21 फ़र॰ 2011

टीपू के रोकेट और अमेरिकी राष्ट्रगान – ऊंची उड़ान

टीपू के रोकेट और अमेरिकी राष्ट्रगान ऊंची उड़ान
1780 ईस्वी में ब्रिटिश फौजें मैसूर के हैदरअली और टीपू सुल्तान की फौज से लड़ रहीं थीं। अंग्रेजों की धूर्तता यहाँ काम नहीं आई थी। भीषण युद्ध के बीचों बीच अचानक एक साथ धमाके हुये और ब्रिटिश सैनिक हतप्रभ ह गए। उन पर जलते हुये पत्थरों से हमला हुया था। अंगारों की आसमान से बारिश हो रही थी। यह दूसरा युद्ध था मैसूर से। इन जलते अंगारों ने अङ्ग्रेज़ी हथियार डिपो को उड़ा दिया। खबर तुरंत अंग्रेजों के एक अफसर विलियम कोंग्रीव तक पहुंचाई गई। उसने इन उड़ते तीरों को ध्यान से देखा और फौरन पहचान गया। यह बारूद से भरे लोहे के तीर थे जिन्हें एक प्रक्षेपण आधार (लौंचिंग पैड) से छोड़ा जा रहा था। उस युद्ध में मैसूर की जीत हुयी और अंग्रेज़ चिंतित हो गए थे अगर यहाँ हार मिली तो सब खतम हो जाएगा। कोंग्रीव इन रॉकेटों को अपने साथ ले गया और इन में कुच्छ फेरबदल कर अधिक दूरी तक मार करने वाले और ज़्यादा सटीक रॉकेट बनाए जिन्हें तोपखाने के साथ मारक हथियार के रूपमें इस्तेमाल किया जा सकता था। कोंग्रीव के रॉकेट उपयोगी सिद्द हुये और जल्दी ही इन्हें अपनी उपयोगिता दिखने का अवसर भी मिल गया। ब्रिटेन एक नए राष्ट्र से युद्दरत था। यह राष्ट्र असल में उसी के व्यापारियों, नागरिकों और अन्य यूरोपीय लोगों ने नयी दुनियाँ अर्थात उत्तरी अमेरिका महाद्वीप पर बसाया था। इन रोकेटों का फ्रांस की 1789 की क्रांति में और आयरलैंड की क्रांति में भी प्रयोग किया गया था और अब अंग्रेजों ने अमेरिकी विद्रोहियों के खिलाफ इस मारक हथियार का प्रयोग 1812 के युद्ध में किया गया। इन्हीं रोकेटों की बौछारों से प्रेरित हैं अमेरिकी राष्ट्रगान तराच्छादित पताका (Star spangled Banner ) की ये पंक्तियाँ “And the rockets’ red glare, the Bombs bursting in the air” और निश्चित ही चीनियों के बारूद व टीपू के तोपखाना विशेषज्ञों की मेधा से बने ये रॉकेट आज की अति उन्नत मिसाइलों के पड़बाबा हैं और हमें गर्व होना चाहिए की इनकी जड़ें भारत में हैं। यह संयोग नहीं है की भारत का आतिशबाज़ी केंद्र आज शिवकाशी में है जो तमिलनाडू में स्थित है जहां कभी मैसूर का राज्य था।

13 फ़र॰ 2011

(सोनिया) गांधी जी के तीन बंदर

थॉमस की चार्जशीट - जानकारी नहीं थी
राजा का घोटाला - अनदेखा किया
कलमाड़ी की कलाबाजी - कुछ नहीं कहा

