5 अग॰ 2011

बोल.................. ..........कि लब आज़ाद हैं तेरे


बोल एक फिल्म नहीं आवाज़ है। यह आवाज़  जहां से आई है वहाँ आवाज़ों को दबाने का रिवाज़ रहा है। यह राजनैतिक आवाज़ नहीं है -सामाजिक आवाज़ है। लाहौर की गलियों से निकाल कर हमारे दिल की गहराइयों में गूँजती यह आवाज़ हमें सोचने को मजबूर करती है । चाहे भारत हो या पाकिस्तान लड़की का जन्म दोज़ख की आग है। एक साथ कई प्रश्नों से रूबरू करती बोल धर्म की एकतरफा व्याख्या पर भी बहुत तीखा व्यंग्य है। फिल्म में हिंदुस्तान से आए एक हकीम साहब और उनके परिवार की कहानी है जो हकीम जी की लड़के की आरज़ू में सात बेटियों और एक ट्रांसजेंडर सैफुद्दीन सहित एक बड़ा कुनबा हो गया है। पर्दानशीन यह बेटियाँ घर में कैद हैं। स्कूल से दीवार सटी होते हुये भी स्कूल उनके लिए मीलों दूर है। हकीम साहब के दक़ियानूसी विचार, उच्च कुल की ऐंठ  और कम आमदनी के चलते परिवार अनेक मुसीबतों में घिरा है। दुनियाँ देखने की छटपटाहट और मुफ़लिसी का दोज़ख न केवल हकीम जी को बल्कि उनकी लड़कियों को भी बहुत से  अप्रिय फैसले लेने पर मजबूर करता है। हकीम जी की सबसे बड़ी लड़की जैनब ही फिल्म की केन्द्रीय पात्र है और कहानी उसी के नेरेशन के साथ आगे बढ़ती है। उसके जरिये मंसूर का कैमरा बेधड़क सच्चाइयाँ दिखाता रहता है। इस समाज में न हिजड़ों का कोई स्थान है और न ही बेटियों का। धर्म केवल औरतों के लिए है। हकीम साहब कर्ज़ के लिए तवायफ के साथ सो कर उतने नाराज़ और शर्मसार नहीं हैं और ना ही अपनी औलाद के कत्ल से बल्कि वे ज्यादा नाराज़ है कि उनकी एक बेटी शिया लड़के से शादी कर रही है। मुस्लिमों में आबादी नियंत्रण को ले कर फैली दक़ियानूसी सोच पर नश्तर चलाती यह फिल्म धीरे से वह कह देती है जिसे कहने की हिम्मत बहुतों में नहीं होती। फिल्म का अंत होते होते निदेशक न जाने कितनी समस्याओं को बखूबी उठा चुका होता है। फिल्म शिक्षा की आवश्यक्ता और उदार सोच की अहमियत भी बताती चलती है। किसी फिल्म के बहाने ही सही हमारे देश के दोनों समुदायों के के लोग अगर अपने कठमुल्लेपन पर कुछ शर्म महसूस करें तो फिल्म निर्देशक का  प्रयास सफल हो जाएगा।

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