसित नहीं हो सकता है।

1 टिप्पणी:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

"भगवान का असली स्वरूप तो प्राणियों में है। देखने के लिए ज्ञान चक्षु नहीं प्रेम की दृष्टि चाहिए।" ...... सहमत हूँ।

संक्षेप में काफी कुछ कहते हैं आप। साधु!

आपकी इस फिल्म समीक्षा से आपके लेखन का उत्फ लेना शुरू कर रहा हूँ।