10 फ़र॰ 2011

पाकिस्तान में आत्मघाती हमला - 21 की मौत

पाकिस्तान की आत्मघाती प्रवृत्तियाँ ही इस आत्मघात की जिम्मेदार हैं। पाकिस्तान खुद तो अशांत है ही अपने क्षेत्र को भी अशांत करता रहा है। एक देश के रूप में पाकिस्तान पूरी तरह से व्यर्थ रहा है। पाकिस्तान के लोगों को भी अपने मिस्री भाइयों से प्रेरणा ले कर एक भीषण जनांदोलन खड़ा कर देना चाहिए जम्हूरियत के पक्ष में और तानाशाही के विरुद्ध। आतंकवाद से अमेरिकी लड़ाई  उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी गरीबी, भुखमरी और बेकारी से लड़ाई। अमेरिका तो अपनी लड़ाई फिर भी लड़ ही लेगा पर पाकिस्तान को यह लड़ाई खुद ही लड़नी होगी।  पाकिस्तान की आवाम को अब अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए जम्हूरियत, अमन और तरक्क्क़ी के लिए। एक अमनपसंद पाकिस्तान भारत का बेहतरीन पड़ोसी हो सकता है।

2 फ़र॰ 2011

दिल तो बच्चा है जी - अंत ज़रा कच्चा है जी

दिल तो बच्चा है जी देखने गया था। मधुर भंडारकर की है इसलिए भी उत्सुकता थी। देखी। पर भंडारकर गच्चा खा गए। फिल्म इर्द गिर्द घूमती है महानगर में तीन अलग अलग लोगों कि ज़िंदगियों के आस पास। तीनों का ज़िंदगी को ले कर अपना दर्शन है। अभय वन नाईट स्टेंड में विश्वास रखने वाला पुरुष वेश्या है। परजीवी है। इसी से उसकी रोज़ी रोटी चलती है। दूसरी ओर अधेड़ उम्र का बैंक मैनेजर है जिसका तलाक हो चुका है और तलाक होते ही वह अपनी नई सेक्रेटरी जून पर फिदा हो जाता है। और जून भी नई पीढ़ी कि उस बिरादरी से है जिसका हर संदर्भ अमेरिका या यूरोप से शुरू होता है और वहीं खतम भी होता है, जिसमें मेक अप और ब्रेक अप रोजाना की बात है। एक तीसरा आयाम है मिलिंद का जो प्रेम को उसी नज़रिये से देखता है जिससे हम और आप और हमारा बॉलीवुड देखता आया है। वह पड़ा है गुनगुन के चक्कर में जो उसे यूज़ करती है। अब कहानी को कौमेडी बनाने पर जो ध्यान दिया जाना चाहिए था नहीं गया है और महानगर कि नंगी संस्कृति और अकेलेपन को जिस शिद्दत से दिखाया जा सकता था नहीं दिखाया जा सका है नतीजतन यह एक ऐसी फिल्म बन जाती है जिसमें बक़ौल फिल्म की एक पात्र " हुमर भी नहीं है और सेंस भी नहीं " पूरी फिल्म में दर्शक को पता होता है कि आगे क्या होगा और जहां कौमेडी की गई है वह भी इतनी बार दोहराई गई है कि अब उसमें से हंसी निकाल पाना वैसा ही है जैसे निचुड़े नींबू सी रस निकालने कि कोशिश। खैर फिल्म में एक कहानी है और यदि आप बहुत ऊंची अपेक्षाओं के साथ नहीं जाते है तो फिल्म देखी जा सकती है। मधुर खुद अपने जाल में फंस गए हैं। फिल्म के अंत से ठीक पहले अंत हो जाता है लेकिन मधुर हिम्मत नहीं कर पाये है इस अंत को अंत बना रहने देने को। अजय देवगन की माशूका की शादी उसके मेक अप ब्रेक अप बॉय फ्रेंड से हो जाती है तो अभय जो कि इस समय एक ऊबी हुयी औरत का रखैल बना हुआ है उसी की बेटी से दिल लगा लेता है। लेकिन यहाँ उसे सेर को सवा सेर मिल जाता है और उसे मक्खी की तरह निकाल कर फेक दिया जाता है। उधर गुनगुन का दीवाना मिलिंद गुनगुन को 200000 रुपये दे कर हेल्प करता है बदले में प्रेम की जगह एक गुलदस्ता और पत्र पा कर टूट जाता है।  फिल्म यहीं खतम होती तो सार्थक लगती। पर हाये रे हिन्दी फिल्मों का हैप्पी एंडिंग फंडा। मधुर को व्यंग और हास्य दोनों में तालमेल बैठने की जरूरत है। में इस फिल्म को 2.5 स्टार्स दे रहा हूँ।

