9 जून 2011

सत्ता और शक्ति

सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्णतः भ्रष्ट करती है। राजनीति के एक गुरू का यह कथन 5 जून की रात मेरे सामने साक्षात खड़ा था जब भारत की लोकतान्त्रिक रूप से चुनी सरकार ने भारत के लाखों लोगों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध शांतिपूर्ण अनशन को बर्बरता से कुचलने का प्रयास किया। कांग्रेस को पिछले आम चुनावों में सफलता क्या मिली वह अपना असली काम भूल कर न केवल जनता को लूटने में लग गई बल्कि उसे यह भी गुमान हो चला है की उसका अब कोई विकल्प नहीं है और जनता की मजबूरी है कांग्रेस को चुनना। कहते हैं इतिहास अपने को दुहराता है लेकिन यह उन्हीं के लिए सही है जो इतिहास से सबक नहीं लेते और शायद कांग्रेस ने यह सबक नहीं लिया है की जनता के आंदोलनों में शाश्वत लगने वाली सत्ताएँ भी तिनकों की तरह उड़ गईं। कांग्रेस द्वारा दमन कार्यवाही इसी गुरूर का नतीजा है।
इसमें वही बू है जो उपनिवेशवादी ब्रिटिश सत्ता की कार्यवाही में होता था। जलियाँवाला कांड की अनुगूँज यहाँ सुनाई देती है और शायद इस बार कांग्रेस सत्ता में आती है तो वोह दिन दूर नहीं लगता जब देश के पास एक और जलियाँवाला कांड होगा। इस बार तो शायद कोई गांधी भी नहीं होगा हमारे पास। एक ऐसे देश ने जिसने अपनी आज़ादी और संविधान को अहिंसा, अनशन और सत्याग्रह के रास्ते पाया था और संविधान ने भी इस रास्ते को सही मानते हुये इस प्रकार के प्रदर्शन की अनुमति दी है, सरकार की कार्यवाही ने संविधान के मूल ढाँचे पर ही कुठराघात किया है। उस पर प्रधानमंत्री का यह कहना की इस कार्यवाही का कोई विकल्प नहीं था। यदि किसी सरकार के पास अपने ही नागरिकों से आँसू गैस, लाठीबाजी दमन के जरिये निपटने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता तो हमें समझ लेना चाहिए की सरकार की मंशा खतरनाक है और वह एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लायक नहीं है क्यूंकी लोकतन्त्र में हमेशा शांतिपूर्ण विकल्प मौजूद रहते हैं और सरकार का काम उन्हीं विकल्पों को खोजना है न की रामलीला मैदान को थिएन अन मन चौक बनाने की योजनाएँ तैयार करना। जो हुआ वह संवैधानिक और नैतिक दृष्टि से नाजायज था। संविधान हमें भारत का नागरिक होने के नाते यह मौलिक अधिकार देता है की हम अपने असंतोष को शांतिपूर्ण तरीके से सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित कर सकते हैं। लेकिन सरकार ने लोगों के इसी मौलिक अधिकार पर आघात तो किया ही है साथ ही भारतीय लोकतंत्र की अंतर्राष्ट्रीय साख पर भी कलंक लगाया हैं।

बाबा का आंदोलन चाहे जो हो पर अंततः वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही था, और सरकार इसे अपने विरुद्ध मान बैठी। इससे यही सिद्ध होता है की सरकार और भ्रष्टाचार एक ही हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध हर आंदोलन सरकार को अपने विरुद्ध लगता है मतलब साफ है की चोर की दाड़ी में तिनका। यह ठीक है की बाबा की मांगें सरकारी दृष्टि से अव्यवहारिक हैं और विदेशों में रखी संपत्ति को राष्ट्रिय घोषित करना और उसे वापस लाना एक लंबी प्रक्रिया से ही संभव है पर सरकार इस पर ठोस कार्यवाही शुरू कर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध गंभीर होने का संदेश भेज सकती थी और सरकार ठीक यही करने में हर बार विफल रही फिर चाहे वह राष्ट्रमंडल खेल हों, 2जी घोटाला हो, अन्ना का अनशन हो या फिर बाबा का सत्याग्रह। हर बार सरकार की भ्रष्टाचार के विरुद्ध कदम उठाने में आनाकानी से जनता को यही संदेश गया है की दाल में बहुत कुछ काला है। शायद कपिल सिब्बल ब्रिग्रेड की सोच यही है की भारत में भ्रष्टाचार एक जीवन शैली बन चुका है और इस पर चलने वाले आंदोलन प्रभावहीन है लेकिन वे यह भूल जाते है की सत्य का एक विशिष्ट गुण है कि सत्य का पाखंड भी सत्य के करीब ले जाता है। लेकिन सिब्बल साहब शायद हिटलरी मुहावरे को पसंद करते हैं जो कहता है कि झूठ को सौ बार दुहराने पर वह सत्य प्रतीत होने लगता है। वे हर बार आरोपी का बचाव करते हैं, शगूफे छोड़ते हैं, मुद्दे से भटकने कि कोशिश करते हैं और प्रोपेगेंडा फैलाते हैं। पर सनद रहे की सत्य शाश्वत होता है और झूठ अल्पजीवी और सत्य यही है की सरकार की विश्वसनीयता घटी है।