4 अक्तू॰ 2012

अखिलेश सरकार के 6 महीने और आशाओं का टूटना

अखिलेश सरकार को 6 महीने हो गए हैं और यूपी अब भी वैसा ही है। आशाएँ टूट रहीं हैं। प्राइमटाइमों में बैठ कर बकैती करने वाले बातों के वीर अखिलेश के युवा होने को ले कर ऐसे उत्साहित थे जैसे उनसे पहले और कोई युवा नहीं हुआ। एक और युवा हैं हमारे देश में जिनको ले कर ऐसे ही जानकारों को बहुत आशाएँ हैं।
 अखिलेश सरकार से उन्हें आशाएँ थीं जो किसी के युवा होने को ही सारी योग्यता समझते हैं। मीडिया भी इसमें एक पार्टी है। यह भ्रम दरअसल राहुल के लिए फैलाया गया और गपक लिया अखिलेश ने। किसी से आशाएँ तब रखी जातीं हैं जब उसने ऐसे कोई काम किया हो। यहाँ तो मुलायम और उनके बेटे की उम्र का तकाजा है। अखिलेश को आना ही था। जनादेश मायावती को भी था तब भी उनसे अजीब आशाएँ कीं गईं थीं की अब यू पी का विकास होगा पर कुछ नहीं हुआ। यही आशाएँ अब अखिलेश से है। जनादेश अगर बसपा या सपा को मिलता है तो समझा जाना चाहिए की जातिवादी राजनीति और मजबूत हुयी है। जातिवादी राजनीति यहाँ की जमीनी सच्चाई है और देश के विकास का रास्ता जाति को समाप्त कर के नहीं बल्कि उसके साथ ही खोजना होगा। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आप सांस्कृतिक पहचान को नकार कर नहीं बाली उसके जरिये ही सर्वसम्मति का निर्माण कर सकते हैं। गांधी जी की आलोचना होती है की वे जाति के समर्थक थे पर आलोचक भूल जाते हैं की वे जाति को मान्यता देते थे पर जातिवादी राजनीति नहीं करते थे। राजनीति का शॉर्टकट है जातिवादी राजनीति। यह अपेक्षाकृत कम मेहनत वाल काम है की आप टिकटों का जाति और धर्म के नाम पर बंटवारा करें बजाय इसके की आप जनता के बीच जाकर कड़ी मेहनत और लंबे समय तक काम करके अपना आधार तैयार करें जिसमें सभी वर्गों, धर्मों और जातियों का हिस्सा हो। स्वतन्त्रता आंदोलन ने अनेक नेताओं को यह अवसर दिया था और उनका राजनीतिक आधार व्यापक था। आज़ादी के बाद जैसे जैसे ये नेता निष्क्रिय होते गए और जो नए नेता आए उनमें से अनेक नेताओं ने जनाधार की बजाए जातीयधार को तवज्जो दी। इस राजनीति को चमकाने के लिए जातिवाद और सांप्रदायिकता के हर संभव मुद्दे को उखाड़ा गया, विकसित किया गया हर खाई को चौड़ा किया गया। ऐसे माहौल में सिर्फ एक युवा, खानदानी वारिस से विकास की अपेक्षा करना असल में उसके साथ ज्यादती ही है। यह अपेक्षा और निराशा तो तब होती जब अखिलेश ने ऐसे लक्षण दिखाये होते जो उन्हें झुंड से अलग दिखाते। उनकी पार्टी अभी भी बाहुबल, जाति और अल्प्सख्यकवाद के अचूक नुस्खे पर ही चलती है और वे इस नुस्खे के नए पैकेट भर हैं। खैर आशावादियों को मुबारक हो उनकी निराशा अपन तो निराशावादी ही अच्छे।

अनुपम दीक्षित 

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