एक देशद्रोही की दुविधा

एक देशद्रोही की दुविधा
मैं भारत का नागरिक हूँ और मुझे अन्य सभी की भांति अपने देश से प्यार और गर्व होना चाहिए पर अभी एक दिन एक बहस के दौरान जबकि मैं ट्रेन में सफर कर रहा था मुझे साथी यात्रियों की आलोचना झेलनी पड़ी। मुझे देश द्रोही कह दिया गया तो में आवक रह गया। मेरा कसूर सिर्फ इतना था की कॉमनवेल्थ खेलों के उदघाटन समारोह के बाद भी में इनकी आलोचना करने की गुस्ताखी कर रहा था और मेरे साथी यात्रियों का कहना था की अब हम सबको आलोचना भुला कर खेलों का समर्थन करना चाहिए। मैं भारत में रहता हूँ और भारत के हित में सोचता हूँ पर जब ओबामा आते हैं और हमें हवाई वादे करके तगड़े सौदे करले जाते हैं तो मुझे गर्व भारत पर नहीं ओबामा की देशभक्ति और उनकी शक्ति पर होता है। सर्कोज़ी आते हैं तो देते कुछ नहीं हैं बल्कि देने के बदले ऐसी शर्तें लगा देते हैं जिससे उनकी जिम्मेदारियाँ कम हो जाएंगी (नाभकीय उत्तरदायित्व ) और मुझे यहाँ भी भारत पर नहीं फ्रांस पर गर्व होता है और भरोसा है की वे हमसे अपने हित में यह कानून बनवा ही लेंगे, फिर जियाबाओ आते है और जैसा की चीन के साथ अक्सर होता है वे कुछ नहीं कहते और हम अटकलें लगते हैं  पर वे आते हैं और चुप चाप हमें चीन पर निर्भर बनाने का अपना अजेंडा पक्का करके चले जाते हैं  फिर अरुणाचल में भी नत्थी वीज़ा जारी करके तमाचा भी मारते हैं। मुझे पूरा भरोसा है की हमारे लोक सभा में बैठे प्रतिनिधि निश्चित ही जियाबाओ और चीनी जनता का ध्यान रखेंगे और इस कृत्य में हमारी नौकरशाही, न्यायपालिका उनका पूरा साथ देगी। मुझे गर्व होता है चीन पर। मुझे तो पाकिस्तान पर भी गर्व होता है। एक हम हैं की अपनी सम्पदा, बाज़ार, और व्यापार जैसी सही चीजों के बल पर सौदे बाज़ी नहीं कर पाते और एक वो हैं जो आतंकवाद जैसी घटिया चीज़ को भी भुना लेते हैं। मेरे देश में अरुंधति हैं जिनसे पाकिस्तान और चीन के नागरिकों को बहुत आशाएँ हैं और भारत का खाँटी नागरिक होने के कारण मुझे पता है के वे बहुत संवेदनशील लेखिका हैं (यह अलग बात है की छोटी चीजों का देवता लिखने के बाद उन्हें लिखते नहीं देखा हाँ छपती जरूर हैं और खबरों में बनी रहती हैं) और वे इसी संवेदनशीलता के चलते निश्चित ही उनकी अपेक्षाओं को पूरा करेंगी। क्या हुआ जो वे छोटी चीजों के बारे में लिखती हैं, उनकी सोच छोटी बिल्कुल नहीं है। भला वे भारत में ऐसे ही थोड़े ही रह रहीं हैं। यह सुविधा और किस देश में मिलेगी कि कोई अपने खाने की थाली में ही छेद करे और कोई कुछ ना कहे। इसी देश में एसे बिनायक सेन भी हैं जो देशद्रोहियों के लिए काम करते हैं और तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच लोकप्रिय हैं।
इसी देश में हैं सोनिया जी जो अक्सर चुप रहती हैं और इसी में अपनी भलाई समझती हैं। चुप्पी को हथियार बना कर वे आज देश की सबसे ताकतवर नेता हैं यह और बात है की इस देश की जनता जो वर्षों से चुप्प है, सबसे निरीह है। चुप्पी का यह गुण मेरे देश के एक और कर्णधार राहुल गांधी में नहीं है। वे जो मन में आता है बोल देते है – किसी से कुछ भी और किसी को कुछ भी। वे जानते हैं की भीषण मीडिया के इस दौर में वे जो बोलेंगे वही खबर बन जाएगी। वे कहते हैं की देश में सबसे बड़ा खतरा हिन्दू आतंकवाद से है। वे यह बात अमेरिकी राजदूत से कहते हैं। जब वे बच्चे थे तो उनकी दादी को सिक्ख आतंकवादियों ने मार डाला था और किशोर अवस्था में उनके पिता को तमिल आतंकवादियों ने। उन्हें परिस्थितियों ने यही सिखाया है की आतंकवाद का बाकायदा धर्म होता है और उसे उसी तरह बाँट कर देखना चाहिए। दादी की हत्या के बाद सिक्खों का कत्ले आम हुआ, पता नहीं वह कौन सा आतंकवाद था शायद सोचा नहीं उन्होंने शायद कांग्रेसी आतंकवाद। भारत एक अरब लोगों का देश है, यहाँ की अर्थव्यवस्था दुनियाँ की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से है, विशाल संसाधन हैं, अनेक समस्याएँ है। राहुल गांधी जी तो अपने आलीशान आवास से कभी निकले ही नहीं (यहाँ तक की वीज़ा पर दस्तखत के लिए भी नहीं – पता नहीं वे उन गरीबों की झोंपड़ियों में कैसे चले जाते हैं) चाँदी के अनगिनत चमचों के साथ पैदा हुये राहुल बाबा अब प्रधानमंत्री बनने वाले हैं पता नहीं वे क्या करेंगे। मुझे तो घबराहट होती है पर मुझे गर्व होता हैं अमेरिका पर कि वहाँ ओबामा चुने जाते हैं। हमारे यहाँ तो देश के सर्वोच्च पद पर भी लोग विरासत से आते हैं। जब मुख्य परिवार राज नहीं कर रहा हो तो इस गद्दी को अनेक बैरम खान सहेजते हैं । इस कुर्सी पर अक्सर वे लोग आ बैठते हैं जो जनता से जुड़े ही नहीं हैं, वे चुने नहीं जाते। नेहरू जी और शास्त्री जी को छोड़ दें तो इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी (वे सुपर प्रधान मंत्री हैं – पता नहीं जब उप प्रधान मंत्री हो सकता हैं तो सुपर प्रधान मंत्री होने में क्या बुराई हैं? आखिर हैं तो दोनों ही होमोलोगस- एक ही स्रोत से उत्पन्न – राजनीतिक मजबूरी) मनमोहन सिंह( वे लोक सभा से नहीं चुने गए हैं, राज्य सभा का सदस्य उन्हें बनवाया गया हैं – संवैधानिक मजबूरी के कारण) और अब राहुल जी तय हैं। यह भाई भतीजावाद और वंशवाद आज चारो तरफ है। क्या राजनीति और क्या बौलीवुड। नेताओं की कुर्सी नेता बच्चों के लिए, अफसर की कुर्सी अफसर बच्चों के लिए, जज की कुर्सी के आसपास ऊपर नीचे रिश्तेदार, बंबई में स्टार के बच्चों के लिए स्टार की कुर्सी। और देशों में राजनीतिज्ञ जनता के बल पर चुन कर आते हैं, यहाँ का नेता जनता पर बल प्रयोग करके आता है। सारे गुंडों, हत्यारों, बलत्कारियों को अपने मुख्य कार्य के अलावा यहाँ एक वैकल्पिक करियर भी उपलब्ध है जो उन्हें ना केवल शक्ति, धन और सत्ता देता है बल्कि उनके अपराधों पर पर्दा डाल कर उन्हें भयमुक्त करता है। आज अगर किसी स्कौर्पियो, सफारी, एनडेवर आदि पर विधायक,लिखा हुआ देखते हैं लोग तो सुकून के स्थान पर उनका खून सूख जाता है। लाल बत्ती, काले शीशे, हुंकारता हुआ हूटर किसी राक्षस से कम नहीं लगता। भला किसकी हिम्मत होगे इन्हें अपना प्रतिनिधि कहने की। किस पर गर्व करूँ एसे नेताओं पर, उनकी गाड़ियों पर, उनके हूटरों पर?  
मुझे नहीं पता हमारे आजादी के नेताओं ने देश के लिए क्या सपने देखे थे (बल्कि अब तो लगता है उनके सपने असल में खुद तक ही सीमित थे) लेकिन आज तो यह देश स्वप्नहीन हो कर केवल दूसरे देशों के सपने साकार कर रहा है। मेरे देश के होनहार कभी हिम्मत नहीं करते अपने सपने देखने की, वे नहीं देखते सपने ऐसी भारतीय कंपनियों के जो दुनियाँ में फैली हों, वे नहीं देखते सपने ऐसे आविष्कारों के जो दुनियाँ को हिला दें वे बस देखते हैं की बिल गेट्स, लैरी पेज के सपनों में कैसे शामिल हुआ जाय। भारतीय आईआईटी इंजीनियर माइक्रोसॉफ्ट, गूगल में नौकरी कर के संतुष्ट है, भारतीय डॉक्टर अमेरिका, ब्रिटेन में पैसे कमा रहा है। हम सब दूसरों के सपनों को साकार कर रहे हैं। हम सो रहे हैं और वे हमें सपने दिखा कर लूट रहे हैं। उनकी पत्रिकाएँ कहती हैं की भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था है लेकिन असल में वे इसे दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार के रूप में देखना पसंद करते हैं। वे हमें दना दान मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड के खिताब बांटते हैं, वे हमें स्लमडॉग कहते हैं ( फिल्म में दरअसल भारत की ही कहानी है जिसे स्लमडॉग के टाइटल से नवाजा गया है) और हम गर्वित हो कर जय हो को राष्ट्रिय गीत बना बैठे हैं, पिछले 15 अगस्त को कई स्कूलों और कार्यक्रमों में यह गीत सारे देशभक्ति गीतों को दबा गया। आखिर देश भक्ति का एक लफ्ज भी इसमें नहीं है में कैसे गर्व करूँ इस उपलब्धि पर।
कहा जाता हैं कि यहाँ जन्म लेने को देवता भी तरसते हैं – शायद यहाँ जन्म लेने की होड़ के कारण ही एक अरब हो गए हैं हम और देवता तो बस तरस कर ही रह गए, शायद कहीं और जन्म ले लिया तभी यह देश आज देवताओं से मरहूम है और अनेक अवसरवादी राक्षसों से भरा है। यहाँ जन्म लेने को शायद अब इसलिए तरसा जाता है कि ऐसी खुले आम लूट भला और किस देश में संभव है। तभी शायद किसी ने कहा है मेरे देश कि धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती राजा, कलमाड़ी, तेलगी आदी को देख कर कवि की यह पंक्ति सत्य लगती है। यह धरती यह सब उगलती है और ये सरकारी आँखों के तारे उसे ठिकाने लगाते रहते है। निश्चित ही यह भूमि स्वर्ग से सुंदर है पर शायद राजा, अंबानी, टाटा, रडिया, कलमाड़ी, सोनिया, मीरा यादव, थॉमस जैसे लोगों के लिए ही।
मेरे देश में कुछ और लोग भी हैं। जैसे करकरे, विजयराघवन, सत्येंद्र दुबे, आदि जिन्हें हम शहीद कहते हैं।मुझे गर्व होता है फ्रांस, रूस और अमेरिका पर की वहाँ वीर बहादुरों को लोग याद करते हैं। उनके लिए मूजियम हैं और उनकी जीवनियाँ स्कूल की किताबों में हैं पर हमारा भारत- यहाँ न मूजियम हैं, ना उन्हें याद करने की फुर्सत है। है तो बस उनके नाम पर घोटाले दर घोटाले – कभी ताबूत घोटाला, कभी शहीद पेंशन घोटाला और कभी आदर्श घोटाला। जैसे मूजियम के स्थान पर शहीदों को घोटालों के जरिये ही याद किया जाएगा
भारत का एक संविधान है, कानून हैं, कानून के रखवाले हैं लेकिन प्रति दिन बेशर्मी से इसकी धज्जियां उड़ाई जाती हैं और रखवाले चुचाप बैठे रहते हैं। इस देश के कानून में इतनी शक्ति नहीं है की स्वयं अपनी रक्षा कर सके। देश की सर्वोच्च अदालत में भी यह ताकत नहीं है की अपराधियों को जनता की छाती पर मूंग लने से रोक सके। क्या सर्वोच्च अदालत के महान न्यायधीशों में इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं है जो संविधान की ऐसी व्याख्या कर सके की राजनीति अपराधियों के सिर छुपाने की जगह न बने। यहाँ अदालतों में 25 वर्षों में तलाक के मामले निपटाए जाते हैं तो भूमि के विवाद अनंत काल तक घसीटते हैं। न्याय पिछले 400 वर्षों से आम आदमी से कई प्रकाश वर्ष दूर बना हुआ है। जहांगीरी घंटे के दिन आखिर कब लौटेंगे।
            में भारत का रहने वाला हूँ और भारत की ही बात सुनाता हूँ पर अतीत की नहीं वर्तमान की। यहाँ लोग शादियों में भयानक खर्चा करते हैं फिर उसी से डर कर लड़कियों को मारते भी हैं। यहाँ लोग बहुओं को जलाते हैं, यहाँ लोग सतियों को जिंदा आग के हवाले करते हैं,विधवाओं को शोषित करते हैं यहाँ लोग आदमी को सड़क पर मरता छोड़ देते हैं पर एक गाय के नाम पर सैकड़ों को मार डालते हैं, यह भारत है जहां बजबजाते शहर हैं, गंदे गाँव हैं, भीषण गरीबी है, भुखमरी है, लेकिन यह भारत है जहां एक साल मैं करीब 500000 करोड़ के घोटाले होते हैं (तेलगी, कौमनवेल्थ, 2जी, प्रोविडेंट फंड, व अन्य ) यह भारत है। कृषि प्रधान देश । यहाँ अजीब कृषि होती है। किसान फसल उगाता है। कृषि मंत्री सट्टेबाजों, जमाखोरों की मदद करते हुये बयान देते हैं की अब दूध के दाम बदेंगे, सब्जियों के दाम बढ़ेंगे या प्याज़ के दाम बढ़ेंगे। जमाखोर गोदामों में जमा कर लेता है। सरकार भी उपज को  खरीद कर सड़ने के लिए छोड़ देती है। किसान को सही दाम नहीं मिलते, भूखे को अनाज नहीं मिलता पर इसी सड़े अनाज से दारू बन कर उस किसान और उस भूखे को बेची जाती है। वह इसे पी कर धुत्त हो जाता है, गरीबी और भुखमरी भूल जाता है उसे यह दुनिया हसीन लगती है। सरकार सही लगती है, देशभक्ति उमड़ पड़ती है। घोटाले भूल कर वह फिर दुनियादारी में मस्त हो जाता है। टीवी देखता। न्यूज़ सुनता है जिसमें सास बहू की साजिश होती हैं, इंडिया का ज़ायका होता है, साँपों के चमत्कार होते हैं शीला की जवानी होती है, अपराध की दुनिया होती है और इतनी सारी चीख़ों में खबर कहीं गुम हो जाती है । पर मैं क्या करूँ। मुझे पीने की आदत नहीं इसलिए मुझे भारत पर अब गर्व नहीं होता।